तेनज़िन ग्यात्सो, चौदहवें दलाई लामा
जीवन का उद्देश्य
एक बड़ा प्रश्न हमारे अनुभव को रेखांकित करता है फिर चाहे हम उसके विषय में सजगता से सोचें अथवा नहीं। जीवन का उद्देश्य क्या है? मैने इस विषय पर सोचा है और मैं अपने विचार उन लोगों के साथ बाँटना चाहता हूँ, इस आशा में कि वे उन लोगों के लिए प्रत्यक्ष और व्यावहारिक रूप से लाभदायक हो सके।
मैं यह मानता हूँ कि जीवन का उद्देश्य सुखी रहना है। जन्म के क्षण से ही, सभी मनुष्य सुख चाहते हैं, दुःख नहीं। न ही सामाजिक अनुबन्धन, न शिक्षा, न ही कोई सिद्धांत इसे प्रभावित कर सकते हैं। हमारे अंतर्मन से हम केवल संतोष की कामना करते हैं। मैं नही जानता कि इन अनगिनत आकाशगंगाओं, तारों, ग्रहों वाले ब्रह्मांड का कोई गहन अर्थ है अथवा नहीं, परन्तु कम से कम यह तो स्पष्ट है कि हम मनुष्य जो इस धरती पर रहते हैं, के सामने यह एक कठिन कार्य है कि हम अपने लिए एक सुखी जीवन बनाएँ। इसलिए इसका पता लगाना महत्त्वपूर्ण है कि कौन सी वस्तु अधिक से अधिक सुख दे सकती है।
सुख किस प्रकार प्राप्त किया जाए
सबसे पहले तो सभी प्रकार के सुखों तथा दुःखों को मुख्यतः दो वर्गों में बाँटा जा सकता है: मानसिक और शारीरिक। इन दोनों में से चित्त ही है जो हममें से अधिकांश को सबसे अधिक प्रभावित करता है। या तो हम बहुत ही गंभीर रूप से बीमार हों या फिर आधारभूत आवश्यकताओं से वंचित हो जाएँ, हमारी शारीरिक स्थिति की भूमिका जीवन में गौण होती है। यदि हमारा शरीर संतुष्ट हो तो हम असल में उसकी उपेक्षा करते हैं। परन्तु चित्त प्रत्येक घटना को दर्ज कर लेता है फिर चाहे वह घटना कितनी ही छोटी क्यों न हो। अतः हमारे अधिकांश गंभीर प्रयास मानसिक शांति लाने के लिए प्रयुक्त होने चाहिए।
मेरे अपने सीमित अनुभव के आधार पर मैंने देखा है कि आंतरिक शांति की अधिकतम मात्रा प्रेम तथा करुणा के विकास से आती है।
हम दूसरों के सुख के विषय में जितना अधिक सावधान रहते हैं, हमारे अपने कल्याण की भावना उतनी अधिक होती है। दूसरों के प्रति एक सद्भाव का विकास करना अपने चित्त में स्वाभाविक रूप से चित्त को सहजता देता है। यह हममें जो भी भय अथवा असुरक्षा की भावना हो, उसे दूर करने में सहायक होता है और हमें किसी भी आने वाली बाधा का सामना करने की शक्ति देता है। यह जीवन में सफलता का परम स्रोत है।
हम इस संसार में जब तक जीवित हैं तब तक बाधाओं का सामना करना हमारे लिए अवश्यंभावी है। यदि ऐसे अवसरों पर हम आशा छोड़ कर निरुत्साहित हो जाएँ, तो हम अपनी कठिनाइयों का सामना करने की क्षमता को कम करते हैं। यदि दूसरी ओर, हम यह याद रखें कि केवल हम ही नहीं, बल्कि प्रत्येक को दुःखों का सामना करना पड़ता है तो यह यथार्थवादी परिप्रेक्ष्य हमारी कठिनाइयों पर काबू पाने के निश्चय और क्षमता को और बढ़ाएगा। निश्चित रूप से इस प्रकार की मनोवृत्ति से, प्रत्येक बाधा हमारे चित्त में सुधार लाने के लिए एक और बहुमूल्य अवसर प्रतीत होगा।
इस तरह हम क्रमशः और अधिक करुणाशील होने का प्रयास कर सकते हैं, अर्थात् हम दूसरों के दुःखों के प्रति सच्ची करुणा की भावना और उनकी पीड़ा दूर करने के लिए निश्चय की भावना का विकास कर सकते हैं। परिणामस्वरूप, हमारी अपनी शांति और आंतरिक शाक्ति अधिक होगी।
प्रेम हमारी आवश्यकता
अन्ततः प्रेम और करुणा सबसे अधिक सुख क्यों प्रदान करते हैं, उसका कारण है कि हमारी अपनी प्रकृति उसे सबसे अधिक सॅंजोती है। मानवीय अस्तित्व के मूल में ही प्रेम की आवश्यकता है। इसका कारण है एक गहन अंतर्निर्भरता की भावना, जो हम सबमें है। व्यक्ति चाहे कितना ही योग्य तथा कुशल क्यों न हो, उसे अकेले छोड़ दिया जाए तो वह जी नहीं सकता। कोई अपनी सम्पन्नता के जीवन काल में चाहे जितना बलशाली तथा स्वतंत्र क्यों न अनुभव करे, जब कोई बीमार होता है या फिर आयु में बहुत छोटा अथवा ढलती उम्र का होता है तो व्यक्ति को दूसरों के सहारे पर निर्भर होना ही पड़ता है।
निश्चित ही अंतर्निर्भरता प्रकृति का आधारभूत नियम है। जीवन के उच्च प्रकार के प्राणी ही नहीं पर कई छोटे से छोटे कीड़े मकोडे भी सामाजिक जीव हैं जो बिना किसी धर्म, कानून अथवा शिक्षा के अपनी आंतरिक अंतःसंबद्धता को पहचान कर आपसी सहयोग से जीवित रहते हैं। भौतिक घटनाओं का सूक्ष्मतम रूप भी परस्पर निर्भरता से संचालित होता है। सभी तथ्य इस ग्रह से जिसमें हम रह रहे हैं से लेकर सागर, बादल, जंगल तथा फूल जो हमें घेरे हुए हैं, वह भी ऊर्जा के सूक्ष्म नमूनों पर निर्भर होकर उत्पन्न होते हैं। उनके उचित पारस्परिक क्रिया के बिना वे घुल जाते हैं और सड़ जाते हैं।
ऐसा इसलिए कि हमारा अपना मानवीय अस्तित्व दूसरों की सहायता पर इतना निर्भर है कि हमारे प्रेम की आवश्यकता हमारे अस्तित्व के मूल में है। इसलिए हमें एक सच्चे उत्तरदायित्व की भावना और दूसरों की भलाई के लिए सच्ची चिंता की आवश्यकता है।
हमें सोचना है कि हम मनुष्य वास्तव में क्या हैं। हम मशीन की बनाई वस्तुएँ नहीं हैं। यदि हम केवल मशीनी हस्तियाँ हैं, तो मशीनें स्वयं हमारा दुःख दूर कर सकती और हमारी आवश्यकताओं को पूरा कर सकती।
पर चूँकि हम केवल भौतिक प्राणी मात्र नहीं हैं, इसलिए अपने सुख की सारी आशाएँ केवल बाहरी विकास पर रखना गलत है। इस बात की खोज करने के लिए कि हमें क्या चाहिए हमें अपनी उत्पत्ति और प्रकृति के विषय में सोचना चाहिए।
हमारे ब्रह्मांड के सृजन तथा उत्क्रांति के जटिल प्रश्न को परे रख हम कम से कम इस पर तो सहमत हो सकते हैं कि हममें से हर एक अपने माता पिता की उत्पत्ति हैं। साधारणतया हमारा गर्भ में आना केवल यौन इच्छा के संदर्भ में नहीं हुआ, अपितु हमारे माता पिता की एक बच्चे की चाह के निर्णय से हुआ। ऐसे निर्णय, उत्तरदायित्व तथा परोपकार की भावनाओं पर आधारित होते हैं - माता पिता की अपने बच्चे की देख रेख की करुणाभरी प्रतिबद्धता जब तक कि वह स्वयं अपनी देख रेख के योग्य न हो जाए। इसलिए हमारे गर्भ में आने के क्षण से, हमारे माता पिता का प्रेम हमारे निर्माण की ओर होता है।
और तो और अपने विकास के प्रारंभ से ही हम संपूर्ण रूप से अपनी माता की देखभाल पर निर्भर होते हैं। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार, एक गर्भवती स्त्री की मानसिक स्थिति, कि वह शांत है अथवा उत्तेजित, का सीधा भौतिक प्रभाव अजन्मे बच्चे पर पड़ता है।
जन्म के समय प्रेम की अभिव्यक्ति भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। चूँकि हम सबसे पहले अपनी माँ के स्तनों से दूध चूसते हैं इसलिए स्वाभाविक रूप से हम उससे बहुत अंतरंगता का अनुभव करते हैं, और हमें ठीक तरह से दूध पिलाने के लिए उसे भी हमारे प्रति प्रेम का अनुभव करना चाहिए; यदि उसके मन में क्रोध अथवा रोष की भावना हो तो उसका दूध अच्छी तरह नहीं उतरेगा।
उसके बाद जन्म के समय से लेकर कम से कम तीन या चार साल की आयु तक दिमागी विकास का एक बहुत ही नाज़ुक समय है जिस दौरान प्रेम भरा स्पर्श बच्चे के स्वाभाविक विकास में एक अकेला महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। यदि बच्चे को गोद में लेकर दुलराया अथवा प्यार नहीं किया जाता तो उसका विकास क्षीण हो जाएगा और उसका दिमाग ठीक तरह से परिपक्व न होगा।
क्योंकि एक बच्चा दूसरों की देखरेख के बिना जीवित नहीं रह सकता अतः प्रेम उसका सबसे महत्त्वपूर्ण पौष्टिक तत्त्व है। बचपन का सुख, उस बच्चे के कई प्रकार के भय का शमन और उसके आत्मविश्वास का स्वस्थ विकास सभी सीधे प्रेम पर निर्भर होता है।
आजकल कई बच्चे दुःखभरे घरों में बड़े होते हैं। यदि उन्हें ढंग का प्यार नहीं मिलता, तो अपने आगामी जीवन में वे शायद ही अपने माता पिता से प्रेम करेंगे और संभव है दूसरों से प्रेम करना उनके लिए कठिन होगा। यह बहुत शोचनीय है।
जैसे जैसे बच्चे बड़े होकर स्कूल में प्रवेश करते हैं, उनके सहारे की आवश्यकता की पूर्ति उनके शिक्षकों द्वारा की जानी चाहिए। यदि कोई शिक्षक न केवल शास्त्रीय शिक्षा देता है परन्तु विद्यार्थियों को जीवन के लिए भी तैयार करने का उत्तरदायित्व लेता है, तो उसके विद्यार्थियों में उनके लिए विश्वास तथा सम्मान की भावना जागेगी और उसे जो कुछ भी सिखाया गया है वह उनके चित्त पर अमिट निशान छोड़ जाएगा। दूसरी ओर उस शिक्षक द्वारा सिखाए गए विषय जो अपने विद्यार्थियों के संपूर्ण कुशल मंगल के लिए किसी प्रकार की चिंता नहीं रखता, वे अस्थायी माने जाएँगे और बहुत समय तक याद भी न रहेंगे।
इसी तरह यदि कोई बीमार है और उसका इलाज अस्पताल में ऐसे डाक्टर की देखरेख में चल रहा है जो सौहार्द से भरा मानवीय भावना दिखाता है, जो कि सहज है तो डॉक्टर की डिग्री अथवा उसकी तकनीकी कौशल की बजाय उसके द्वारा की गई यथासंभव सबसे अच्छी देखरेख स्वयं में आरोग्यदायक होती है। दूसरी ओर यदि किसी के डॉक्टर में मानवीय भावनाओं का अभाव है और वह एक चिढ़चिढ़ा चेहरा, अधैर्य या लापरवाही दिखाता है तो दूसरा चितिंत हो सकता है, फिर चाहे वह कितना ही योग्य डॉक्टर क्यों न हो, उस बीमारी की ठीक पहचान हो गई हो और उसके लिए सही दवाई दे दी गई हो। यह निश्चित है कि रोगी के अच्छी तरह और पूरी तरह से ठीक होने में निश्चित रूप से उसकी भावनाओं से अंतर पड़ता है।
यदि हम प्रतिदिन के जीवन में साधारण बातचीत में ही क्यों न लगे रहें यदि कोई मानवीय संवेदनाओं से भर कर बोलता है तो उसे सुनने में हमें आनंद आता है और हम उसी के अनुसार प्रतिक्रिया देते हैं; पूरी बातचीत दिलचस्प हो जाती है, फिर चाहे वह विषय कितना ही कम महत्त्वपूर्ण क्यों न हो। दूसरी ओर, यदि कोई व्यक्ति बहुत ही भावशून्य होकर या फिर बडे ही कर्कशता से बोलता है, तो हम अशान्त से हो जाते हैं और चाहते हैं कि वह उस बातचीत को शीघ्र ही समाप्त कर दे। छोटी से छोटी घटना से लेकर सबसे महत्त्वपूर्ण घटना में भी दूसरों के लिए प्रेम और सम्मान हमारे सुख के लिए महत्त्वपूर्ण है।
हाल ही में, मैं एक वैज्ञानिकों के एक दल से मिला जिन्होंने कहा कि उनके देश में मानसिक रोग का दर बहुत अधिक है, जनसंख्या का लगभग बारह प्रतिशत। हमारी चर्चा के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि निराशा का मुख्य कारण भौतिक वस्तुओं का अभाव नहीं अपितु दूसरों के प्रति प्रेम की कमी है।
इसलिए आप देख सकते हैं कि जो कुछ भी मैंने लिखा है उसमें से एक बात मुझे स्पष्ट है कि हम चाहे इस बात के प्रति सजग हों अथवा ना हों, परन्तु जिस दिन से हम पैदा हुए हैं, मानवीय प्रेम के प्रति हमारी आवश्यकता हमारे रक्त में है। फिर चाहे वह स्नेह किसी जानवर अथवा ऐसे व्यक्ति से मिले जिसे हम साधारण रूप से अपना शत्रु समझते हैं, बच्चे और वयस्क बड़ी ही स्वाभाविकता से उसकी ओर झुकते हैं।
मेरा विश्वास है कि कोई भी प्रेम की आवश्यकता का अभाव लेकर पैदा नहीं होता। और इससे यह प्रदर्शित होता है कि यद्यपि आज की कुछ विचारधाराएँ इस ओर प्रयास कर रही है पर मनुष्यों को मात्र भौतिक रूप से परिभाषित नहीं किया जा सकता। कोई भी भौतिक वस्तु फिर चाहे वह कितनी ही सुन्दर या मूल्यवान क्यों न हो, हममें प्रेम की भावना नहीं भर सकती क्योंकि हमारा गहन अस्तित्व और सच्चा चरित्र चित्त के व्यक्तिपरक प्रकृति में निहित है।
करुणा का विकास
मेरे कुछ मित्रों ने मुझ से कहा है कि जहाँ प्रेम और करुणा अनोखी तथा अच्छी है पर वास्तव में उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। उनका कहना है कि हमारा संसार ऐसा स्थान नहीं है जहाँ ऐसे विश्वासों का बहुत अधिक प्रभाव अथवा शक्ति हो। उनका दावा है कि क्रोध तथा घृणा मानवीय स्वभाव के ऐसे अंग बन चुके हैं कि वे सदा मानव समाज पर हावी होते रहेंगे। मैं इससे सहमत नहीं हूँ।
हम मनुष्य इस रूप में सैकड़ों हज़ारों वर्षों से हैं। मेरा विश्वास है कि यदि इस दौरान मनुष्य का चित्त मुख्य रूप से क्रेाध तथा घृणा के वश में होता तो हमारी कुल जनसंख्या कम हो जाती। परन्तु हमारे सभी युद्धों के बावजूद, हम पाते हैं कि मनुष्य की जनसंख्या पहले से कहीं अधिक है। इससे मुझे स्पष्ट होता है कि संसार में प्रेम तथा करुणा प्रबल है। इसलिए अप्रिय घटनाएँ समाचार होती है, करुणा के कार्य हमारे दैनिक जीवन का इस प्रकार अंग है कि हम उन्हें ऐसे ही स्वीकार कर लेते हैं और इसलिए वे बहुत अधिक उपेक्षित रह जाते हैं।
अभी तक मैंने केवल करुणा से होने वाले मानसिक लाभ की चर्चा की है पर उसका अच्छे स्वास्थ्य में भी योगदान है। मेरे निजी अनुभव के आधार पर मानसिक दृढ़ता तथा अच्छे स्वास्थ्य का सीधा संबंध है। इसको लेकर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि क्रोध तथा बेचैनी हमें बीमारी को लेकर और कमज़ोर बनाती है। दूसरी ओर यदि हमारा चित्त शांत हो और सकारात्मक विचारों से भरा हो तो शरीर बहुत सरलता से रोग का शिकार नहीं बनता।
परन्तु यह भी सच है कि हम सबमें एक आंतरिक आत्म केन्द्रितता है जो हमें दूसरों के प्रति प्रेम व्यक्त करने से संकुचित करती है। इसलिए चूँकि हम सच्चा सुख चाहते हैं जो कि केवल एक शांत चित्त से आता है और चूँकि इस प्रकार की मानसिक शांति केवल एक करुणापूर्ण प्रवृत्ति से आती है, तो हम इसका विकास किस प्रकार से कर सकते हैं? स्पष्ट है कि हमारे लिए केवल यह सोचना पर्याप्त नहीं है कि करुणा भाव कितनी अच्छी है! हमें उसके विकास के लिए एक गहन प्रयास करना होगा। अपने विचारों तथा आचरण में परिवर्तन लाने के लिए हमें अपने दैनिक जीवन की सभी घटनाओं को काम में लाना होगा।
सबसे पहले तो हममें इस बात को लेकर स्पष्टता होनी चाहिए कि करुणा से हमारा तात्पर्य क्या है। कई प्रकार की करुणात्मक भावनाएँ इच्छाओं तथा मोह से मिली होती है। उदाहरण के लिए माता पिता अपने बच्चों के प्रति जिस प्यार का अनुभव करते हैं उसमें अकसर उनकी अपनी भावनात्मक आवश्यकताएँ होती है। इसलिए वह पूरी तरह से करुणाशील नहीं है। फिर वैवाहिक जीवन में भी पति तथा पत्नी के बीच का प्रेम-खासकर प्रारंभ के दिनों में, जबकि वे दोनों एक दूसरे के चरित्र के बारे में अच्छे से नहीं जानते-सच्चे प्रेम के स्थान पर अधिकतर मोह पर निर्भर करता है। हमारी इच्छाएँ इतनी प्रबल होती है कि जिस व्यक्ति के प्रति हमारा मोह है वह हमें अच्छा प्रतीत होता है, जबकि वास्तव में वह बहुत ही नकारात्मक होता अथवा होती है। इसके अतिरिक्त हममें छोटे सकारात्मक गुणों को बढा चढ़ा कर कहने की प्रवृत्ति होती है। इसलिए जब एक साथी की प्रवृत्ति बदलती है तो दूसरा साथी भी अकसर निराश हो जाता है और उसकी प्रवृत्ति भी बदल जाता अथवा जाती है। यह इस बात का संकेत है कि प्रेम दूसरे व्यक्ति के प्रति सच्ची चिंता के बजाय वैयक्तिक आवश्यकताओं से अधिक प्रेरित हुआ है।
सच्ची करुणा केवल एक भावनात्मक उत्तर नहीं, पर कारणों के आधार पर एक दृढ़ प्रतिबद्धता है। इसलिए यदि वे नकारात्मक रूप से आचरण करें तो भी दूसरों के प्रति एक सच्चा करुणात्मक व्यवहार नहीं बदलता, निश्चित रूप से इस प्रकार की करुणा बिलकुल भी आसान नहीं है। प्रारंभिक तौर पर हम निम्नलिखित तथ्यों के विषय में सोचें।
चाहें लोग सुन्दर तथा मैत्री भाव रखते हों अथवा आकर्षण रहित और अड़चन डालने वाले हों, अन्ततः वे हमारे ही समान मनुष्य हैं। हमारे ही समान वे सुख चाहते हैं, दुःख नहीं। और तो और दुःख पर काबू पाने का और सुखी होने का उनका अधिकार हमारे ही समान है। अब जब आप इस बात को पहचान लेते हैं कि सभी सत्त्वों की अपने सुख की चाह और उसे प्राप्त करने के उनके अधिकार समान हैं तो स्वाभाविक रूप से आपके मन में उनके लिए सहानुभूति तथा निकटता पैदा होगी। अपने चित्त को इस प्रकार की सार्वभौमिक परोपकार की भावना से परिचित कराते हुए आपके मन में दूसरों के लिए एक उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न होगी; उन्हें उनकी समस्याओं से छुटकारा दिलाने के लिए सक्रिय रूप से सहायता करने की इच्छा। न तो यह इच्छा सीमित है; यह सब पर समान रूप से लागू होती है। जब तक कि आप के ही समान सुख तथा पीड़ा का अनुभव करते हुए मनुष्य हैं, तो उन के बीच में अंतर करने में अथवा उनके प्रति तुम्हारी चिन्ता कम करने में यदि वे नकारात्मक रूप से आचरण करें, कोई तर्कसंगत आधार दिखाई नहीं देता।
मै इस बात पर ज़ोर देना चाहता हूँ कि धैर्य तथा संयम के चलते यह आपकी क्षमता के अनुकूल हैं कि आप इस प्रकार की करुणा का विकास करें। निःसन्देह हमारी आत्मकेन्द्रित होने की भावना आधारभूत रूप से हमारी करुणा की अभिव्यक्ति को संकुचित करती है। निश्चित रूप से सच्ची करुणा की अनुभूति उसी समय होती है जब इस प्रकार की आत्म-ग्राह्यता की भावना को दूर किया जाए। पर इसका यह अर्थ नहीं कि हम अभी प्रारंभ कर विकास नहीं कर सकते।
हम किस प्रकार प्रारंभ कर सकते हैं
हमें करुणा के सबसे बडे अवरोध, क्रोध तथा घृणा को दूर करते हुए शुरुआत करनी चाहिए। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि ये अत्यंत शक्तिशाली भावनाएँ हैं और वे हमारे सम्पूर्ण चित्त पर हावी हो सकती है। परन्तु उन पर नियंत्रण किया जा सकता है। पर यदि उन्हें काबू में नहीं किया गया तो वे नकारात्मक भावनाएँ हमें पीडित करेगी:- अपनी ओर से बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के! और एक प्रेम भरे चित्त की हमारी खोज में बाधक बनेगी।
इसलिए प्रारंभ में इस प्रकार की जाँच करना लाभकारी होगा कि क्रोध की क्या कोई कीमत है। कभी कभी जब हम किसी कठिन परिस्थिति से निराश हो जाते हैं, तो क्रोध सहायक सा लगता है, जो कि अपने साथ अधिक शक्ति, विश्वास और निश्चय लाता है।
यहाँ हमें अपनी मानसिक स्थिति का सावधानी से परीक्षण करना चाहिए। जहाँ यह सच है कि क्रोध अतिरिक्त शक्ति लाता है, पर यदि हम इस शक्ति की प्रकृति को देखें तो हम पाएँगे कि यह अंधी है। हम निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते कि इसका परिणाम सकारात्मक होगा अथवा नकारात्मक। इसका कारण है कि क्रोध हमारे दिमाग के सबसे अच्छे भाग: विवेक को ढॅंक देता है। इसलिए क्रोध की शक्ति करीब करीब हमेशा अविश्वसनीय है। यह बहुत अधिक मात्रा में विनाशकारी, दुर्भाग्यपूर्ण व्यवहार का कारण बन सकती है। और तो और, यदि क्रोध की अति हो जाए तो व्यक्ति पागलों जैसा हो जाता है और इस प्रकार का बर्ताव करने लगता है जो स्वयं के लिए और दूसरों के लिए भी हानिकारक हो सकता है।
पर इसी के समान प्रबल परन्तु अधिक नियंत्रित शक्ति का विकास करना संभव है। यह नियंत्रित शक्ति न केवल एक करुणा भरे व्यवहार से आती है पर तर्क तथा धैर्य से भी आती है। यह क्रोध की सबसे अधिक शक्तिशाली प्रतिरोधक है। दुर्भाग्यवश कई लोग इन गुणों को ठीक से न पहचानते हुए उन्हें दुर्बलता का प्रतीक मानते हैं। मैं इसके विपरीत को सच मानता हूँ कि वे आंतरिक शक्ति के सही संकेत हैं। करुणा अपनी प्रकृति से कोमल, शांतिपूर्ण तथा नरम होती है, परन्तु यह अत्यंत प्रबल होती है। ये लोग जो बहुत शीघ्रता से अपना धैर्य खो बैठते हैं वे वास्तव में असुरक्षित तथा अस्थिर हैं। इस प्रकार मेरे लिए क्रोध का पैदा होना दुर्बलता का सीधा संकेत है।
इसलिए पहले जब कोई समस्या खड़ी होती है, तो विनम्र बने रहने की कोशिश करो तथा एक सच्चा बर्ताव बनाए रखो और इस प्रकार की भावना बनाए रखो कि परिणाम पक्षपात रहित होगा। निश्चित रूप से दूसरे तुमसे लाभ उठाने की कोशिश करेंगे और यदि तुम्हारा तटस्थ भाव उस अनुचित हिंसा को केवल और अधिक बढ़ावा दे तो एक सशक्त पक्ष अपना लो। पर यह करुणा की भावना से किया जाना चाहिए, और यदि आपको अपने विचार व्यक्त करने की ज़रूरत हो और शक्तिशाली प्रत्युपाय लेने की आवश्यकता पड़े तो बिना किसी क्रोध अथवा दुर्भाव के करो।
आपको यह समझना चाहिए कि यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि आपके विरोधी आपको हानि पहुँचा रहे हैं परन्तु अंत में उनके विनाशकारी कार्य उन्हीं का अंत कर देंगे। अपने स्वयं के स्वार्थ का बदला लेने की भावना पर काबू पाने के लिए आपको अपने ही करुणा के अभ्यास की इच्छा का स्मरण करना होगा और दूसरों को उनके कार्यों के परिणाम के दुःख से बचाने का उत्तरदायित्व लेना होगा।
इस तरह चूँकि आपके द्वारा जो उपाय काम में लाए जा रहे हैं उनका चयन शांतिपूर्वक ढंग से हुआ है, इसलिए वे और अधिक प्रभावशाली अधिक सही तथा अधिक प्रबल होंगे। क्रोध की अंधी शक्ति पर आधारित प्रत्याघात अपने निशाने पर बहुत कम पहुँचता है।
मित्र तथा शत्रु
मैं पुनः इस बात पर ज़ोर देना चाहूँगा कि केवल यह सोचना कि करुणा, तर्क और धैर्य अच्छे हैं उनके विकास के लिए पर्याप्त नहीं हैं। हमें कठिनाइयों की प्रतीक्षा करनी चाहिए और फिर उनके अभ्यास का प्रयास करना चाहिए।
और इस प्रकार के अवसर कौन निर्मित करता है? निश्चित रूप से हमारे मित्र नहीं, परन्तु हमारे शत्रु। वे ही हैं जो हमें सबसे अधिक मुश्किलें देते हैं। तो यदि हम सच में कुछ सीखना चाहते हैं तो हमें अपने शत्रुओं को अपना सबसे अच्छा शिक्षक मानना चाहिए।
ऐसे व्यक्ति के लिए जो करुणा तथा प्रेम को सॅंजोता है, उसके लिए धैर्य का अभ्यास आवश्यक है और उसके लिए एक शत्रु का होना अनिवार्य है। इसलिए हमें अपने शत्रुओं के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए, क्योंकि वही हैं जो हमें एक शांतिपूर्ण चित्त के विकास में सहायता कर सकते हैं। साथ ही अकसर वैयक्तिक तथा सार्वजनिक जीवन में परिस्थितियों के बदलने के साथ ही शत्रु मित्र बन जाते हैं।
इसलिए क्रोध तथा घृणा हमेशा हानिकारक होते हैं और जब तक हम अपने चित्त को शोधन कर उनकी नकारात्मक शक्ति को कम करने हेतु काम नहीं करते, वे हमें व्याकुल करते रहेंगे और हमारे एक शांत चित्त के विकास के प्रयास को बाधित करते रहेंगे। क्रोध और घृणा हमारे वास्तविक शत्रु हैं। ये वे शक्तियाँ हैं जिनका सामना कर हमें उन्हें पराजित करना है, अस्थायी शत्रु नहीं जो हमारे जीवन भर बीच बीच में प्रकट होते रहते हैं।
निश्चित रूप से यह स्वाभाविक तथा सही है कि हम सभी को मित्रों की आवश्यकता पड़ती है। मैं अकसर हॅंसी में कहता हूँ कि यदि आप सचमुच स्वार्थी बनना चाहते हैं तो आपको परोपकारी होना चाहिए। आपको दूसरों का अच्छी तरह ध्यान रखना चाहिए, और उनकी भलाई के लिए चिन्तित होना चाहिए, उनकी सहायता करें, उनकी सेवा करें, अधिक मित्र बनाएँ और अधिक मुस्कुराएँ। उसका परिणाम? जब आपको सहायता की आवश्यकता होगी तो आपको कई सहायक मिल जाएँगे। यदि दूसरी ओर यदि आप दूसरों के सुख की उपेक्षा करें तो एक लम्बे समय में आपका नुकसान होगा। और क्या दोस्ती झगड़ों और क्रोध, ईर्ष्या और बहुत अधिक प्रतिस्पर्धा की भावना से उत्पन्न होती है? मुझे नहीं लगता। केवल प्रेम से ही हमें सच्चे मित्र मिलते हैं।
आज के भौतिकवादी समाज में, यदि आपके पास धन तथा शक्ति है तो लगता है कि आपके कई मित्र हैं। पर वे आपके मित्र नहीं हैं, वे आपके धन तथा पदवी के मित्र हैं। जब आप अपना धन तथा प्रभाव खो बैठेंगे तो आपको इनको ढूँढने में बड़ी कठिनाई होगी।
कठिनाई यह है कि जब संसार में हमारा सब कुछ ठीक से चलता है तो हममें यह विश्वास आ जाता है कि हम सब कुछ अपने आप कर लेगें और लगता है कि हमें मित्रों की कोई आवश्यकता नहीं है, पर जैसे जैसे हमारी पदवी और स्वास्थ्य घटता जाता है, हम शीघ्र ही समझने लगते हैं कि हम कितने गलत थे। वही क्षण होता है, जब हम समझते हैं कि कौन वास्तव में सहायक है और कौन पूरी तरह से बेकार है। इसलिए उस क्षण की तैयारी के लिए, सच्चे मित्र बनाने के लिए जो आवश्यकता पड़ने पर हमारी सहायता करे, हमें स्वयं ही परोपकार का विकास करना चाहिए।
हालांकि कभी कभी लोग हॅंसते हैं, जब मैं कहता हूँ कि मुझे हमेशा और मित्र चाहिए। मुझे मुस्कान बहुत ही अच्छी लगती है। इस कारण मैं यह जानता हूँ कि किस तरह और मित्र बनाएँ जाएँ और किस तरह और मुस्कुराहट पाई जाए, खासकर सच्ची मुस्कान। क्योंकि मुस्कुराहट कई प्रकार की होती है जैसे कि व्यंग्य से भरी, बनावटी अथवा औपचारिक। कई मुस्कुराहटों से तो किसी भी प्रकार का संतोष पैदा नहीं होता और कभी कभी तो वे संदेह अथवा डर भी पैदा कर सकती है, है ना? परन्तु एक सच्ची मुस्कुराहट वास्तव में एक नूतनता की भावना दे सकती है और मेरे विचार से यह अनोखापन केवल मनुष्यों में होता है। यदि हम इस प्रकार की मुस्कुराहट चाहते हैं तो हमें स्वयं ही उनके प्रकट होने के कारण पैदा करने चाहिए।
करुणा और विश्व
निष्कर्ष में, मै संक्षिप्त में अपने विचार इस छोटे से लेख के विषय से परे व्यापक रूप से प्रस्तुत करना चाहूँगा और एक व्यापक बिंदु देना चाहूँगा: वैयक्तिक सुख एक गहन तथा प्रभावशाली ढंग से हमारे संपूर्ण मानव समुदाय की व्यापक बेहतरी के लिए सहयोग दे सकता है ।
क्योंकि हम सभी को प्रेम की आवश्यकता है, तो यह संभव है कि किसी भी परिस्थिति में हम किसी से भी मिलें वह हमारा भाई अथवा बहन है। फिर चाहे वह चेहरा कितना ही नया क्यों न हो, अथवा पोशाक या व्यवहार कितना ही अलग क्यों न हो, हमारे तथा दूसरे लोगों के बीच कोई महत्त्वपूर्ण विभाजन नहीं है। बाहरी अंतरों के बारे में सोचते रहना मूर्खता है, क्योंकि हमारी आधारभूत प्रकृति एक समान है।
अंततः, मानव समुदाय एक है और यह छोटा ग्रह ही हमारा एकमात्र घर है। यदि हम अपने इस घर को सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो हममें से प्रत्येक को सार्वभौमिक परोपकार की स्पष्ट भावना का अनुभव करना होगा। एक केवल यही भावना है जो कि आत्मकेन्द्रित भावना को दूर कर सकती है जिसके कारण लोग एक दूसरे को धोखा देते हैं और एक दूसरे का लाभ उठाते हैं। यदि आपका हृदय सच्चा और खुला है तो आप स्वाभाविक रूप से आत्म-योग्यता की भावना तथा विश्वास का अनुभव करते हैं और इस तरह दूसरों से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है।
मेरा विश्वास है कि समाज के प्रत्येक स्तर पर-परिवार, कुनबा, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय-एक और सुखी और सफल विश्व की कुंजी, करुणा का विकास है। हमें धार्मिक बनने की आवश्यकता नहीं है, न ही हमें किसी आदर्श में विश्वास करने की आवश्यकता है। हममें से प्रत्येक को जिसकी आवश्यकता है, वह है अच्छे मानवीय गुणों का विकास करना।
मैं यह कोशिश करता हूँ कि जिससे भी मैं मिलूँ उससे एक पुराने दोस्त की तरह मिलूँ। यह करुणा का अभ्यास है।