मार्च १४, २०११
तिब्बती जनप्रतिनिधि की चौदहवीं सभा के सदस्यों के लिए,
यह सामान्य ज्ञान है कि प्राचीन तिब्बत, जिसमें तीन प्रांत थे (छोल्खा-सुम) बयालीस तिब्बती राजा ने क्रमशः शासन किया था, जो ञाठी चेनपो (१२७ ईसा पूर्व) के साथ प्रारंभ हुआ और ठि रलपाचेन (८३८ ईसवी) तक बना रहा। उनका शासन लगभग एक हजार वर्षों तक चला। उस समय सम्पूर्ण भीतरी एशिया में तिब्बत एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में जाना जाता था, जो कि सैन्य शक्ति और राजनीतिक प्रभाव में मंगोलिया और चीन की तुलना में था। तिब्बती साहित्य के विकास के साथ, तिब्बत के धर्म और संस्कृति की समृद्धि और विस्तार का अर्थ था कि इसकी सभ्यता भारत के बाद दूसरे स्थान पर थी।
९वीं शताब्दी में केंद्रीय सत्ता के विघटन के पश्चात, तिब्बत कई शासकों द्वारा शासित रहा जिनका प्रभुत्व उनके संबंधित न्यायिक क्षेत्रों तक ही सीमित था। समय के चलते तिब्बती एकता क्षीण हो गयी। १३वीं शताब्दी के प्रांरभ में चीन और तिब्बत दोनों चंगेज खान के नियंत्रण में आ गए। यद्यपि डोगोन छोज्ञल फगपा ने १२६० के दशक में तिब्बत की प्रभुता बहाल की और उनका शासन तीनों प्रांतों में फैला, पर अगले ३८० वर्षों में फगमो डुपा, रिनपुंगपा और चंगपा के नियंत्रण में शासकों के बार-बार बदलने के परिणामस्वरूप तिब्बत का एकीकृत रूप न रह सका। किसी तरह की केंद्रीय सत्ता की अनुपस्थिति और बार बार के आंतरिक संघर्षों ने तिब्बत की राजनीतिक शक्ति का ह्रास किया।
१६४२ में पञ्चम दलाई लामा द्वारा तिब्बत की गदेन फोडंग सरकार की स्थापना के बाद से, बाद के दलाई लामा तिब्बत के आध्यात्मिक और राजनैतिक नेताओं के रूप में रहे हैं। पञ्चम दलाई लामा के शासनकाल के दौरान तिब्बत के सभी १३ प्रशासनिक जिलों ने राजनीतिक स्थिरता का आनंद लिया, तिब्बत में बौद्ध धर्म विकसित हुआ और तिब्बती लोगों ने शांति और स्वतंत्रता का आनंद उठाया।
१९वीं और २०वीं शताब्दी के अंत के दौरान, तिब्बत में न केवल पर्याप्त राजनीतिक शासन का अभाव था बल्कि प्रभावी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को विकसित करने का अवसर भी नहीं था। तेरहवें दलाई लामा ने १८९५ में आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त की, परन्तु ब्रिटिश सैन्य शक्ति के आक्रमण के कारण १९०४ में वे मंगोलिया और चीन पलायन करने के लिए बाध्य हुए और १९१० में भारत में, जब मांचू चीन का आक्रमण हुआ। जब एक बार परिस्थितियाँ तिब्बत लौटने के लिए अनुकूल हो गईं तो तेरहवें दलाई लामा ने १९१३ में तिब्बती संप्रभुता पर पुनः बल दिया। उन्होंने निर्वासन में जो सीखा था, उसके परिणामस्वरूप, तेरहवें दलाई लामा ने आधुनिक शिक्षा की शुरूआत की और तिब्बत की सरकार को शक्तिशाली करने के लिए सुधार किए। यद्यपि इन उपायों के परिणाम सकारात्मक थे, पर वे अपनी समग्र दृष्टि को पूरा करने में असमर्थ रहे, जैसा कि उनकी मृत्यु के एक वर्ष पूर्व उनके १९३२ के अंतिम राजनैतिक वसीयतनामे से स्पष्ट है। कमजोर राजनैतिक नेतृत्व और अधिकारियों और उनके प्रशासन की कमियों के बावजूद, गदेन फोडंग सरकार ने विगत चार शताब्दियों तक स्थिर प्रशासन प्रदान किया है।
छोटा समय से ही मैं तिब्बती राजनीतिक व्यवस्था के आधुनिकीकरण की तत्काल आवश्यकता के बारे में जानता था। सोलह वर्ष की आयु में, मुझे राजनीतिक नेतृत्व ग्रहण करने हेतु बाध्य किया गया। उस समय मुझे तिब्बत की राजनीतिक व्यवस्था की ही पूरी समझ नहीं थी, फिर अंतर्राष्ट्रीय मामलों की तो दूर की बात थी।
परन्तु मुझमें परिवर्तित समयानुसार उचित सुधार लाने की तीव्र इच्छा थी और कुछ मौलिक परिवर्तनों को प्रभावित करने में मैं सक्षम हुआ। दुर्भाग्यवश मैं इन सुधारों को आगे नहीं बढ़ा पाया क्योंकि परिस्थितियाँ मेरे अपने नियंत्रण से बाहर थीं।
अप्रैल १९५९ में हमारे भारत आगमन के तुरंत बाद, मंत्रियों की देख रेख में शिक्षा, संस्कृति के संरक्षण और समुदाय के पुनर्वास और कल्याण विभागों की स्थापना हुई। इसी प्रकार १९६० में लोकतंत्रीकरण के महत्व से अवगत, तिब्बती प्रतिनिधि सभा का पहला आयोग निर्वाचित हुआ और १९६३ में हमने भविष्य के तिब्बत के लिए मसौदा संविधान लागू किया।
शासन की कोई प्रणाली स्थिरता और प्रगति सुनिश्चित नहीं कर सकती यदि यह राजनीतिक प्रक्रिया में लोगों की सहायता और भागीदारी के बिना एक व्यक्ति पर निर्भर हो। एक व्यक्ति की सत्ता अनियंत्रित और अवांछनीय दोनों है। हमने अपने लोकतांत्रिक संस्थानों को छह अरब तिब्बतियों के दीर्घकालिक हितों को पूरा करने के लिए बहुत मेहनत की है, दूसरों की नकल उतारने की इच्छा से नहीं, बल्कि इसलिए कि लोकतंत्र सबसे प्रतिनिधि व्यवस्था की शासन है। १९९० में, निर्वासन में तिब्बतियों के चार्टर के लिए एक समिति का गठन किया गया और एक वर्ष बाद तिब्बती जनप्रतिनिधि सभा (एटीपीडी) निर्वासन में सर्वोच्च कानून बनाने वाली संस्था की शक्ति में बढ़ोत्तरी हुई। १९९१ में, ग्यारहवीं तिब्बती जनप्रतिनिधि सभा ने औपचारिक रूप से निर्वासन में तिब्बतियों का चार्टर स्वीकार किया और सभी विधायी अधिकार ग्रहण किया। निर्वासन में हमारे जीवन की सीमाओं को देखते हुए ये ऐसी उपलब्धियाँ हैं जिन पर हम गर्व कर सकते हैं।
२००१ में, तिब्बती लोगों ने प्रथम बार सीधे रूप से राजनीतिक नेता कालोन ठिपा का चुनाव किया तब से मैं अर्ध-सेवानिवृत्ति में हूँ और अब दिन-प्रतिदिन के प्रशासन में भाग नहीं लेता, परन्तु सामान्य मानव कल्याण के लिए अधिक समय समर्पित करने में सक्षम होता हूँ।
संक्षेप में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था का सार, निर्वाचित नेताओं द्वारा सामान्य हित के लिए राजनैतिक उत्तरदायित्व धारण करना है। लोकतंत्रीकरण की हमारी प्रक्रिया को सम्पूर्ण करने के लिए, मेरे द्वारा इस तरह के एक निर्वाचित नेतृत्व को औपचारिक अधिकार देने का समय आ गया है। हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों में अनुभव और राजनीतिक परिपक्वता की सामान्य कमी ने हमें इसे पहले ऐसा करने से रोका है।
यह देखते हुए कि दलाई लामा की वंशावली ने लगभग चार शताब्दियों तक राजनीतिक नेतृत्व प्रदान किया है, आम तौर पर तिब्बतियों के लिए और विशेष रूप से तिब्बत में रहने वालों के लिए ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की कल्पना करना और स्वीकार करना कठिन हो सकता है, जो दलाई लामा के नेतृत्व में नहीं है। अतः विगत ५० वर्षों में मैंने विभिन्न प्रकार से लोगों की राजनीतिक जागरूकता बढ़ाने और हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया है।
उदाहरणार्थ १९६९ के अपने १० मार्च के वक्तव्य में, मैंने कहा, "जब तिब्बत के समक्ष अपने ही लोगों द्वारा शासित होने का दिन आएगा तो यह लोगों के निर्णय का विषय होगा कि वे किस तरह की शासन व्यवस्था चाहते हैं। दलाई लामा की वंशावली के अनुसार शासन की व्यवस्था हो सकती है अथवा नहीं सकती है। विशेष रूप से, भविष्योन्मुख युवा पीढ़ी की राय एक प्रभावशाली कारक होगी।"
इसी तरह, १९८८ के अपने १० मार्च के वक्तव्य में, मैंने कहा, "जैसा कि मैंने कई बार कहा है, यहाँ तक कि दलाई लामा की संस्था की निरंतरता भी लोगों को तय करना है।" १९८० के दशक के उपरांत, मैंने बार-बार मंत्रीमंडल, तिब्बती जनप्रतिनिधि सभा और जनता को सलाह दी है कि तिब्बतियों को प्रशासन और लोक कल्याण का पूरा उत्तरदायित्व इस तरह लेना चाहिए जैसे दलाई लामा वहां न हों।
मैंने तेरहवें तिब्बती जनप्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष और तत्कालीन मुख्य न्यायिक आयुक्त को सूचित किया था कि मुझे राजनीतिक और प्रशासनिक स्थिति से संबंधित मेरे प्रकार्य से मुक्त किया जाए जिसमें विधायी निकाय द्वारा अपनाई गए बिलों पर हस्ताक्षर करना, ऐसी औपचारिक उत्तरदायित्व शामिल हैं। परन्तु मेरे प्रस्ताव पर विचार तक नहीं किया गया। ३१ अगस्त २०१० को, पहली तिब्बती महासभा (तिब्बती जनप्रतिनिधि सभा द्वारा आयोजित) के दौरान, मैंने पुनः विस्तार से यह समझाया। अब, इस महत्वपूर्ण बात पर निर्णय पर विलम्ब न होना चाहिए। चार्टर और अन्य संबंधित नियमों के सभी आवश्यक संशोधन इस सत्र के दौरान किए जाने चाहिए ताकि मैं औपचारिक सत्ता से पूरी तरह से मुक्त हो सकूँ।
मैं यहाँ स्वीकार करना चाहता हूँ कि तिब्बत के अंदर और बाहर मेरे कई तिब्बतियों ने इस महत्वपूर्ण समय पर राजनीतिक नेतृत्व जारी रखने के लिए सच्चा अनुरोध किया है। राजनैतिक अधिकार छोड़ने का मेरा उद्देशय न तो उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ने से है और न इसलिए कि मैं निराश हूँ। इसके विपरीत, मैं दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में तिब्बती लोगों के लाभ के लिए पूरी तरह से अधिकार छोड़ना चाहता हूँ। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हम अपने निर्वासित तिब्बती प्रशासन और हमारे संघर्ष की निरंतरता सुनिश्चित करें जब तक कि तिब्बत मुद्दे का सफलतापूर्वक समाधान नहीं हो जाता।
यदि हमें कई दशकों तक निर्वासन में रहना पड़े तो अनिवार्यतः एक समय आएगा जब मैं नेतृत्व नहीं दे पाऊँगा। अतः यह आवश्यक है कि हम प्रशासन की एक उचित व्यवस्था स्थापित करें, जबकि मैं सक्षम और स्वस्थ हूँ, ताकि निर्वासित तिब्बती प्रशासन दलाई लामा पर निर्भर होने के बजाय आत्मनिर्भर हो सके। यदि हम इस समय से इस तरह की व्यवस्था को लागू करने में सक्षम हों तो यदि आवश्यकता पड़ने पर मैं अभी भी समस्याओं को सुलझाने में सक्षम हो सकता हूँ। पर यदि इस व्यवस्था के क्रियान्वयन में विलम्ब होता है और एक दिन आता है जब मेरा नेतृत्व अचानक अनुपलब्ध हो जाए तो परिणामजनित अनिश्चितता एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत करेगी। अतः सभी तिब्बतियों का यह कर्तव्य है कि ऐसे संभावित परिणाम को रोकने का हर संभव प्रयास करें।
छह लाख तिब्बतियों में से एक के रूप में, यह ध्यान में रखते हुए कि दलाई लामा का तिब्बती लोगों के साथ एक विशेष ऐतिहासिक और कार्मिक संबंध है और जब तक तिब्बतियों ने मुझ पर अपना विश्वास और आस्था रखी है, मैं तिब्बत के मुद्दे के लिए सेवारत रहूँगा।
यद्यपि चार्टर का ३१वाँ अनुच्छेद रीजेंसी की परिषद के प्रावधानों को बताता है, यह मात्र पिछली परंपराओं के आधार पर अंतरिम उपाय के रूप में तैयार किया गया था। इसमें दलाई लामा के बिना राजनीतिक नेतृत्व की व्यवस्था बनाने के प्रावधान शामिल नहीं हैं। इसलिए, इस अवसर पर चार्टर का संशोधन एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की रूपरेखा के अनुरूप होना चाहिए जिसमें राजनैतिक नेतृत्व एक विशिष्ट अवधि के लिए लोगों द्वारा निर्वाचित किया जाता है। इस प्रकार, सभी आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए, जिसमें अलग समितियों की नियुक्ति सहित, चार्टर और अन्य नियमों के प्रासंगिक लेखों में संशोधन भी शामिल हो ताकि इस सत्र के दौरान ही एक निर्णय तक पहुँचा जा सके और कार्यान्वित किया जा सके।
परिणामस्वरूप मेरे कुछ राजनैतिक घोषणा, जैसे कि तिब्बत के भविष्य के लिए संविधान का मसौदा (१९६३) और भविष्य की नीति के लिए दिशानिर्देश (१९९८) अप्रभावी हो जाएँगे। दलाई लामा के नेतृत्व वाली गदेन फोडंग की वर्तमान संस्था का नाम भी तदनुसार परिवर्तित किया जाना चाहिए।
सदन की सफल कार्यवाही के लिए मेरी प्रार्थना के साथ,
तेनज़िन ज्ञाछो, १४वें दलाई लामा
११ मार्च २०११
टिप्पणी: भोट मूल से अनुवादित, जिसे अंतिम और आधिकारिक माना जाना चाहिए।