हम जब प्रातः जागते हैं और रेडियो सुनते हैं या समाचार पत्र पढ़ते हैं तो हमारा सामना उन्हीं दुखद समाचारों से होता है - हिंसा, अपराध, युद्ध और आपदाएँ। मुझे याद नहीं पड़ता कि एक भी दिन ऐसा गया हो जब कहीं से कोई भयंकर घटना का समाचार न मिला हो। आज के इस आधुनिक युग में भी यह बात स्पष्ट है कि किसी का भी मूल्यवान जीवन सुरक्षित नहीं है। किसी भी पूर्व पीढ़ी को इतने बुरे समाचारों का सामना नहीं करना पड़ा है जिनका सामना हम कर रहे हैं; भय और तनाव की यह सतत अनुभूति किसी भी संवेदनशील और करुणाशील व्यक्ति को हमारे आधुनिक विश्व के विकास को लेकर गंभीरता से प्रश्न उठाने पर विवश करना चाहिए।
यह विडंबना ही है कि अधिक गंभीर समस्याएँ औद्योगिक रूप से अधिक विकसित समाजों से आती है। विज्ञान और तकनीक ने कई क्षेत्रों में चमत्कारिक कार्य किए हैं, पर मनुष्य की मूलभूत समस्याएँ बनी हुई है। अभूतपूर्व साक्षरता है, पर फिर भी लगता नहीं कि इस वैश्विक शिक्षा ने अच्छाई को बढ़ावा दिया हो, अपितु इसके स्थान पर केवल मानसिक अशांति और असंतोष की ही बढ़त हुई है। हमारे भौतिक विकास और तकनीक में बढ़त को लेकर कोई संदेह नहीं पर फिर भी यह पर्याप्त नहीं है, क्योंकि अभी तक हम शांति और सुख लाने में या पीड़ाओं पर काबू पाने में सफल नहीं हुए हैं।
हम केवल निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि हमारे उन्नति तथा विकास में कोई गंभीर चूक हुई होगी और यदि हमने समय रहते उसे रोका नहीं तो मानवता के भविष्य के लिए उसके विनाशकारी परिणाम होंगे। मैं विज्ञान और तकनीक के विरोध में बिलकुल भी नहीं हूँ – उन्होंने मानवता के समग्र अनुभव, हमारे भौतिक सुख तथा कल्याण में और जिस विश्व में हम रह रहे हैं, उसकी अधिक समझ में बहुत अधिक सहयोग दिया है। पर यदि हम विज्ञान और तकनीक पर बहुत अधिक बल दें तो हमारा मानवीय ज्ञान और समझ के उन अंगों से संपर्क टूटने का खतरा है जो ईमानदारी और परोपकार की ओर प्रेरित करते हैं।
विज्ञान और तकनीक में यद्यपि अनगिनत भौतिक सुख उपलब्ध कराने की क्षमता है, पर यह हमारे सदियों पुराने आध्यात्मिक तथा मानवीय मूल्यों का स्थान नहीं ले सकते, जिन्होंने विश्व सभ्यता को उनके सभी राष्ट्रीय रूप में जैसा हम जानते हैं, एक व्यापक आकार दिया है। कोई भी विज्ञान के अभूतपूर्व भौतिक लाभ को नकार नहीं सकता, पर हमारी आधारभूत मानवीय समस्याएँ बनी हुई है; हम अभी भी उन्हीं का सामना कर रहे हैं,यदि और अधिक नहीं तो दुख, भय तथा तनाव। इसलिए यह तर्कोचित ही है कि एक ओर भौतिक विकास और दूसरी और आध्यात्मिक मानवीय मूल्यों के विकास के बीच संतुलन साधा जाए। इस समन्वय को लाने के लिए हमें अपने मानवीय मूल्यों को पुनर्जीवित करना होगा।
मेरा यह पक्का विश्वास है कि कई लोग आज के वैश्विक नैतिक संकट को लेकर मेरी चिंता से सहमति रखते हैं और सभी मानवतावादी और धर्म अभ्यासी भी, जो हमारे समाज को अधिक करुणामय न्यायपूर्ण और एक समान बनाने को लेकर चिंतित हैं, मेरे आग्रह से जुड़ेंगे। मैं एक बौद्ध या एक तिब्बती के रूप में नहीं बोल रहा। न ही मैं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति (हालांकि मैं अपरिहार्य रूप से इन विषयों पर टिप्पणी देता हूँ) के विशेषज्ञ की ही तरह बोल रहा हूँ। बल्कि मैं मात्र एक मनुष्य की तरह बोलता हूँ, मानवीय मूल्यों के समर्थक के रूप में जो न केवल महायान बौद्ध धर्म की, पर सभी विश्व के महान धर्मों की नींव है। इस दृष्टिकोण से मैं आपके साथ अपना व्यक्तिगत दृष्टिकोण बाँट रहा हूँ – कि
१ वैश्विक मानवतावाद वैश्विक समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक है।
२ करुणा विश्व शांति का स्तंभ है।
३ इस दृष्टिकोण से विश्व के सभी धर्म शांति के पक्षधर हैं जैसे कि किसी भी आदर्श वाले मानवतावादी।
४ प्रत्येक व्यक्ति का सार्वभौमिक उत्तरदायित्व है कि वह मानवीय आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु संस्थाओं को स्वरूप दें।
मानवीय व्यवहार को परिवर्तित करते हुए मानवीय समस्याओं का समाधान
आज हम जिन कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उनमें से कुछ प्राकृतिक आपदाएँ हैं और उन्हें स्वीकारा जाना चाहिए और उनका सामना समभाव से करना चाहिए। पर अन्य कई हमारी गलतफहमियों के कारण हमारी अपनी बनाई हुई है और सुधारी जा सकती है। इस प्रकार जब हम लोग आधारभूत मानवता, जो हमें आपस में एक बड़े परिवार की तरह जोड़कर रखती है, को भूल कर छोटी-छोटी बातों के लिए झगड़ते हैं तो विचारधाराओं का संघर्ष, फिर वह चाहे राजनीतिक हो या धार्मिक, उत्पन्न होता है। हमें सदा स्मरण रखना चाहिए कि दुनिया के विविध धर्म, विचारधाराएँ और राजनीतिक प्रणालियाँ मनुष्यों को सुख देने के लिए बनाई गई है। हमें इस मूलभूत लक्ष्य को नहीं भूलना और किसी भी स्थिति में लक्ष्य पर साधन को हावी नहीं होने देना चाहिए, वस्तु और विचारधारा पर मानवता की श्रेष्ठता सदा बनाई रखनी चाहिए।
अब तक मानवता के समक्ष – देखा जाए तो इस धरती के सभी सत्वों के समक्ष, जो सबसे बड़ा खतरा है वह परमाणु विनाश का खतरा है। मुझे इस खतरे के बारे में अधिक विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु मैं विश्व के समस्त परमाणु शक्तियों के नेताओं से अपील करना चाहूँगा, जो वास्तव में अपने हाथों में विश्व का भविष्य धरे बैठे हैं, उन वैज्ञानिकों और तकनीकी लोगों से जो विनाश के इन अभूतपूर्व अस्त्र शस्त्रों के निर्माण में लगे हुए हैं, और कुल मिलाकर उन सभी लोगों से जो इन नेताओं को प्रभावित करने की स्थिति में हैं: मैं उनसे अपील करता हूँ कि वे अपनी बुद्धि को काम में लाएँ तथा सभी परमाणु हथियारों को विखंडित और नष्ट करने का कार्य प्रारंभ करें। हम जानते हैं कि परमाणु युद्ध होने की स्थिति में कोई विजेता न होगा, क्योंकि कोई जीवित न रहेगा। क्या ऐसे अमानवीय और हृदयहीन विनाश की सोच भी डरा देने वाली नहीं है? और क्या यह तर्कसंगत नहीं कि हम अपने ही विनाश के कारण को दूर करें, जब हम कारण जानते हैं और ऐसा करने हेतु हमारे पास यह करने के लिए समय और उपाय दोनों ही उपलब्ध हैं? प्रायः हम अपनी समस्या का समाधान नहीं कर पाते क्योंकि या तो हम इसका कारण नहीं जानते, या फिर यदि हम समझते हैं तो हमारे पास उसके समाधान का उपाय नहीं होता। परमाणु खतरे के विषय में ऐसा नहीं है।
चाहे उनका संबंध विकसित प्रजाति से हो, जैसे मनुष्य अथवा साधारण पशु , सभी सत्व मूल रूप से शांति, आराम तथा सुरक्षा चाहते हैं। जीवन मूक पशुओं के लिए उतना ही प्रिय है जितनी किसी मनुष्य के लिए, एक छोटा कीड़ा भी अपने जीवन पर आए खतरे से अपने को बचाने का प्रयास करता है। जिस प्रकार हममें से प्रत्येक जीना चाहता है और मरना नहीं चाहता, यही बात ब्रह्मांड के सभी जीव-जंतुओं के साथ है, यद्यपि उनकी इसे प्रभावित कर पाने की शक्ति एक अलग बात है।
व्यापक रूप से कहा जाए तो सुख तथा दुख दो तरह के होते हैं, मानसिक और शारीरिक और इन दोनों में से मैं सोचता हूँ कि मानसिक दुख और सुख अधिक तीव्र होते हैं। इसलिए मैं दुख को झेलने और सुख के स्थायी भाव की स्थिति के लिए चित्त शोधन पर बल देता हूँ। पर सुख को लेकर मेरी एक और सामान्य और ठोस सोच भी है, आंतरिक शांति, आर्थिक विकास और सबसे ऊपर विश्व शांति का समन्वय। मुझे लगता है कि ऐसे लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वैश्विक उत्तरदायित्व की भावना आवश्यक है, नस्ल, रंग, लिंग या राष्ट्रीयता से ऊपर उठी, सभी के लिए एक गहरी चिंता का भाव।
वैश्विक उत्तरदायित्व की इस सोच के आधार के पीछे एक सरल तथ्य यह है कि साधारण रूप से अन्य सभी लोगों की इच्छाएँ मेरी इच्छाओं की ही तरह हैं। प्रत्येक सत्व सुख चाहता है, दुख नहीं। यदि हम बुद्धिमान मानव होने के नाते, इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते तो इस ग्रह पर और अधिक दुख होंगे। यदि हम जीवन को लेकर आत्मकेंद्रित दृष्टिकोण अपनाएँ और अपने स्वार्थ साधने के लिए निरंतर दूसरों को काम में लाने का प्रयास करें तो हमें कुछ अस्थायी
लाभ हो सकता है, परन्तु दीर्घ काल में हम वैयक्तिक सुख तक प्राप्त नहीं कर सकेंगे, फिर विश्व शांति का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
सुख की खोज में मनुष्य ने विभिन्न उपाय अपनाए हैं, जो अधिकतर क्रूर और घृणास्पद रहे हैं। एक मनुष्य होते हुए उनका व्यवहार मानवोचित नहीं है और वे अपने स्वार्थ लाभ के लिए अपने साथियों और अन्य सत्वों को पीड़ा पहुँचाते हैं। अंत में उनके अदूरदर्शी कार्य स्वयं को साथ ही दूसरों को दुख पहुँचाते हैं। मानव रूप में जन्म लेना ही अपने-आप में असाधारण होता है और इस अवसर का प्रभावी और कौशलपूर्ण रूप से यथासंभव लाभ उठाने में ही समझदारी है। हमारे पास वैश्विक जीवन प्रक्रिया को लेकर एक सही दृष्टिकोण होना चाहिए ताकि दूसरों की कीमत पर एक व्यक्ति या एक समूह विशेष का सुख या प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयास न हो। इन सभी के लिए वैश्विक समस्या को लेकर एक नये दृष्टिकोण की आवश्यकता है। विश्व, तीव्र गति से हो रहे प्रौद्योगिक विकास और अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय साथ ही बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के कारण और छोटे से छोटा और अधिक से अधिक अन्योन्याश्रित होता जा रहा है। अब हम एक-दूसरे पर बहुत अधिक निर्भर हैं। प्राचीन काल में समस्याएँ परिवार तक सीमित हुआ करती थी और स्वाभाविक तौर पर उनका निपटारा भी पारिवारिक स्तर पर ही हो जाया करता था, पर अब परिस्थिति बदल चुकी है। आज हम इतने अधिक अन्योन्याश्रित हैं, इतने अधिक आपस में जुड़े हुए हैं कि एक वैश्विक बंधु-भगिनी भाव और एक समझ और विश्वास, कि हम एक बड़े मानवीय परिवार के सदस्य हैं के अभाव में हम अपने अस्तित्व के संकट से उबरने तक के बारे में नहीं सोच सकते, शांति और सुख तो दूर की बात है।
किसी एक देश की समस्या वह देश अकेला नहीं सुलझा सकता, अब बहुत कुछ दूसरे देशों के हितों, व्यवहार और सहयोग पर निर्भर करता है। विश्व की समस्याओं को लेकर एक वैश्विक मानवीय पहल ही विश्व शांति का अकेला शक्तिशाली आधार दिखाई देता है। इसका क्या अर्थ है? हम पहले ही उल्लेखित इस तथ्य से प्रारंभ करते हैं कि सभी सत्व सुख की कामना करते हैं और दुख नहीं चाहते। तो फिर एक मानव परिवार के सदस्य के नाते जिन सदस्यों से हम घिरे हैं उनकी भावनाओं और आशाओं की और ध्यान न देते हुए मात्र अपने सुख के पीछे भागना नैतिक रूप से गलत और व्यावहारिक रूप से मूर्खतापूर्ण होगा। अधिक बुद्धिमानी अपने सुख की खोज करते हुए दूसरों के विषय में सोचना भी है। यह हमें जिसे मैं बुद्धिमानी भरा स्वार्थ कहता हूँ उसकी ओर ले जाएगा जो आशा है कि उसे स्वार्थ से जुड़े समझौते या उससे भी बेहतर परस्पर हित में परिवर्तित कर सकता है।
यद्यपि राष्ट्रों के बीच बढ़ती अन्योन्याश्रितता से सहानुभूतिपूर्ण सहयोग के उत्पन्न होने की आशा की जा सकती है, पर जब तक लोग दूसरों की भावनाओं और सुख के प्रति उदासीन रहेंगे तब तक एक सच्चे सहयोग की भावना की प्राप्ति नहीं हो सकती। जब लोग अधिकांश रूप से लालच और ईर्ष्या से प्रेरित हों तो उनके लिए सद्भाव से जीवन जीना संभव नहीं है। संभव है कि एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण सभी राजनैतिक समास्याओं का समाधान न कर पाए जो कि वर्तमान आत्मकेंद्रित सोच के कारण उत्पन्न हुई हो, पर एक लम्बे समय में यह उन समस्याओं के समाधान का आधार बनेगा जिनका सामना आज हम कर रहे हैं।
दूसरी ओर, यदि मानव जाति अपनी समस्याओं को केवल अस्थायी औचित्य के दृष्टिकोण मात्र से देखती रही तो भविष्य की पीढ़ियों को बहुत अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। विश्व की जनसंख्या बढ़ रही है और हमारे संसाधन तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं। उदाहरण के लिए वृक्षों की ओर ही देख लीजिए। कोई नहीं जानता कि बड़े पैमाने पर वनों की कटाई के हमारी जलवायु, मिट्टी और कुल मिलाकर वैश्विक पारिस्थितिकी पर क्या दुष्परिणाम होंगे। हम समस्याओं को अपने समक्ष पा रहे हैं क्योंकि लोग समूची मानव जाति के बारे में न सोचते हुए केवल अपने अल्पकालीन स्वार्थ को साधने में लगे हैं। वे पृथ्वी के बारे में नहीं सोच रहे और न ही इसके सार्वभौमिक जीवन पर प्रभाव के बारे में। यदि हमारी वर्तमान पीढ़ी इसके बारे में नहीं सोचती तो संभवतः भावी पीढ़ियाँ इससे निपट न पाएँ।
विश्व शांति के स्तंभ के रूप में करुणा
बौद्ध मनोविज्ञान के अनुसार हमारी अधिकांश कठिनाइयों का कारण हमारी भावुक कामना और वस्तुओं के प्रति आसक्ति है, जिसे हम भ्रांति से स्थायी वस्तुएँ मान बैठते हैं। अपनी इच्छाओं तथा मोह की वस्तुओं के पीछे भागने के लिए आक्रामकता और प्रतिस्पर्धा के उपयोग महत्त्वपूर्ण उपकरण माने जाते हैं। यह मानसिक प्रक्रिया सरलता से कार्य में परिवर्तित होती है और स्वाभाविक प्रभाव के तौर पर भावनाओं को जन्म देती है। मानवीय मस्तिष्क में इस प्रकार की प्रक्रियाएँ अनंतकाल से चली आ रही है, परन्तु आधुनिक परिस्थितियों में उनको कार्यान्वित करना अधिक प्रभावी हो गया है। इन विषों - भ्रम, लोभ और आक्रामकता को नियंत्रित और नियमित करने के लिए हम क्या कर सकते हैं? क्योंकि यही विष हैं जो विश्व की लगभग सभी समस्याओं के मूल में हैं।
महायान बौद्ध परंपरा में शिक्षित होने के कारण मैं मानता हूँ कि प्रेम और करुणा ही विश्व शांति का नैतिक ताना-बाना है। पहले मुझे स्पष्ट करने दें कि करुणा से मेरा क्या तात्पर्य है। जब किसी निर्धन व्यक्ति के लिए आप में दया या करुणा होती है तो आप इसलिए दया दिखाते हैं क्योंकि वह निर्धन है। आपकी करुणा, परोपकार की प्रेरणा की भावना पर आधारित होती है। दूसरी ओर अपनी पत्नी, अपने पति, अपने बच्चे या अंतरंग मित्र के साथ प्रेम प्रायः आसक्ति पर आधारित होता है। जब आपकी आसक्ति परिवर्तित होती है तो आपकी दया भी परिवर्तित होती है। यह गायब भी हो सकती है। यह वास्तविक प्रेम नहीं है। वास्तविक प्रेम आसक्ति पर नहीं अपितु परोपकार पर आधारित होता है। इस स्थिति में जब तक सत्व दुखी रहेंगे तब तक आपकी करुणा दुख के प्रति एक मानवीय संवेदना के रूप में बनी रहेगी।
हमें अपने अंदर इस प्रकार की करुणा को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए और हमें इसे एक सीमित मात्रा से असीमित मात्रा तक विकसित करना चाहिए। स्वाभाविक है कि सभी सत्वों के प्रति भेदभावहीन, सहज और असीमित करुणा साधारण प्रेम के समान नहीं है, जो किसी का मित्रों अथवा परिजनों के प्रति होता है, जो अज्ञान, इच्छा और आसक्ति से मिश्रित होता है। हमें जिस प्यार को बढ़ावा देना चाहिए, वह यह व्यापक प्रेम है जो किसी ऐसे व्यक्ति के लिए भी हो सकता है, जिसने आपका अहित किया है, आपका वैरी।
करुणा के पीछे तर्क यह है कि हममें से हर एक दुख को टालना चाहता है और सुख प्राप्त करना चाहता है। यह मैं के एक उचित भावना पर आधारित है जो सुख की सार्वभौमिक इच्छा का निर्धारण करता है। निश्चित रूप से सभी सत्व एक जैसी इच्छाओं के साथ जन्म लेते हैं और हर एक को उन्हें पूरा करने का समान अधिकार होना चाहिए। यदि मैं स्वयं की तुलना दूसरों के साथ करता हूँ, जो अनगिनत हैं, तो मैं अनुभव करता हूँ कि अन्य अधिक महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि मैं मात्र एक व्यक्ति हूँ जबकि अन्य तो बहुत सारे हैं। इसके अतिरिक्त, तिब्बती बौद्ध परंपरा हमें सभी सत्वों को अपनी प्रिय माँ के रूप में देखने की और उन सभी से प्रेम कर कृतज्ञता व्यक्त करने की भी शिक्षा देती है। क्योंकि बौद्ध सिद्धांतानुसार हम अनगिनत बार जन्म और पुनर्जन्म लेते हैं और यह सोचना संभव है कि प्रत्येक सत्व किसी न किसी समय में हमारे अभिभावक रहे होंगे। इस प्रकार ब्रह्मांड के सभी सत्वों में पारिवारिक संबंध है।
कोई धर्म में विश्वास करता हो या नहीं, पर ऐसा कोई नहीं जो करुणा और प्रेम को नहीं सराहता। हमारे जन्म के पल से, हम अपने अभिभावकों की देखभाल और दया पर निर्भर रहते हैं, बाद के जीवन में रोग और वृद्धावस्था का सामना करते हुए हम फिर दूसरों की दया पर निर्भर होते हैं। यदि हम अपने जीवन के प्रारंभ और अंत में दूसरों की दया पर निर्भर होते हैं तो फिर हम जीवन के मध्य काल में दूसरों के साथ दया का व्यवहार क्यों नहीं कर सकते?
सहृदयता (जिसमें सभी मनुष्यों के प्रति आत्मीयता का भाव हो) के विकास में जिसे हम परंपरागत धार्मिक तौर-तरीकों से जोड़कर देखते हैं उस प्रकार की धार्मिकता की आवश्यकता नहीं होती। यह केवल उन लोगों के लिए नहीं है जिनका धर्म में विश्वास है, अपितु यह जाति, धर्म विशेष अथवा राजनीतिक विचारधारा से ऊपर उठकर हर एक के लिए है। यह हर उस व्यक्ति के लिए है जो स्वयं को सबसे पहले मानव परिवार का सदस्य मानता या मानती है और जो बातों को एक व्यापक और लंबी अवधि के दृष्टिकोण से देखता, देखती है। यह एक शक्तिशाली भावना है जिसका हमें विकास और प्रयोग करना चाहिए, जबकि हम प्रायः इसको अनदेखा कर देते हैं, विशेषकर अपने जीवन के चरम समय में जब हम सुरक्षा का एक झूठा भाव अनुभव करते हैं।
जब हम दीर्घ अवधि के दृष्टिकोण को लेकर सोचते हैं तो यह तथ्य कि सभी सत्व सुख चाहते हैं और पीड़ा से बचना चाहते हैं और अनगिनत अन्य के संदर्भ में अपनी महत्त्वहीनता, तो हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि दूसरों के साथ अपनी वस्तुएँ बाँटना उपयुक्त है। जब आप इस तरह के दृष्टिकोण में प्रशिक्षित होते हैं तो करुणा की एक सच्ची भावना - दूसरों के लिए प्रेम और सम्मान की एक सच्ची भावना संभव है। वैयक्तिक सुख का भाव अपने आप ही एक आत्मकेंद्रित प्रयास के रूप में समाप्त होकर, यह दूसरों के प्रति प्रेम और सेवा प्रक्रिया का स्वतः और बेहतर उत्पाद हो जाता है।
आध्यात्मिक विकास का एक और परिणाम, दिन प्रतिदिन के जीवन में सबसे लाभकारी यह होता है कि यह चित्त की शांति और प्रत्युत्पन्नमति देता है। हमारे जीवन निरंतर परिवर्तनशील हैं और अपने साथ कई कठिनाइयाँ लाते हैं। एक शांत और स्पष्ट चित्त से सामना करने पर समस्याओं का समाधान सफलतापूर्वक होता है।
इसके विपरीत जब हम घृणा, स्वार्थ, ईर्ष्या और क्रोध के कारण चित्त पर नियंत्रण खो देते हैं तो हम अपनी निर्णय क्षमता भी खो बैठते हैं। हमारे चित्त अंधे हो जाते हैं और उन मति भ्रष्ट क्षणों में कुछ भी हो सकता है, युद्ध तक। इसलिए करुणा और प्रज्ञा का प्रयोग सभी के लिए उपयोगी होता है, विशेषकर उन लोगों के लिए जो राष्ट्रीय मामलों को चलाने के उत्तरदायी हैं, जिनके हाथों में विश्व शांति का ढांचा तैयार करने की शक्ति और अवसर है।
विश्व शांति के लिए विश्व के धर्म
अभी तक जिन सिद्धांतों की चर्चा हुई है वह विश्व भर के सभी धर्मों की नैतिक शिक्षा के अनुसार है। मैं यह विश्वास रखता हूँ कि विश्व के सभी प्रमुख धर्म-बौद्ध, ईसाई, कन्फूशिवाद, हिंदू, इस्लाम, जैन, यहूदी, सिक्ख, ताओवाद, पारसी-के प्रेम को लेकर आदर्श एक से हैं, आध्यात्मिक अभ्यास से मानवता का भला करने का समान लक्ष्य, और धर्म का पालन करने वालों को एक अच्छा मानव बनाने का प्रभाव भी एक सा ही है। सभी धर्म चित्त, काय और वाक को परिष्कृत करने के लिए नैतिक सिद्धांतों की शिक्षा देते हैं। सभी हमें झूठ न बोलने, चोरी न करने की या दूसरों के प्राण न लेने आदि की शिक्षा देते हैं। मानवता के महान शिक्षकों द्वारा दिए गए सभी नैतिक उपदेशों का एक समान लक्ष्य है निस्वार्थ भाव। महान शिक्षक अपने अनुयायियों को अज्ञान के कारण नकारात्मक कार्यों के मार्ग पर चलने से रोककर उन्हें अच्छाई के मार्ग से परिचय करना चाहते थे।
सभी धर्म स्वार्थ और अन्य बुराइयों की जड़ अनुशासनहीन चित्त पर नियंत्रण की आवश्यकता को लेकर सहमत हैं और प्रत्येक एक मार्ग की शिक्षा देता है जो ऐसे आध्यात्मिक अवस्था की ओर ले जाता है, जो शांतिपूर्ण, अनुशासित, नैतिक और प्रज्ञावान होता है। इस अर्थ में मेरा मानना है कि सभी धर्मों का मूलत: एक ही संदेश है। रुढ़ियों में अंतर का कारण समय, परिस्थिति और साथ ही सांस्कृतिक प्रभाव हो सकते हैं, वास्तव में जब हम धर्म के गूढ़ पक्ष की चर्चा करते हैं तो बौद्धिक चर्चा का कोई अंत नहीं है। पर अपने नित्य प्रति के जीवन में व्यावहारिकता को लेकर छोटे-छोटे अंतरों पर तर्क करने के स्थान पर सभी धर्मों की अच्छी शिक्षाओं के साझा विचार को अपनाना कहीं अधिक लाभकारी है।
कई विभिन्न धर्म हैं जो मानवता को आराम और सुख देते हैं ठीक उसी तरह जैसे विभिन्न रोगों के लिए विशिष्ट उपचार उपलब्ध हैं। क्योंकि सभी धर्म अपने ढंग से सत्वों को दुख को दूर कर सुख प्राप्त करना सिखाते हैं। और यद्यपि हम धार्मिक सच्चाइयों की विशिष्ट विवेचना को अपनाने के लिए कारण खोज सकते हैं, परन्तु एकता के और बड़े कारण हैं जो मानवीय हृदय से उत्पन्न होते हैं। एक बड़ा कारण है। प्रत्येक धर्म अपने ढंग से मनुष्य की कठिनाइयों को कम करने का प्रयास करता है और विश्व सभ्यता में योगदान देता है। धर्म परिवर्तन प्रश्न नहीं है। उदाहरण के लिए, मैं अन्य लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करने या केवल बौद्ध चिंतन को ही आगे बढ़ाने को नहीं मानता। अपितु मैं यह सोचने का प्रयास करता हूँ कि एक बौद्ध मानवतावादी के नाते मैं किस प्रकार मानवीय खुशी में योगदान दे सकता हूँ।
दुनिया के धर्मो के बीच आधारभूत समानता की ओर ध्यान दिलाते हुए, मैं अन्य सभी धर्मों की तुलना में किसी एक धर्म को अच्छा बताने का पक्ष नहीं लेता, और न ही मैं किसी नये विश्व धर्म की खोज करता हूँ। मानवीय अनुभव और विश्व सभ्यता को समृद्ध बनाने के लिए विश्व के सभी विभिन्न धर्मों की आवश्यकता है। हमारे मानवीय मस्तिष्क की विभिन्न क्षमताओं और स्वभाव के कारण शांति और सुख प्राप्त करने के लिए अलग उपायों की आवश्यकता होती है। यह भोजन की तरह है। कुछ लोगों को ईसाई धर्म ज्यादा आकर्षित करता है, तो अन्य कईयों को बौद्ध, क्योंकि इसमें कोई सृजनकर्ता नहीं है और सब कुछ आपके अपने कर्मों पर निर्भर करता है। हम इसी तरह से दूसरे धर्मों के पक्ष में भी तर्क दे सकते हैं। इसलिए यह बात तो स्पष्ट है, मानवता को जीवन शैलियों से तालमेल बिठाने के लिए, विभिन्न आध्यात्मिक आवश्यकताओं के लिए और विरासत में मिली हर एक व्यक्ति की राष्ट्रीय परम्परा के लिए विश्व के सभी धर्मों की आवश्यकता है।
इसी दृष्टिकोण से मैं विश्व के विभिन्न भागों में धर्मों के बीच किए जा रहे बेहतर तरीके से समझने के प्रयासों का स्वागत करता हूँ। आज तो विशिष्ट रूप से इसकी तुरन्त आवश्यकता है। यदि सभी धर्म मानवीयता को और अच्छा करने को अपना मुख्य चिंतन बना लें तो वे विश्व शांति के लिए सरलता और सद्भाव से कार्य कर सकते हैं। अंतर्धर्मीय समझ सभी धर्मों को एक साथ कार्य करने की आवश्यक एकता लाएगी। परन्तु यद्यपि यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है, पर हमें याद रखना चाहिए कि इसका कोई तत्कालीन और सरल समाधान नहीं है। विभिन्न धर्मों के बीच जो सैद्धांतिक मतभेद हैं हम उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते और न ही हम वर्तमान धर्मों के स्थान पर किसी नये सार्वभौमिक विश्वास को ही रख सकते हैं। प्रत्येक धर्म का अपना कुछ विशिष्ट योगदान होता है और प्रत्येक अपने ढंग से किसी विशिष्ट समुदाय के लोगों के लिए जैसा वे जीवन को समझते हैं, उपयुक्त है। विश्व को सभी धर्मों की जरूरत है।
उन धार्मिक अभ्यासियों के समक्ष, जो विश्व शांति को लेकर चिंतित हैं, आज दो प्राथमिक कार्य हैं। पहला, हमें विभिन्न धर्मों के बीच बेहतर समझ को विकसित करना होगा, ताकि सभी धर्मों के बीच कार्य करने के अनुकूल एकता स्थापित की जा सके। यह एक-दूसरे के मतों का सम्मान करते हुए और मानवता के कल्याण की हमारी समान सोच पर बल देकर कुछ अशों में प्राप्त की जा सकती है। दूसरा, हमें मूलभूत आध्यात्मिक मूल्यों पर एक ऐसी व्यावहारिक आम सहमति बनानी होगी, जो हर एक मनुष्य के हृदय को स्पर्श करे और साधारण मानवीय सुख को बढ़ावा दे। इसका अर्थ यह है कि हमें सभी विश्व धर्मों के समान गुणों पर बल देना चाहिए - मानवीय आदर्श। ये दो चरण हमें व्यक्तिगत तौर पर और एक साथ मिलकर विश्व शांति के लिए आवश्यक आध्यात्मिक परिस्थितियाँ तैयार करने के कार्य में सहायक होंगे।
हम विभिन्न धर्म के अभ्यासी मिलकर विश्व शांति के लिए काम कर सकते हैं जब हम विभिन्न धर्मों को सहृदयता के विकास - दूसरों के प्रति प्यार और सम्मान, समुदाय का एक सच्चा भाव के आवश्यक उपकरणों के रूप में देखते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात है धर्म के उद्देश्य की ओर देखना, न कि उसके धर्मशास्त्र और तत्व मीमांसा के विस्तृत रूप की ओर, जो कोरी बौद्धिकता की ओर ले जाता है। मेरा मानना है कि विश्व के सभी प्रमुख धर्म विश्व शांति में योगदान दे सकते हैं और मानवता के कल्याण के लिए मिलजुलकर कार्य कर सकते हैं, यदि हम सूक्ष्म आध्यात्मिक विभिन्नताओं को परे रख दें, जो कि वास्तव में प्रत्येक धर्म का आंतरिक मामला है।
वैश्विक स्तर पर हुई आधुनिकता के कारण आई प्रगतिशील धर्मनिरपेक्षता और विश्व के कुछ भागों में आध्यात्मिक मूल्यों को नष्ट करने की सभी व्यवस्थित प्रयासों के बावजूद मानव जाति का एक बड़ा भाग किसी न किसी धर्म को मानता ही है। धर्म में अटूट विश्वास, जो अधार्मिक राजनीतिक प्रणाली में भी स्पष्ट है, स्पष्ट रूप से धर्म की शक्ति को प्रदर्शित करता है। इस आध्यात्मिक ऊर्जा और शक्ति का उद्देश्यपूर्ण उपयोग विश्व शांति के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ लाने में हो सकता है। इस संबंध में विश्व के सभी धर्मगुरु और मानवतावादियों की विशिष्ट भूमिका है।
हम विश्व शांति को प्राप्त कर पाएँगे अथवा नहीं, पर हमारे पास उस दिशा में काम करते रहने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। यदि हमारे चित्त पर क्रोध हावी रहा है तो हम मानव बुद्धि का सबसे अच्छा अंग प्रज्ञा - उचित और अनुचित के बीच अंतर करने की क्षमता खो देंगे। क्रोध आज की दुनिया के सामने उपस्थित सबसे गंभीर समस्या है।
संस्थाओं को आकार देने में वैयक्तिक शक्ति