एक बच्चे के रूप में बौद्ध धर्म के अध्ययन के समय मुझे पर्यावरण के प्रति देखभाल का व्यवहार सिखाया गया। हमारी अहिंसा का अभ्यास केवल मनुष्यों पर ही लागू नहीं होता परन्तु सभी सत्त्वों पर लागू होता है, हर वह प्राणी जिसमें चित्त हो। जहाँ चित्त है वहाँ पीड़ा, आनन्द, और सुख जैसे भाव भी होते हैं। कोई भी सत्त्व दुःख नहीं चाहता, पर सभी सुख चाहते हैं। मेरा विश्वास है कि एक आधारभूत स्तर पर सभी सत्त्वों में यह भाव होता है।
बौद्ध धर्म के अभ्यास के दौरान हम इस अहिंसा के विचार और हर प्रकार के दुःख को समाप्त करने के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि हम किसी को भी बिना सोचे समझे हानि नहीं पहुँचाते। यद्यपि हम यह नहीं मानते कि वृक्षों और पुष्पों का भी चित्त होता है, पर फिर भी हम उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार करते हैं। इस तरह हम मनुष्यों और प्रकृति के प्रति एक ही प्रकार की वैश्विक उत्तरदायित्व की भावना रखते हैं।
पुनर्जन्म में हमारा विश्वास हमारी भविष्य की चिंताओं का एक उदाहरण है। यदि आप यह सोचें कि आपका पुनर्जन्म होगा, तो संभव है कि आप स्वयं से कहें, कि मुझे इन इन चीजों का संरक्षण करना चाहिए क्योंकि मेरे भविष्य का रूप इन सब बातों को बनाए रखेगा। भले ही इस बात की संभावना हो कि आप किसी अन्य जीव के तौर पर या किसी अन्य ग्रह पर जन्म लें, पुनर्जन्म की सोच ही आपको इस ग्रह और भावी पीढ़ियों के प्रति चिंतित बना देती है।
पश्चिम में जब 'मानवता' की बात होती है तो इसका अर्थ आमतौर पर केवल वर्तमान पीढ़ी के मनुष्यों से होता है। बीती हुई मानवता तो जा चुकी है। भविष्य, मौत की तरह अभी तक आई नहीं है। पाश्चात्य विचार साधारणतया वस्तुओं के व्यावहारिक पक्ष से जुड़े होते हैं, मात्र वर्तमान मानव पीढ़ी से।
पर्यावरण को लेकर तिब्बतियों की सोच पूरी तरह से धर्म पर आधारित है। वे केवल बौद्ध धर्म से नहीं, अपितु तिब्बतियों की पूरी जीवनशैली से आती है। उदाहरण के लिए जापान या थाईलैंड में बौद्ध धर्म के बारे में सोचिए, जहाँ का पर्यावरण हमसे अलग है। उनकी संस्कृति और उनका व्यवहार हमारे जैसा नहीं है। हमारे अनोखे पर्यावरण का हम पर प्रबल प्रभाव पड़ा है। हम एक छोटे बहुत अधिक जनसंख्या वाले द्वीप पर नहीं रहते। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हम अपने विशाल इलाके, कम जनसंख्या और अपने सुदूरवर्ती पड़ोसियों के कारण बहुत अधिक चिंतित नहीं रहे हैं। हम में कई अन्य मानवीय समुदायों की तरह उत्पीड़ित होने की भावना नहीं आई।
किसी भी आस्था या संस्कृति के सार का अभ्यास किसी धर्म के बिना भी संभव है। हमारी तिब्बती संस्कृति यद्यपि बौद्ध धर्म से बहुत अधिक प्रभावित है पर उसका समूचा दर्शन बौद्ध धर्म से नहीं आया। मैंने एक बार तिब्बती शरणार्थियों से सम्बधित एक संगठन को सुझाव दिया कि इस पर खोज की जाए कि तिब्बत के जीवन मात्र का कितना प्रभाव हमारे लोगों पर पड़ा है। वो क्या तथ्य हैं, जो तिब्बतियों को साधारणतया सुखी और शांत बनाती हैं? लोग यह भूलकर कि हमारा पर्यावरण भी कुछ उतना ही अनोखा है, सदा हमारे अनोखे धर्म में ही उत्तर ढूँढते हैं।
यह आवश्यक नहीं कि पर्यावरण के प्रति चिंता धार्मिक हो और न ही इसके लिए सदा करुणा भाव आवश्यक है। हम बौद्ध हर सत्त्व के प्रति करुणा की भावना अभिव्यक्त करते हैं, पर यह करुणा हर एक पत्थर, पेड़ या मकान की ओर निर्देशित नहीं होती। हममें से अधिकांश अपने घरों को लेकर कुछ चिंतित रहते हैं, परन्तु उसके प्रति कोई करुणा की भावना नहीं होती। हम इसे व्यवस्थित रखते हैं ताकि इसमें रह सकें और खुश रहें। हम जानते हैं कि अपने घर में सुखी रहने के लिए हमें उसके रखरखाव पर ध्यान देना होगा। इसलिए हमारी भावनाएँ करुणा के स्थान पर बजाय चिंता की हो सकती हैं।
इसी तरह से यह ग्रह भी हमारा घर है और हमें इसे व्यवस्थित रखना चाहिए और अगर हम अपनी, अपने बच्चों, अपने मित्रों और अन्य सत्त्व जिनके साथ हमारी इस घर को लेकर साझेदारी है तो हमें इसका वैसे ही ख्याल रखना चाहिए। अगर हम हमारे ग्रह को अपने घर या अपनी 'धरती माँ' मानते हैं तो हम स्वाभाविक रूप से अपने पर्यावरण के विषय में सोचते हैं। आज हम इस बात को समझते हैं कि मानवता का भविष्य बहुत सीमा तक हमारे ग्रह पर निर्भर करता है और ग्रह का भविष्य बहुत कुछ मानवता पर निर्भर करता है। परन्तु यह हमेशा से हमारे लिए इतनी स्पष्ट नहीं रही है। अब तक आपने देखा कि धरती माँ ने हमारे घर की अव्यवस्थित आदतों को किसी प्रकार सहन किया है। पर अब मनुष्य द्वारा इसका उपयोग, जनसंख्या और प्रौद्योगिकी उस स्तर तक पहुँच चुकी है, जहाँ धरती माँ हमारे अस्तित्व को मौन भाव से और स्वीकार नही करती। कई प्रकार से वह अब हमें बता रही है, 'मेरे बच्चे बुरी तरह से बर्ताव कर रहे हैं।' वह हमें चेतावनी दे रही है कि हमारे कार्यों की सीमाएँ हैं।
तिब्बती बौद्धों के व्यवहार में एक प्रकार से संतोष का भाव है और इसमें कोई संबंध पर्यावरण के प्रति हमारे आचरण से भी हो सकता है। हम विवेकहीन होकर उपभोग नहीं करते। हम उपयोग की एक सीमा निर्धारित करते हैं। हम एक सरल जीवन और वैयक्तिक उत्तरदायित्व के प्रशंसक हैं। हमने सदा स्वयं को अपने पर्यावरण का ही एक अंग माना है, पर कोई निरर्थक अंग नहीं। हमारे प्राचीन ग्रंथ सदैव पात्र और उसमें रखी वस्तु की बात करते हैं। विश्व वह धारक है और हमारा घर और हम उसमें धारित वस्तुएँ हैं – धारक की धारित वस्तुएँ।
इन सरल तथ्यों से हम एक विशेष परिणाम निकाल लेते हैं, क्योंकि धारक के बिना वस्तुओं को नहीं रखा जा सकता। बिना वस्तुओं के धारक में कुछ नहीं होता, वह अर्थहीन है।
मेरी पांच सूत्रीय शांति योजना में मैंने प्रस्ताव रखा है कि समूचा तिब्बत अभयारण्य बने,एक शांति क्षेत्र। एक समय तिब्बत वैसा ही था, बस बिना किसी आधिकारिक पदवी के। शांति का मतलब है समन्वयः - लोगों के बीच समन्वय, मनुष्यों और पशुओं के बीच, सत्त्वों और पर्यावरण के बीच। समूचे विश्व से लोग शांति और समरसता का अनुभव करने हेतु तिब्बतआ पाएँगें । बड़े बड़े बहुमंजिली और अनेक कमरों वाले होटल बनाने के स्थान पर हम छोटी इमारतें बनाएँगे, निजी घरों की तरह जिनकी पर्यावरण के साथ अधिक सामंजस्यता होगी।
मनुष्य द्वारा लाभकारी वस्तुएँ बनाने के लिए प्रकृति का उपयोग गलत नहीं है, परन्तु लाभकारी वस्तुएँ बनाने के लिए हमें अनावश्यक रूप से प्रकृति का शोषण नहीं करना चाहिए। एक घर में रहना अच्छी बात है, दवाओं का होना अच्छी बात है और कार में कहीं जाना भी अच्छी बात है। सही हाथों में कोई भी मशीन विलासिता की चीज नहीं है, बल्कि यह एक बेहद उपयोगी वस्तु है। उदाहरण के लिए एक कैमरा ऐसे चित्र ले सकता है जो आपसी समझ का विकास कर सकते हैं। परन्तु हर वस्तु की अपनी एक सीमा होती है। बहुत ज्यादा उपभोग या फिर धन कमाने का प्रयास अच्छी बात नहीं हैं। न ही बहुत ज्यादा संतोष। सैद्धांतिक तौर पर संतोष एक लक्ष्य है, लेकिन विशुद्ध संतोष आत्मघात की तरह हो जाता है, है कि नहीं? मैं सोचता हूँ कि कुछ क्षेत्रों में तिब्बती बहुत अधिक संतोषी हो गए और हमने अपना देश खो दिया। इन दिनों हम पर्यावरण को लेकर बहुत अधिक संतोष नहीं रख सकते।
धरती पर जीवन का अस्तित्व जैसा हम जानते हैं, मानवीय गतिविधियों, जिनमें मानवीय जीवन मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव है, के कारण खतरे में पड़ गया है। प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों का विनाश अज्ञान, लालच और पृथ्वी के जीवों के प्रति सम्मान के अभाव के परिणामस्वरूप होता है। सम्मान का यह अभाव धरती के मनुष्यों की भावी पीढ़ियों तक पहुँचता है, अगर विश्व शांति यथार्थ नहीं बनती और अगर प्राकृतिक पर्यावरण का विनाश वर्तमान गति से चलता रहा तो भावी पीढ़ी को एक विशाल नष्ट हुआ ग्रह मिलेगा ।
हमारे पूर्वजों ने धरती को समृद्ध और सम्पन्न दृष्टि से देखा था, जो वह है। अतीत में भी कुछ लोगों ने प्रकृति को कभी समाप्त न होने वाला और सदा बने रहने वाला माना था, जो अब हम जानते हैं पता है कि ऐसा तभी हो सकता है जब हम इसकी देख रेख करें। अज्ञान के कारण अतीत में हुए विनाश को भुला पाना कठिन नहीं है। पर आज हमारे पास अधिक सूचना प्राप्ति की सुगमता है। यह आवश्यक है कि हम नैतिक रूप से पुनर्परीक्षण करें कि हमने विरासत में क्या पाया है, हम किसके लिए उत्तरदायी हैं और हम भावी पीढ़ियों को क्या देकर जाएँगे।
यह स्पष्ट है कि यह एक निर्णायक पीढ़ी है। वैश्विक संप्रेषण संभव है, फिर भी शांति के लिए अर्थपूर्ण संवाद से अधिक संघर्ष होते है। यदि कई वर्तमान त्रासदियों, जिनमें दुनिया के कुछ क्षेत्रों में भुखमरी और अन्य में जीवन के अन्य रूपों का विनाश शामिल है विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र के अनोखेपन पर हावी न हुए हों तो उस की बराबरी में अवश्य हैं। अंतरिक्ष में खोज उसी समय हो रही है जबकि धरती के महासागर, समुद्र और ताजापानी के स्थान तेजी से और प्रदूषित हो रहे हैं और उनमें मौजूद जीवन के रूप के प्रति हम अनजान हैं या उन्हें लेकर भ्रांति है। संभव है कि पृथ्वी के कई निवासी, पशु, पेड़-पौधे, कीड़े और यहाँ तक कि अतिसूक्ष्म जीव, जिन्हें हम दुर्लभ मानते हैं, हमारी भावी पीढ़ी का इनसे परिचय भी न हो। हममें क्षमता भी है और यह हमारी जिम्मेदारी भी है। इसके पूर्व कि अधिक देर हो जाए हमें कदम उठाना होगा।
माय टिबेट के अंश (मूलपाठ परम पावन 14वें दलाई लामाः
चित्र और परिचय गेलेन रॉवेल)
थेम्स एंड हडसन लि., लंदन, 1990 (पेज 79-80)