परम पावन दलाई लामा
द वीक
२१ अगस्त, २०२१
भगवान बुद्ध की देशना वास्तव में व्यावहारिक है। यह केवल एक समुदाय विशेष के लोगों के लिए नहीं है, अपितु मानव मात्र के लिए है। लोग अपनी क्षमता एवं मानसिक प्रवृत्ति के अनुसार इस मार्ग का अनुसरण कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, मैंने बचपन में ही बौद्ध दर्शन का अध्ययन प्रारम्भ किया था तथा अब मैं ८६ वर्ष का हो चुका हूँ और अभी भी अध्ययन कर रहा हूँ। इसलिए, जब भी मैं बौद्धों से मिलता हूँ उन्हें २१वीं सदी का बौद्ध बनने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ, जिसका तात्पर्य बुद्ध वचनों के तात्त्विक अर्थ को जानकर उन्हें अपने जीवन में उतारना है। इस प्रक्रिया में श्रवण, अध्ययन, चिंतन एवं भावना करना सम्मिलित है।
हालाँकि, हमारी यह दुनिया बुद्ध काल से काफी बदल गयी है,लेकिन बुद्ध की शिक्षाओं का सार आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि २५०० वर्ष पूर्व था। पाली और संस्कृत दोनों परम्पराओं में अज्ञानता और दुःख से मुक्त होने के उपाय निहित हैं। तथागत बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं में बहुत ही सरल शब्दों में कहा है कि दूसरों को हानि न पहुँचाऐं तथा जब भी हो, जैसे भी हो उनकी सहायता करें।
समस्त प्राणी हमारे जैसे हैं, जो सुख की प्राप्ति तथा दुःख से निवृत्ति की इच्छा रखते हैं, इस तथ्य का अवबोधन होने पर हम दूसरों को कष्ट पहुँचाने से बच सकते हैं। सुख की खोज करना तथा दुःख से छुटकारा पाना सभी का जन्मसिद्ध अधिकार है। हमारा व्यक्तिगत सुख अधिकांशतः इस बात पर निर्भर करता है कि हम दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। एक-दूसरे के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार एवं एक-दूसरे के हितों की रक्षा करने की भावना को अपने भीतर उत्पन्न कर हम अपनी आत्म केन्द्रित मनोवृत्ति को न्यून कर सकते हैं जो हमारी अनेक समस्याओं का स्रोत है। आत्म केन्द्रित मनोवृत्ति के अभाव में हम आनन्द के स्वाभाविक स्रोत करुणा-भाव को जागृत कर सकते हैं।
तथागत बुद्ध ने कहा है – “मुनिजन पापों को जल से प्रक्षालन नहीं करते हैं तथा प्राणियों के दुःखों को अपने हाथ से दूर नहीं हटाते हैं। इसी प्रकार वे स्वयं के अवबोधन को दूसरों में स्थानांतरित नहीं करते हैं, अपितु, धर्मता के यथार्थ को उद्घाटित कर सत्त्वों को विमुक्त करते हैं।”
बौद्ध धर्म विश्व के अनेक धर्मों में से एक है। इसकी विशेषता यह है कि तथागत बुद्ध ने अपने अनुयायियों को सलाह दी थी कि वे उनके वचनों को दृश्यमान अर्थ में स्वीकार न करें, अपितु जिस प्रकार एक सुनार स्वर्ण की गुणवत्ता का परीक्षण करता है उसी प्रकार उनके वचनों का भी परीक्षण करना चाहिए। विश्व के समस्त धर्म प्रत्येक जीव के प्रति प्रेमभाव धारण करने की शिक्षा देते हैं, किन्तु बुद्ध ने अपने अनुयायियों को यह भी उपदेश दिया कि वे उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म का विधिवत् परीक्षण करें और उसका तभी आत्मसात करें जब वह तर्कसंगत एवं हितकारी प्रतीत हो।
तथागत बुद्ध ने हमें आत्म केन्द्रित मनोवृत्ति से हमारी मन की शांति को भंग करने वाले कारणों के प्रतिकार हेतु अनेक तर्कयुक्त उपाय दिये हैं। प्राचीन भारतीय साधनाओं में सम्मिलित करुणा और अहिंसा हमारे शारीरिक व्यवहार तक सीमित नहीं होने चाहिए, अपितु, ये हमारे मन में व्यवहारित होने चाहिए। विचलित मन के कारण हम दूसरों को विभिन्न तरीकों से कष्ट पहुँचाते हैं। बौद्ध धर्म में कहा जाता है कि प्रशिक्षित मन सुखकर है तथा विचलित मन दुःखदायी है। शाक्यमुनि बुद्ध भारतवर्ष में विचरण करते रहे तथा उन्होंने जितने भी उपदेश दिये थे उन्हें बाद में तक्षशिला, विक्रमशिला एवं नालन्दा के अध्ययन केन्द्रों में सुरक्षित रखा गया। सातवीं शताब्दी में, तिब्बत के नरेश ने भारतीय देवनागरी लिपि को आधारित कर तिब्बती लिपि का निर्माण करवाया। उसके सौ वर्ष बाद, उस समय के राजा ने भारत के महान दार्शनिक एवं तर्कवेत्ता आचार्य शांतरक्षित को बौद्ध धर्म का परिचय प्रदान करने के लिए तिब्बत में आमंत्रित किया। उन्होंने बुद्ध वचनों तथा बुद्ध के उत्तरवर्ती भारतीय आचार्यों के शास्त्रों को तिब्बती भाषा में अनुवाद करने के लिए अभिप्रेरित किया। यही इस परम्परा का आधार है जिसे हमने आज तक जीवित रखा है।
आचार्य शांतरक्षित ने तर्क एवं हेतुओं का प्रयोग कर बुद्ध वचनों की सर्वसमावेशी रूप से व्याख्या की तथा सभी अनुयायियों को ग्रन्थों में लिखे गये प्रकरणों का विश्लेषण करने के लिए प्रोत्साहित किया। यह एक ऐसी विद्या है जो अब मात्र तिब्बती परम्परा में संरक्षित है। शास्त्रों का गम्भीर रूप से अध्ययन करना इसकी प्रक्रिया है, जिसे मैंने एक भिक्षु होने के नाते बचपन से प्रारम्भ किया था। मैंने उन ग्रन्थों को कण्ठस्थ करना प्रारम्भ किया था जिनका मैंने अध्ययन, चिंतन एवं उन्हें अपनी अनुभूति के स्तर पर उतारने के लिए भावना की।
तिब्बती लोग इस परम्परा का १००० से भी अधिक वर्षों तक अभिरक्षक रहे हैं। हम कह सकते हैं कि ऐतिहासिक तौर पर भारतीय हमारे गुरु रहे हैं, लेकिन तब से लेकर हम सभी चेलाओं ने इस परम्परा को जीवित रखा है। इसलिए, जब आज मैं भारतीय बन्धुओं एवं भगिनियों के संग बुद्ध की शिक्षाओं पर विचार-विनिमय कर पाता हूँ तो मुझे विशेष प्रकार के आनन्द की अनुभूति होती है।
मन और भावनाओं की कार्यशैली का सम्पूर्ण ज्ञान भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं को अन्य परम्पराओं से विशिष्ट बनाती है। तथागत बुद्ध ने गृहत्याग करने के पश्चात् तत्कालीन प्रचलित शमथ एवं विपश्यना ध्यान का अभ्यास किया। इसको आधार बनाकर उन्होंने छह वर्ष तक बिना किसी भोजन के कठोर तपस्या की, जिसके फलस्वरूप उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति हुयी।
कहा जाता है कि बोधि प्राप्ति के तुरन्त बाद उन्होंने इस प्रकार उद्घोषणा की – “मैंने गम्भीर एवं शांत, प्रपञ्च-रहित, प्रभास्वर, असंस्कृत, अमृत रूपी धर्म का अधिगम किया है। यदि मैं इस धर्म की देशना करता हूँ तो कोई भी इसे समझ नहीं पायेगा। इसलिए, मैं यहीं इस वन में मौन धारण किये रहता हूँ।”
उसके कुछ समय बाद उन्होंने धर्मचक्र प्रवर्तन प्रारम्भ किया तथा प्रथम धर्मचक्र में चार आर्य सत्यों की देशना की। उसके पश्चात् राजगिर में दूसरे धर्मचक्र प्रवर्तन में प्रज्ञापारमिता की देशना की। तथागत बुद्ध ने शून्यता की व्याख्या करते हुये प्रतिपादित किया कि कोई भी वस्तु आभास के विपरीत होने पर भी स्वतः स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में नहीं रहती है। वस्तुएं आभासित होने पर भी उनकी वस्तुनिष्ठ सत्ता नहीं होती है। तथागत बुद्ध ने प्रज्ञापारमिता का उपदेश सार्वजनिक रूप से न देकर कुछ चिन्हित शिष्यों के समूह को ही दिया था।
कालान्तर में, माध्यमिक दर्शन के प्रतिष्ठापक आचार्य नागार्जुन तथा उनके अनुयायी आचार्य आर्यदेव तथा चन्द्रकीर्ति ने तथागत बुद्ध द्वारा प्रतिपादित शून्यता एवं प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांतों पर विस्तृत रचनाएं की। इसका एक परिणाम यह हुआ कि बहुत वर्ष पहले, महान भारतीय भौतिक वैज्ञानिक राजा रमन्ना ने मुझसे कहा कि वे जब आचार्य नागार्जुन के एक कृति को पढ़ रहे थे तो यह जानकर अचंभित हुये कि आचार्य नागार्जुन ने आधुनिक सिद्धांत क्वांटम भौतिकी के सम्बन्ध में कितना विस्तार से लिखा है। उन्होंने मुझसे कहा कि एक भारतीय होने के नाते उन्हें गर्व हुआ कि आचार्य नागार्जुन ने अपनी बुद्धिमत्ता का प्रयोग कर बिना किसी उपकरणों के आधुनिक घटनाक्रमों का पूर्वानुमान किया था।
बुद्ध के समय लोग छोटे तथा अपेक्षाकृत एकांत समुदायों में रहते थे। उन्हें बृहत् दुनिया के साथ सम्बन्ध का कोई बोध नही था। आज हम वैश्विक अर्थव्यवस्था तथा प्रौद्योगिकी में जी रहे हैं, जिसने हमारे बीच की दूरी को कम किया है। यह वास्तविकता हमें सिखा रही है कि हमें एक साथ कार्य करना चाहिये।
अतीत में, भारतीय लोग हमारे गुरु थे। अब भारत के लिए समय आ गया है कि वह अपनी पुरातन विद्या को सम्पूर्ण विश्व के साथ साझा करें। भारतीय पुरातन विद्या को एक धर्मनिरपेक्ष एवं शैक्षणिक माध्यम से प्रस्तुत करना होगा। धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण का अंगीकार करना भारतीय परम्परा की एक अनूठी मिसाल रही है, जिसमें सभी धार्मिक परम्पराओं का सम्मान होता है।
जो लोग अपने मन की शांति को बनाये रखते हैं वे एक शांतिपूर्ण समाज का निर्माण करते हैं, इसके परिणास्वरूप वे एक शांतिमय विश्व के सृजन में योगदान देते हैं। हम सब आनन्द की खोज करना चाहते हैं। हम आशा पर निर्भर हैं, जो एक सुखद् भविष्य की अभिलाषा है। लेकिन, हमें सफल होने के लिए हमारी बुद्धिमत्ता का उचित प्रयोग करना होगा। वास्तविक सुख इन्द्रिय बोध पर निर्भर नहीं होता है अपितु स्वयं मन पर निर्भर होता है। अतः, मूल उपाय यह है कि मन की शांति का निर्माण करना है, जिसके लिए हमें मन और भावनाओं की कार्यप्रणाली को जानना होगा। मुझे विश्वास है कि यदि हम मानवीय एकात्म की भावना को उचित ढंग से आत्मसात करने का प्रयास करते हैं तो हम एक सुखमय एवं शांतिमय विश्व का निर्माण कर सकते हैं।
जब मैं पहली बार भारत आया तब मैंने इस देश और मेरी मातृभूमि तिब्बत के बीच के प्रगाढ़ सम्बन्धों पर चिंतन किया था। जैसा कि आदरणीय प्रधानमंत्री ने कहा, भारत बुद्ध की भूमि है। बौद्ध धर्म का अन्तिम प्रयोजन मानवता की सेवा एवं कल्याण करना है। मुझे विश्वास है कि चाहे हम स्वयं को बौद्ध माने या न माने, हम सब करुणा एवं अहिंसा के इस परीक्षित एवं अनुभूत सिद्धांत को अपनाकर लाभान्वित हो सकते हैं, जो आगे चलकर विश्व में सुख एवं शांति का मूलाधार बनेगा।