आज जब बीसवीं सदी समाप्त होने को है तो हम देखते हैं कि विश्व छोटा हो गया है और विश्व के लोग लगभग एक समुदाय के हो गए हैं। राजनैतिक और सैन्य गठबंधनों ने विशाल बहुराष्ट्रीय समूहों का निर्माण किया है, उद्योगों और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार ने एक वैश्विक अर्थव्यवस्था उत्पन्न कर दी है और विश्व व्यापक संचार माध्यमों ने दूरी, भाषा और जाति की पुरानी बाधाओं को नष्ट कर दिया है। साथ ही हमारी बढ़ती गंभीर समस्याएँ - बढ़ती जनसंख्या, घटते प्राकृतिक संसाधन और एक पर्यावरण संकट जो हमारी वायु, जल और वनों के लिए एक संकट, साथ ही जीवन के विशाल सुंदर रूप जो हमारे इस छोटे ग्रह में अस्तित्व का मूल आधार हैं, हमें निकट लाती है।
मैं मानता हूँ कि हमारे समय की चुनौती का सामना करने के लिए मानव जाति को सार्वभौमिक उत्तरदायित्व की भावना को और अधिक विकसित करना होगा। हममें से हर एक को न केवल अपने लिए, परिवार या देश के लिए अपितु पूरी मानव जाति के कल्याण के लिए कार्य करना सीखना होगा। सार्वभौमिक उत्तरदायित्व मानव के अस्तित्व की वास्तविक कुंजी है। यह विश्वशांति, प्राकृतिक संसाधनों का न्यायसंगत उपयोग, भविष्य की पीढ़ियों प्रति चिंता और पर्यावरण की उचित देखभाल का सर्वोत्तम आधार है। कुछ समय से मैं सोच रहा हूँ कि हमारी परस्पर दायित्व की भावना और परोपकारी उद्देश्य जहाँ से वह निकलता है, उसे कैसे विकसित किया जाए। संक्षेप में मैं अपने विचार रखना चाहूँगा।
एक मानव परिवार
हम ऐसा चाहें अथवा नहीं, पर हम सब का जन्म इस पृथ्वी पर एक बड़े मानव परिवार के अंश के रूप में हुआ है। धनवान या निर्धन, शिक्षित या अशिक्षित, एक देश का निवासी हो अथवा दूसरे देश का, एक धर्म का अनुयायी या दूसरे धर्म का, इस विचारधारा से जुड़ा या किसी अन्य, अंततोगत्वा हममें से प्रत्येक अन्य लोगों की ही तरह मनुष्य हैं – हम सब सुख की कामना करते हैं और दुख नहीं चाहते। इसके अतिरिक्त हममें से हर एक को अपना लक्ष्य प्राप्त करने का समान अधिकार है।
आज के विश्व की यह आवश्यकता है कि हम मानवीयता के एकत्व को स्वीकार करें। अतीत में अलग रह रहे समुदाय एक दूसरे को आधारभूत रूप से अलग अलग समझ सकते थे और यहाँ तक कि उनका अस्तित्व नितांत एकाकी था। परन्तु आजकल विश्व के किसी एक भाग की घटना अंततः समूचे ग्रह को प्रभावित करती है। अतः हमें हर एक बड़ी स्थानीय समस्या को उसके प्रारंभ से ही वैश्विक समस्या के रूप में देखना चाहिए। अब हम बिना विध्वंसक परिणाम के राष्ट्रीय, जातीय या वैचारिक बाधाएँ नहीं खड़ी कर सकते। हमारी बढ़ती पारस्परिक अन्योन्याश्रितता की भावना के संदर्भ में दूसरों के हितों के बारे में सोचना स्पष्ट रूप से आत्महित का सर्वश्रेष्ठ रूप है।
मैं इस तथ्य को आशा के स्रोत के रूप में देखता हूँ। सहयोग की आवश्यकता केवल मानव जाति को सुदृढ़ ही करेगी, क्योंकि यह हमें इस बात को समझाने में सहायक है कि नए विश्व की सबसे सुरक्षित आधारशिला केवल व्यापक राजनैतिक या आर्थिक गठबंधन नहीं, अपितु प्रत्येक व्यक्ति के प्रेम और करुणा का अभ्यास है। एक बेहतर, खुश, अधिक स्थिर और सभ्य भविष्य के लिए हममें से हर एक को सच्चे भातृत्व तथा भगिनित्व की सहृदयता को विकसित करना होगा।
सार्वभौमिक उत्तरदायित्व
सबसे पहले मैं इस बात का उल्लेख करना चाहूँगा कि मैं किसी प्रकार के आंदोलन के निर्माण अथवा आदर्शों का पक्षधर बनने में विश्वास नहीं करता। न ही मुझे किसी एक विशेष विचार को प्रोत्साहित करने के लिए किसी संगठन के गठन का अभ्यास अच्छा लगता है, जिसका यह अर्थ हो जाता है कि केवल एक विशेष समूह के लोग ही उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उत्तरदायी हैं, जबकि बाकी सबको इससे छूट रहती है। हमारी वर्तमान परिस्थितियों में हममें से कोई भी यह मान कर नहीं बैठ सकता कि कोई अन्य हमारी समस्याओं का समाधान करेगा, हममें से प्रत्येक को अपने हिस्से के सार्वभौमिक उत्तरदायित्व को लेना होगा। इस प्रकार जब चिंतित उत्तरदायी व्यक्तियों की संख्या अधिक हो जाएगी तो दस, सौ, हजार और हजारों-हजार ऐसे लोग आम परिस्थितियों में बहुत अधिक सुधार लाएँगे। सकारात्मक परिवर्तन शीघ्रता से नहीं आता और यह अनवरत प्रयास की माँग करता है। यदि हम निरुत्साहित हो जाएँ तो हम सरल लक्ष्य भी प्राप्त नहीं कर पाएँगे। सतत दृढ़ इच्छाशक्ति, प्रयास से हम सबसे कठिन उद्देश्य को भी प्राप्त कर सकते हैं।
सार्वभौमिक उत्तरदायित्व के व्यवहार को अपनाना आवश्यक रूप से एक निजी निर्णय है। करुणा की वास्तविक परीक्षा मात्र खोखली चर्चाओं से नहीं बल्कि हमारे दैनिक जीवन के व्यवहार से होती है। फिर भी कुछ मूलभूत विचार परोपकार के अभ्यास के लिए आधार हैं। यद्यपि शासन की कोई भी प्रणाली सर्वथा उचित नहीं मानी जा सकती, पर फिर भी लोकतंत्र को मानव की मूलभूत प्रकृति के सबसे निकट माना जा सकता है। इसलिए हममें से जो लोग इसका आनंद उठाते हैं, उन्हें सभी लोगों के अधिकारों के लिए अपने संघर्ष को बनाए रखना होगा। इसके अतिरिक्त लोकतंत्र ही वह ठोस आधार है, जिस पर वैश्विक राजनैतिक ढाँचे को निर्मित किया जा सकता है। एक रूप में कार्य करने के लिए हमें सभी लोगों और देशों के उनके विशिष्ट गुणों और मूल्यों को बनाए रखने के प्रयासों का सम्मान करना चाहिए।
विशेष रूप से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के दायरे में करुणा का भाव लाने के लिए अत्यधिक प्रयासों की आवश्यकता पड़ेगी। आर्थिक असमानता विशेषकर विकसित और विकासशील देशों के बीच इस ग्रह पर दुख का सबसे बड़ा स्रोत है।
संभव है कि प्रारंभ में उन्हें कुछ आर्थिक हानि उठानी पड़े, परन्तु बहुराष्ट्रीय कंपनियों को निर्धन देशों के शोषण करने में कमी लानी चाहिए। विकसित देशों में उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने के लिए अनमोल संसाधनों का दोहन विनाशकारी है। यदि यह बिना किसी रोक-टोक के अनवरत जारी रहा तो अंततः हम सब को इसके परिणाम भुगतने पड़ेंगे। दुर्बल और विविधता से वंचित अर्थव्यवस्थाओं को सशक्त करना राजनैतिक और आर्थिक स्थिरता के विकास हेतु अधिक बुद्धिमानी भरी योजना होगी। यह कितना भी आदर्शवादी लगे, प्रतिस्पर्धा और संपत्ति की कामना नहीं, अपितु परोपकार ही व्यवसाय को चालित करने की मुख्य शक्ति होनी चाहिए।
हमें आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भी मानवीय मूल्यों के प्रति हमारी प्रतिबद्धता का नवीनीकरण करने की आवश्यकता है। यद्यपि विज्ञान का उद्देश्य सत्य के बारे में अधिक जानना है, पर इसका अन्य लक्ष्य जीवन की गुणवत्ता में सुधार भी है। परोपकारी प्रेरणा के बिना वैज्ञानिक लाभदायक तकनीक और केवल कामचलाऊ तकनीक में अंतर नहीं कर सकते। हमारे चारों ओर की पर्यावरण हानि इस उलझन के परिणाम का सबसे स्पष्ट रूप है, असाधारण विविधता से भरी जैविक तकनीक के लिहाज से, जिसकी मदद से हम आज जीवन की सूक्ष्म संरचनाओं में भी परिवर्तन कर सकते हैं, को शासित करने के लिए उचित प्रेरणा और अधिक प्रासंगिक हो सकती है। यदि हम अपना हर कार्य नैतिक आधारशिला पर आधारित नहीं करते तो हम जीवन के अत्यधिक कोमल ताने-बाने को बहुत क्षति पहुँचा सकते हैं।
और न ही विश्व के धर्म इस दायित्व से बच सकते हैं। धर्म का उद्देश्य केवल सुन्दर गिरजाघर या मंदिर बनाना नहीं है, अपितु सकारात्मक मानवीय गुण, जैसे सहनशीलता, उदारता और प्रेम का परिष्कार करना है। विश्व का प्रत्येक धर्म, फिर उसकी दार्शनिक सोच जो भी हो, वह सबसे पहले इस सिद्धांत पर आदर्शित होता है कि हमें अपनी स्वार्थ भावना कम करनी चाहिए और दूसरों की सेवा करनी चाहिए। दुर्भाग्य से, कई बार धर्म ही समस्याओं का समाधान निकालने के स्थान पर कलह का कारण बनता है। विभिन्न धर्माभ्यासियों को यह समझना चाहिए कि प्रत्येक धार्मिक परंपरा का एक गहन आंतरिक मूल्य और मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य देने का एक उपाय होता है। एक ही धर्म, जैसे एक ही प्रकार के भोजन के समान हर एक को संतुष्ट नहीं कर सकता। उनकी मानसिक विविधता के कारण, कुछ लोगों को एक प्रकार की शिक्षा से लाभ होता है तो दूसरों को दूसरी प्रकार की। प्रत्येक धर्म में सौहार्दपूर्ण लोगों को तैयार करने की क्षमता होती है, और उनके द्वारा दिए गए प्रायः बिल्कुल विरोधाभासी दर्शन के बाद भी वे सफल हुए हैं। अतः विभाजनकारी धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता को बढ़ावा देने का कोई कारण नहीं है, और सभी प्रकार के आध्यात्मिक अभ्यास का आनंद लेकर उसका सम्मान करने का हर कारण बनता है।
निश्चित रूप से सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र, जिसमें महान परोपकारिता के बीज बोने की आवश्यकता है, वह अंतर्राष्ट्रीय संबंध है। पिछले कुछ वर्षों में विश्व नाटकीय रूप से परिवर्तित हुआ है। मेरे विचार से हम सब सहमत होंगे कि शीतयुद्ध की समाप्ति और पूर्वी यूरोप और पूर्व सोवियत संघ में साम्यवाद का पतन एक नया ऐतिहासिक युग लेकर आया है। जब हम ९० के दशक को देखें तो पाएँगे कि २०वीं सदी में मानवीय अनुभवों ने एक चक्र पूरा कर लिया है।
यह मानव इतिहास का सबसे कष्टदायी काल रहा है, एक ऐसा समय जब हथियारों की घातक क्षमता में बढ़ोतरी के कारण पहले की तुलना में अधिक लोग हिंसा के कारण प्रभावित हुए और मारे गए हैं। इसके अतिरिक्त, हमने कट्टरपंथी विचारधाराओं के बीच एक-दूसरे का अंत करने की ऐसी प्रतिस्पर्धा देखी है, जिसने मानवीय समुदाय को छिन्न-भिन्न कर दिया। एक ओर बलप्रयोग और विध्वंसकारी शक्ति तो दूसरी ओर स्वतंत्रता, बहुलवाद, निजी अधिकार और लोकतंत्र। मेरा मानना है कि इस बड़ी प्रतिस्पर्धा के परिणाम अब सामने आ चुके हैं। यद्यपि आज भी शांति, स्वतंत्रता और लोकतंत्र जैसी अच्छी मानवीय भावनाओं को क्रूरता और बुराई के कई रूपों का सामना करना पड़ता है, फिर भी इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि सभी जगह अधिकांश लोग इन्हीं के विजय के पक्षधर हैं। इस प्रकार से हमारे युग की त्रासदियाँ भी पूरी तरह बिना लाभ के नहीं रही है और कई स्थितियों में इन्हीं के कारण मानवीय चित्त खुला है। साम्यवाद का पतन इस बात को प्रदर्शित करता है।
यद्यपि साम्यवाद ने कई महान आदर्शों का समर्थन किया, जिसमें परोपकार भी शामिल था, पर उसे शासित करने वाले अभिजनों द्वारा अपने विचारों का थोपना विनाशकारी सिद्ध हुआ। इन सरकारों ने सूचना के प्रवाह पर समाज के माध्यम से पूरा नियंत्रण स्थापित करने के लिए सीमाएँ पार कर दी और उन्होंने समूची शिक्षा प्रणाली को ही इस प्रकार से ढालना चाहा, ताकि नागरिक साधारण कल्याण के लिए कार्य करें। यद्यपि पिछली दमनकारी सरकारों को समाप्त करने के लिए आरंभ में कुछ कठोर संस्थाओं की आवश्यकता थी, पर एक बार लक्ष्य की पूर्ति हो जाने के पश्चात इन संस्थाओं की एक उपयोगी मानवीय समुदाय के गठन की भूमिका नगण्य थी। साम्यवाद इस कारण असफल रहा क्योंकि अपनी सोच को बढ़ावा देने के लिए वह बल पर निर्भर था। अंततः मानवीय प्रकृति इससे उत्पन्न दुखों को संभालने में असमर्थ थी।
पाशविक बल चाहे कितनी ही शक्ति के साथ क्यों न लगाया जाए, यह मानव की स्वतंत्रता की मूलभूत इच्छा को शांत नहीं कर सकता। पूर्वी यूरोप में सड़कों पर उतर आए हजारों-लाखों लोगों ने इस बात को सिद्ध कर दिया। उन्होंने बस स्वतंत्रता और लोकतंत्र की मूलभूत मानवीय आवश्यकता का ही प्रदर्शन किया। यह अत्यंत मार्मिक था। उनकी माँगों का नए आदर्श से कुछ लेना देना नहीं था, ये लोग सीधे अपने हृदय से बोल रहे थे, स्वतंत्रता की अपनी इच्छा को अभिव्यक्त कर रहे थे और यह प्रदर्शित कर रहे थे कि यह मानवीय प्रकृति के मूल से उपजी भावना है। वास्तव में स्वतंत्रता व्यक्तियों और समाज दोनों के ही लिए रचनात्मकता प्रदर्शित करने का स्रोत है। यह पर्याप्त नहीं है जैसा कि साम्यवादी व्यवस्था मानती है कि मात्र रोटी, कपड़ा और मकान उपलब्ध कराया जाए। यदि हमें यह सब चीजें मिल जाएँ, परन्तु अपनी अंतरतम प्रकृति को बनाए रखने में स्वतंत्रता की मूल्यवान वायु का अभाव हो तो केवल अर्ध मानव होंगे, हम मात्र पशु सम हो जाएँगे जिनका उद्देश्य केवल शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करना ही होता है। मुझे लगता है कि पूर्व सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप की शांतिपूर्ण क्रांतियों ने हमें कई महान पाठ पढ़ाए हैं। इनमें से एक है सत्य का मूल्य। लोग किसी भी व्यक्ति या व्यवस्था द्वारा धमकाए जाने, धोखा खाने अथवा झूठ का शिकार नहीं बनना चाहते। ऐसे कार्य मूलतः मानवीय स्वभाव के विपरीत हैं। इसलिए यद्यपि धोखे का अभ्यास करने वाले और शक्ति का उपयोग करने वाले लोग अल्प अवधि के लिए सफलता प्राप्त कर सकते हैं पर अंततः उन्हें हटा दिया जाएगा।
दूसरी ओर, हर कोई सत्य की सराहना करता है और सम्मान तो हमारे रक्त में है। सत्य श्रेष्ठ गारेंटर है और स्वतंत्रता और लोकतंत्र की वास्तविक आधारशिला है। इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि आप दुर्बल हैं या सबल अथवा आपके उद्देश्य से कम लोग जुड़े हैं या अधिक, सत्य की ही विजय होगी। १९८९ के सफल स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद के मानव की मूलभूत भावनाओं पर आधारित आंदोलन इस बात का स्मरण कराते हैं कि आज भी सत्य का हमारे राजनैतिक तंत्र में निरा अभाव है। विशेष तौर पर अंतरराष्ट्रीय संबंधों में हम सत्य को बहुत कम सम्मान देते हैं। अंततः होता यह है कि दुर्बल देश शक्तिशाली देशों द्वारा दमित और शोषित होते हैं जैसा कि अधिकांश समाजों के निर्बल वर्ग अधिक सम्पन्न और शक्तिशाली समाज के लोगों द्वारा त्रसित होते हैं, यद्यपि अतीत में सत्य की सरल अभिव्यक्ति को अवास्तविक कहकर निरस्त कर दिया गया, पर विगत कुछ वर्षों ने यह सिद्ध कर दिया है कि यह मानव चित्त की एक प्रबल शक्ति है और परिणाम स्वरूप इतिहास को रचने की।
पूर्वी यूरोप से मिली दूसरी प्रमुख सीख है शांतिपूर्ण परिवर्तन की। अतीत में परतंत्र नागरिक प्रायः स्वतंत्रता के संघर्ष में हिंसा का सहारा लेते थे। अब महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग जूनियर के पदचिन्हों पर चलते हुए ये शांतिपूर्ण आंदोलन भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी सफल अहिंसक परिवर्तन का बहुत अच्छा उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। जब भविष्य में समाज में बड़े परिवर्तनों की आवश्यकता का अनुभव होगा तो हमारे वंशज आज की स्थितियों की ओर देखकर शांतिपूर्ण संघर्ष के प्रतिमानों को देखेंगे, अभूतपूर्व स्तर पर सफलता का अस्त्र, जिसमें दर्जनों देश और लाखों, व्यक्ति शामिल थे। और तो और हाल की घटनाओं ने दिखा दिया है कि शांति और स्वतंत्रता भावना की कामना मानवीय प्रकृति के आधारभूत स्तर में समाहित है और यह कि हिंसा इसका विलोम है।
यह सोचने से पूर्व कि शीतयुद्ध के बाद के काल के पश्चात किस प्रकार की वैश्विक व्यवस्था श्रेष्ठ रहेगी, मैं सोचता हूँ कि हिंसा के प्रश्न पर विचार करना अधिक महत्त्वपूर्ण होगा, जिसको दूर करना विश्व शांति की आधारशिला होगी तथा किसी भी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए भी परम लक्ष्य भी।
अहिंसा और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था
प्रत्येक दिन मीडिया में आतंकवाद, अपराध और हमले की घटनाओं की खबरें आती है। मैं आज तक कभी ऐसे देश में नहीं गया जहाँ मृत्यु, हिंसा और मानव हत्याओं की त्रासदी भरे समाचार, रक्तपात की दुखद कहानियों ने समाचार पत्रों और आकाशवाणी को नहीं भर दिया हो। इस प्रकार की रिपोर्टिंग की मानो पत्रकारों और उनके पाठकों व श्रोताओं को लत सी लग गयी है। परन्तु मानव जाति का एक अत्यधिक बड़ा भाग विध्वंसकारी रूप से कार्य नहीं करता। इस ग्रह पर मौजूद पांच अरब लोगों में बहुत कम वास्तव में हिंसा के कार्य करते हैं। हममें से अधिकांश तो यथासंभव शांतिपूर्ण रहना ही पसंद करते हैं।
मूल रूप से हम सभी शांति का आनंद उठाते हैं, वे भी जो हिंसा की प्रवृत्ति रखते हैं। उदाहरण के लिए जब वसंत ऋतु आती है तो दिन लंबे हो जाते हैं, धूप खिली होती है और घास-वृक्ष जीवंत हो उठते हैं और हर एक चीज ताजा होती है। लोग प्रसन्न होते हैं। शरद ऋतु में एक पत्ता गिरता है और फिर दूसरा और फिर सारे फूल मुरझा जाते हैं हम उजाड़ नंगे पौधों से घिरे हुए होते हैं। हमें आनंदानुभूति नहीं होती। आखिर ऐसा क्यों? क्योंकि हमारे अंतरतम में हम सृजनात्मक और फलदायी विकास की कामना करते हैं तथा वस्तुओं का पतन, मृत्यु या फिर विनाश को नापसंद करते हैं। प्रत्येक विध्वंसक कार्य हमारी मूल प्रवृत्ति के विरुद्ध है, निर्माण करना रचनात्मकता मानवीय है। मुझे विश्वास है कि हर कोई इस बात पर सहमत है कि हमें हिंसा पर काबू पाना चाहिए, लेकिन यदि हमें इसे संपूर्ण रूप से समाप्त करना है तो पहले यह विश्लेषण करना चाहिए कि इसका कोई मूल्य है या नहीं। यदि हम इस प्रश्न का सामना अत्यधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण से करें तो हम पाते हैं कि कुछ अवसरों पर हिंसा वास्तव में उपयोगी प्रतीत होती है। कोई भी बल से समस्या को शीघ्र सुलझा सकता है। पर इसी समय यह सफलता अधिकांश रूप से दूसरों के अधिकारों और कल्याण की कीमत पर होती है। परिणाम यह होता है कि यद्यपि समस्या का त्वरित समाधान हो जाता है पर दूसरी के बीज बोए जा चुके होते हैं।
दूसरी ओर, यदि किसी के कार्य को ठोस तार्किक समर्थन प्राप्त है तो हिंसा के उपयोग का कोई कारण नहीं है। वे लोग जिनका निज स्वार्थ के अतिरिक्त कोई उद्देश्य नहीं होता और जो तार्किक संवाद से अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते, हिंसा पर निर्भर रहते हैं। यहाँ तक कि जब परिवार या मित्र असहमत होते हैं तो जिन व्यक्तियों के पास तर्क है वे बिंदु दर बिंदु अपना पक्ष रख सकते हैं, जबकि जिनके पास कोई ठोस तर्क नहीं होता वो क्रोध के वशीभूत हो जाते हैं। इस तरह क्रोध शक्ति का संकेत नहीं अपितु दुर्बलता का प्रतीक है। अंततः यह महत्त्वपूर्ण है कि हम अपनी स्वयं की प्रेरणा का परीक्षण करें और विपक्षी का भी। हिंसा और अहिंसा के कई प्रकार हैं, पर मात्र बाहरी तत्वों से उनका अंतर नहीं बताया जा सकता। यदि किसी की प्रेरणा नकारात्मक हो तो उससे जो कार्य उत्पादित होगा वह गहन रूप में हिंसात्मक होगा, यद्यपि वह भाव शांत और कोमल प्रतीत हो सकता है। इसके विपरीत, यदि किसी की प्रेरणा सच्ची और सकारात्मक हो, परन्तु परिस्थितियाँ कठोर व्यवहार की माँग करती हो तो वास्तविक रूप में व्यक्ति अहिंसा का अभ्यास ही कर रहा है। परिस्थिति चाहे जो हो, मेरे विचार में दूसरों के हित में करुणाशील चिंता – केवल अपने लिए नहीं - शक्ति के उपयोग के पक्ष में इकलौता ठोस तर्क है।
“अहिंसा का सच्चा अभ्यास आज भी हमारे ग्रह में प्रयोगात्मक दौर से गुजर रहा है, पर इसको प्राप्त करने की कोशिश प्रेम और समझ पर आधारित होकर पवित्र है। यदि यह प्रयोग सफल हो जाता है तो यह आगामी सदी में एक अत्यधिक शांतिपूर्ण विश्व का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
मैंने कभी-कभार किसी पश्चिम के निवासी को कहते सुना है कि गांधीजी द्वारा उपयोग की गई लंबा अहिंसक निष्क्रिय प्रतिरोध हर किसी के लिए अनुकूल नहीं है और ऐसे कार्य पूर्व में अधिक स्वाभाविक रूप से संभव हैं क्योंकि पाश्चात्य देशों के निवासी सक्रिय होते हैं, वे सभी परिस्थितियों में तत्कालीन परिणाम चाहते हैं, फिर भले ही इसके लिए जीवन ही क्यों ना दाँव पर लगाना पड़े। मेरी विचार से यह मार्ग सदा लाभदायक नहीं होता। पर निश्चित रूप से अहिंसा का मार्ग हम सब के लिए अनुकूल है। इसमें केवल दृढ़ इच्छा शक्ति की आवश्यकता होती है। यद्यपि पूर्वी यूरोप के स्वतंत्रता आंदोलन अत्यधिक शीघ्र गंतव्य तक पहुँच गए, परन्तु स्वभावतः अहिंसक विरोधी प्रदर्शनों के लिए साधारणतया धैर्य की आवश्यकता होती है।”
इस संदर्भ में मैं प्रार्थना करता हूँ कि दमन की हिंसा और संघर्ष की विषम स्थितियों का सामना करते रहने के बावजूद चीन के लोकतांत्रिक आंदोलन से जुड़े लोग हमेशा शांतिप्रिय ही रहेंगे। मुझे विश्वास है कि वे रहेंगे। यद्यपि युवा चीनी छात्रों का बहुमत अत्यधिक कड़े साम्यवाद के दौरान पैदा हुआ और पला-बढ़ा, १९८९ के बसंत में उन्होंने विरोध के दौरान महात्मा गांधी की शांत प्रतिरोध की रणनीति का उपयोग किया। यह अनोखा है और अच्छी तरह स्पष्ट करता है कि सभी मानव शांति के पथ का पालन करना चाहते हैं, फिर भले ही उनके मस्तिष्क में कोई विशिष्ट वाद कूट कूट कर ही क्यों न भर दिया गया हो।
शांति के क्षेत्र
एशियाई समुदाय में ‘शांति स्थल’ कहे जाने वाले क्षेत्र में, मैं तिब्बत की भूमिका एक निष्पक्ष, असैन्य क्षेत्र के तौर पर देखता हूँ, जहाँ हथियारों पर प्रतिबंध हो और लोग प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए रहते हों। यह मात्र कपोल-कल्पना नहीं है, बल्कि तिब्बती हम पर आक्रमण के पूर्व हजारों वर्षों से ठीक इसी प्रकार जीवन व्यतीत कर रहे थे। जैसा कि हर कोई जानता है, तिब्बत में बौद्ध सिद्धांतों के अनुसार सभी वन्यप्राणी संरक्षित थे। इसके अतिरिक्त विगत लगभग ३०० वर्षों से हमारी कोई संगठित सेना भी नहीं थी। हमारे तीन महान धार्मिक राजाओं के शासनकाल के बाद छठी और सातवीं सदी में ही तिब्बत ने युद्ध को राष्ट्रीय नीति से बाहर कर दिया था।
विकासशील क्षेत्रीय समुदायों और निरस्त्रीकरण के संबंधों पर लौटते हुए मैं यह सुझाव देना चाहूँगा कि हर समुदाय के ‘हृदय में’ एक या अधिक देश हो सकते हैं, जिन्होंने शांति का क्षेत्र बनने का निश्चय कर लिया हो और जहाँ सैन्य-शक्ति पूर्ण रूप से प्रतिबंधित हो। यह पुनः मात्र एक स्वप्न नही है। चार दशक पूर्व दिसम्बर १९४८ में कोस्टारिका ने अपनी सेना भंग दी थी। हाल ही में स्विट्जरलैंड की ३७ फीसदी जनता ने सेना को समाप्त करने पर मुहर लगाई। चेकोस्लोवाकिया की नई सरकार ने सभी हथियारों के उत्पादन और निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है। यदि लोग इस प्रकार का निर्णय लें तो देश ऐसे क्रांतिकारी कदम उठाकर अपने मूल स्वभाव को ही बदल सकते हैं।
स्थानीय समुदायों के बीच शांति के क्षेत्र स्थायित्व के रमणीय स्थल सिद्ध होंगे। समूचे समुदाय द्वारा किसी भी सामूहिक शक्ति से तैयार की जाने वाली किसी सेना में अपने-अपने भाग का खर्च वहन करते हुए ये क्षेत्र शांति के अग्रदूत और एक शांतिपूर्ण विश्व के प्रतीक होंगे, साथ ही ये आपस में संघर्ष मुक्त होंगे। यदि एशिया, दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका में क्षेत्रीय समूह विकसित होते हैं और निरस्रीकरण बढ़ता है, ताकि सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाली अंतरराष्ट्रीय शक्ति का निर्माण हो, शांति के यह क्षेत्र विकसित हो पाएँगे और अपने विकास क्रम में शांति फैलाएँगे।
जब हम नए और अधिक राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य सहयोग वाले विश्व के इस या किसी अन्य प्रस्ताव पर विचार कर रहे हैं तो हमें ऐसा बिल्कुल नहीं सोचना चाहिए कि हम किसी बहुत दूर स्थित भविष्य की बात कर रहे हैं। उदाहरण के लिए यूरोप में अड़तालीस देशों की कांफ्रेंस ऑन सिक्योरिटी ऐंड कोऑपरेशन जैसी नई संस्था ने न केवल पूर्वी और पश्चिमी यूरोपिय देशों के बीच गठबंधन का आधार तैयार किया है, अपितु क़ॉमनवेल्थ ऑफ इंडिपेंडेंट स्टेट्स और अमेरिका तक इस जुड़ाव के सहभागी होंगे। इन उल्लेखनीय घटनाओं ने दो महाशक्तियों के बीच महायुद्ध के संकट को लगभग समाप्त कर दिया है।
मैंने इस वर्तमान युग की चर्चा में फिलहाल संयुक्त राष्ट्र को शामिल नहीं किया है, क्योंकि एक बेहतर विश्व के निर्माण की सहायता करने में और ऐसा करने के लिए इसकी क्षमता को लेकर हम परिचित हैं। पारिभाषिक अर्थ में संयुक्त राष्ट्र को हर एक परिवर्तन के केंद्र में होना चाहिए। यद्यपि भविष्य के लिए इसे अपने ढाँचे में कुछ सुधार लाना होगा। संयुक्त राष्ट्र को लेकर हमेशा से ही मेरी बहुत आशाएँ रही है और मैं किसी प्रकार की आलोचना से बचते हुए केवल इतना कहना चाहूँगा कि दूसरे महायुद्ध के पश्चात की परिस्थिति के अनुसार जिस रूप में इसके चार्टर के विषय में सोचा गया था, वह अब बदल चुका है। उस परिवर्तन के साथ ही संयुक्त राष्ट्र को अधिक लोकतांत्रिक बनाने का अवसर भी आ गया है, विशेष तौर पर पांच स्थायी सदस्यों तक ही सीमित सुरक्षा परिषद को लेकर, जिसमें और अधिक प्रतिनिधि रखे जाने चाहिए।
निष्कर्ष