परम पावन दलाई लामा, तिब्बती आध्यात्मिक गुरु
द ट्रिब्यून
२ फरवरी, २०२१
द ट्रिब्यून के १४०वें वर्षगांठ पर मेरे कुछ विचारों को आपके पाठकों के साथ साझा करने का अवसर पाकर मुझे खुशी हुई। मुझे यह जानकर हर्ष हुआ कि जब भारत ब्रिटिश के अधीन था तब इस समाचार पत्र के संस्थापक ने भारतीय समाज को जागृत करने के महत्त्व तथा राष्ट्रीय पहचान के बोध को बनाये रखने में शिक्षा की भूमिका को देखते हुये इस अखबार की नींव रखी।
प्रायः मैं कहता हूँ कि मीडिया यह सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है कि लोग व्यापक परिप्रेक्ष्य में समाज के प्रत्येक घटनाक्रम को देख पायें। कभी-कभार मैंने हंसी-ठिठोली करते हुये कहा भी है कि मीडिया के लोगों की नाक हाथी की सूंड़ जैसी लम्बी होनी चाहिए, जिससे कि वे अच्छे और बुरे दोनों का सूंघकर रहस्योद्घाटन कर सके।
मीडिया को अपने दायित्व का निर्वहन करते हुये सदैव सत्यनिष्ठ एवं न्यायसंगत होना चाहिए तथा निष्पक्ष होकर समाचार देना चाहिए। इस समाचार पत्र का सन् १८८१ से अस्तित्व में रहना, यह दर्शाता है कि यह समाज में मूल्यवान योगदान दे रहा है।
भारत का सबसे लम्बे समय का अतिथि होने के नाते मैंने इस देश के अनेक घटनाक्रमों को बहुत ही निकट से अवलोकन किया है। यह अत्यन्त ही सराहनीय है कि भारत ने स्वतंत्रता के बाद अपने स्वस्थ लोकतांत्रिक स्थायित्व को बनाये रखा। यह भी अत्युत्तम है कि यह देश अनेक चुनौतियों के होते हुये भी तीव्र गति से प्रगति कर रहा है। हालाँकि, एक क्षेत्र ऐसा है जिसके विषय में मैं अपना सुझाव देने जा रहा हूँ। वह यह कि भारत की पुरातन विद्या में लोगों की रूचि को पुनर्जीवित करना आवश्यक है, विशेषकर करुणा एवं अहिंसा के सिद्धांत के विषय पर लोगों का ध्यान आकर्षित करना होगा। यदि हम इन मूल्यों को विकसित कर पाते हैं तो हम न केवल भारत के लिए अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिए एक बृहत् योगदान दे सकते हैं।
६१ वर्ष पूर्व मुझे अपनी मातृभूमि तिब्बत को छोड़ना पड़ा तथा भारत में आकर आश्रय लेना पड़ा। तब से लेकर मुझे विश्व के अनेक धार्मिक गुरुओं, विद्वानों तथा वैज्ञानिकों के साथ संवाद करने का अवसर प्राप्त हुआ है। चूंकि, मुझे क्वांटम भौतिकी के विषय को जानने में अतीव व्यक्तिगत उत्कंठा रही है, इसलिए, मुझे इस क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों के साथ विचार-विनिमय करने में विशेष रूप से आनन्द प्राप्त हुआ। इनमें भारत के वैज्ञानिक डॉ. राजा रमन्ना भी रहे हैं। उन्होंने मुझसे एक बार कहा था कि पश्चिम में क्वांटम भौतिकी अपेक्षाकृत नई है लेकिन इसके पीछे का विज्ञान सैकड़ों वर्ष पूर्व भारतीय बौद्धाचार्य नागार्जुन द्वारा रचित सैद्धांतिक कृतियों के साथ घनिष्ठता पूर्वक समान दिखाई देता है। आज के आधुनिक युग में भी पुरातन विद्या बृहत् योगदान दे सकती है।
बौद्ध धर्म सातवीं शताब्दी में तिब्बत में पहुँचने के पश्चात् हम इसे संरक्षित करने में सफल हुये जबकि यह भारत में विलुप्त हो रहा था। बौद्ध धर्म के धार्मिक कर्मकांड से जुड़े पक्ष संभवतः केवल बौद्धों के लिए प्रासंगिक हो सकते हैं लेकिन मुझे लगता है कि बौद्ध मनोविज्ञान एवं बौद्ध संस्कृति (करुणा एवं अहिंसा पर आधारित) सहित सम्पूर्ण बौद्ध विज्ञान पूरे विश्व के लिए महान कल्याणकारी है, यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जो बौद्ध धर्म के अनुयायी नहीं हैं या फिर किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं।
सन् १९५९ में हमारे यहाँ पहुँचने पर भारत सरकार ने अत्यन्त ही उदारतापूर्वक ऐसे स्थान प्रदान किये जहाँ पर हम प्रत्येक उम्र के तिब्बती छात्रों तथा हज़ारों तिब्बती भिक्षुओं को प्रशिक्षित कर सकते थे। इसके माध्यम से हमने मूलतः पुरातन भारतीय विद्या तथा एक हज़ार वर्ष से भी अधिक पुरानी परम्परा को जीवित रखा है।
हम तिब्बतवासी तथा स्वयं मैं व्यक्तिगत रूप से भारत के प्रति अत्यन्त आभारी हूँ। भारत ने न केवल हमें वर्तमान संकटों के दौरान सहायता प्रदान की अपितु सदियों पूर्व हमें आध्यात्मकि ज्ञान दिया, जिससे हमारे लोगों का महान उपकार हुआ है। इस बात से मैं आश्वस्त हूँ कि मन और भावनाओं की क्रियाशैली के विषय में प्राचीन भारतीय समृद्ध ज्ञान तथा ध्यान-भावना जैसे मन को संयमित करने की भारतीय पद्धति वर्तमान विश्व के लिए अत्यन्त ही प्रासंगिक हैं।
भारत की इस महान परम्परा को जीवित रखना तथा इसको अधिकाधिक प्रचारित करना मेरी मुख्य प्रतिबद्धताओं में से एक है। इसके अतिरिक्त मानवीय मूल्य एवं धार्मिक सौहार्द को प्रसारित करना तथा तिब्बती संस्कृति का संरक्षण करना भी मेरी प्रतिबद्धताएं हैं।
आज मैं मेरे भारतीय बन्धुओं और भगिनियों को इस उपक्रम में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करता हूँ। भारत के पास हेतु एवं तर्क को लेकर लम्बा इतिहास है, अतः मैं आश्वस्त हूँ कि धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण से पोषित भारतीय पुरातन विद्या को आधुनिक शिक्षा के साथ समन्वित किया जा सकता है। वास्तव में, भारतवर्ष, असाधारण रूप से पुरातन एवं आधुनिक विद्याओं को संयोजित कर प्रचारित करने का उत्तम स्थान है, जिससे ईक्कीसवीं सदी में विश्व में एक समन्वित एवं नैतिक मूल्यों पर आधारित जीवनशैली को अंगीकार किया जा सके। संक्षेप में, आज ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो बुद्धि के साथ-साथ आत्मीय भाव को भी पुष्पित एवं पल्लवित करे।
यदि हमें दूसरों के साथ सुखपूर्वक जीवन यापन करना है तो हमारे अंदर करुणा एवं अहिंसा जैसे सद्गुण होना आवश्यक हैं। आप चाहे धार्मिक व्यक्ति हों या न हों, ये पद्धतियाँ न केवल तार्किक चेतना प्रस्तुत करती हैं बल्कि इनसे तत्काल व्यवहारिक लाभ भी मिलता है। मुझे इसमें कतई सन्देह नहीं है कि यदि लोग अपने दैनिक जीवन में करुणा एवं अहिंसा पर ध्यान देते हैं तो यह दुनिया एक उन्नत स्थान बनेगा।
जिस प्रकार हम अपनी शारीरिक शुचिता को बनाये रखने के लिए कार्य करते हैं, मुझे लगता है कि हमें ठीक उसी प्रकार भावनात्मक शुचिता पर भी कार्य करना चाहिए। हमें निश्चित रूप से क्रोध, चिंता तथा भय का किस तरह सामना कर उनको दूर करना है यह सीखना चाहिए। इसका मूल उपाय यही है कि हमें मन की शांति किस प्रकार विकसित करनी है यह जानना होगा।
अन्ततः, शांति एवं सुख का स्रोत आत्मीय भाव ही है जो हम सबके अंदर है। हम इसे न तो खरीद सकते हैं और न ही मशीन से ढूंढ सकते हैं। इसे हमें अपने अंदर विकसित करना होगा। हमें हर स्थिति में बुद्धि एवं आत्मीय भाव को संघटित करना चाहिए। इस प्रकार हम स्वयं तथा हमारे आस-पड़ोस के लोगों के लिए सुख का निर्माण कर पाएंगे।
मैं यथार्थ में विश्वास करता हूँ कि भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो आधुनिक शिक्षा एवं मन की कार्यशैली पर पुरातन भारतीय ज्ञान को संघटित कर सकता है तथा जिसका आज सम्पूर्ण विश्व को अविलम्ब आवश्यकता है। यदि हम सब एक साथ कार्य करते हैं तो सम्पूर्ण जगत के कल्याण के लिए हम एक नवीन योगदान दे सकते हैं।