एक बच्चे के रूप में बौद्ध धर्म के अध्ययन के समय मुझे पर्यावरण के प्रति देखभाल का व्यवहार सिखाया गया। हमारी अहिंसा का अभ्यास केवल मनुष्यों पर ही लागू नहीं होता परन्तु सभी सत्त्वों पर लागू होता है, हर वह प्राणी जिसमें चित्त हो। जहाँ चित्त है वहाँ पीड़ा, आनन्द, और सुख जैसे भाव भी होते हैं। कोई भी सत्त्व दुःख नहीं चाहता, पर सभी सुख चाहते हैं। मेरा विश्वास है कि एक आधारभूत स्तर पर सभी सत्त्वों में यह भाव होता है।
बौद्ध धर्म के अभ्यास के दौरान हम इस अहिंसा के विचार और हर प्रकार के दुःख को समाप्त करने के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि हम किसी को भी बिना सोचे समझे हानि नहीं पहुँचाते। यद्यपि हम यह नहीं मानते कि वृक्षों और पुष्पों का भी चित्त होता है, पर फिर भी हम उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार करते हैं। इस तरह हम मनुष्यों और प्रकृति के प्रति एक ही प्रकार की वैश्विक उत्तरदायित्व की भावना रखते हैं।
मुझे लगता है कि आप यहाँ कुछ उम्मीदें लेकर आए हैं, पर मेरे पास आपको देने के लिए कुछ भी नहीं है। मैं आपके साथ केवल अपने स्वयं के अनुभव और विचार बाँटने का प्रयास करूँगा। देखिए, धरती की देखभाल में कोई विशिष्टता, कोई पवित्रता जैसी बात नही है। यह तो केवल अपने घर की देखरेख जैसा है। हमारे पास इस एक धरती को छोड़ कोई अन्य ग्रह या मकान नहीं। यद्यपि यहाँ बहुत अधिक अशांति और समस्याएँ हैं पर हमारे पास यही एक विकल्प है। हम दूसरे ग्रहों को नहीं जा सकते। उदाहरण के लिए चन्द्रमा को लें; वह दूर से सुंदर लगता है, लेकिन यदि आप वहाँ जाकर बसना चाहें तो वह अच्छा नहीं होगा, ऐसा मेरा सोचना है। इसलिए देखिए, हमारा नीला ग्रह अधिक अच्छा और सुखी है। इसलिए हमें अपने स्वयं अपने स्थान या घर या ग्रह की देखरेख करनी चाहिए।
अंततः मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मैं अकसर अपने मित्रों से कहता हूँ कि उन्हें दर्शनशास्त्र, ऐसे व्यावसायिक और जटिल विषय पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। मात्र इन मासूम पशुओं, कीटों, चीटियों, मधुमक्खियों आदि की ओर देखकर अधिकांश बार मेरे मन में उनके प्रति एक प्रकार के सम्मान की भावना उत्पन्न होती है। कैसे? उनका कोई धर्म, कोई संविधान, कोई पुलिस बल नहीं है, परन्तु प्रकृति के अस्तित्व के स्वाभाविक नियमों या प्रकृति के नियमों या प्रणाली को मानते हुए समरसता से जीते हैं।
हम मनुष्यों के साथ समस्या क्या है? हम मनुष्यों में इतनी बुद्धि तथा विवेक है। मैं सोचता हूं कि हम अकसर मानवीय बुद्धि का प्रयोग गलत रूप में या गलत दिशा में करते हैं। परिणामतः एक तरह से हम कुछ ऐसे कार्य कर रहे हैं, जो कि आधारभूत मानवीय स्वभाव के विपरीत है।
एक दृष्टिकोण से देखा जाए तो धर्म भी थोड़ी बहुत आराम की वस्तु है। अगर आपका कोई धर्म है तो बहुत अच्छी बात है, वैसे बिना धर्म के भी आप जीवित रह सकते हैं और अपना जीवन-बसर कर सकते हैं, परन्तु मानव प्रेम के बिना हम जीवित नहीं रह सकते।
यद्यपि करुणा और प्रेम के समान ही क्रोध और घृणा हमारे चित्त का एक अंग है, पर फिर भी मेरा विश्वास है कि हमारे चित्त की प्रभावी शक्ति करुणा और मानवीय प्रेम है। इसलिए साधारणतया मैं मनुष्य के इन गुणों को आध्यात्मिकता का नाम देता हूँ। ऐसा आवश्यक नहीं कि एक धार्मिक संदेश या धर्म के तौर पर। विज्ञान और प्रौद्योगिकी मानवीय स्नेह के साथ मिलकर रचनात्मक होगी। विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर घृणा का नियंत्रण विध्वंसक होगा।
यदि हम धर्म का अभ्यास उचित रूप या सच्चे ढंग से करें तो धर्म कोई बाहरी वस्तु नहीं बल्कि हमारे हृदयों में है। किसी भी धर्म का सार सहृदयता है। कई बार मैं प्रेम और करुणा को एक वैश्विक धर्म की संज्ञा देता हूँ। यह मेरा धर्म है। जटिल दर्शन, ये या वो, कई बार अधिक कठिनाइयाँ और समस्याएँ उत्पन्न करता है। अगर यह अधिक परिष्कृत दर्शन, सहृदयता के विकास में सहायक है तो अच्छा है, उनका पूरा उपयोग कीजिए। अगर ये अधिक परिष्कृत दर्शन सहृदयता में बाधक हैं, तो बेहतर है कि उन्हें छोड़ दिया जाए। मैं ऐसा अनुभव करता हूँ।
यदि हम मनुष्य के स्वभाव को भली प्रकार देखें तो स्नेह एक अच्छे दिल की कुंजी है। मैं सोचता हूँ कि माँ करुणा का प्रतीक है। प्रत्येक में सहृदयता का बीज होता है। बात केवल इतनी है कि हम करुणा के मूल्य का अनुभव करने पर ध्यान देते हैं अथवा नहीं।
(चार दिन के धर्म और पर्यावरण पर इक्युमेनिकल मिडलबरी सिम्पोजियम में 14 सितंबर, 1990 को किये गये संबोधन, मिडलबरी कॉलेज, वेरमोंट, संयुक्त राज्य अमेरिका)