थेगछेन छोएलिङ, धर्मशाला, हि. प्र- सैकड़ों रूसी लोगों द्वारा रूसी भाषा में 'हृदय सूत्र' के एक पाठ के बाद परमपावन दलाई लामा ने जे-च़ोंखापा द्वारा विरचित प्रधान-त्रिविधमार्ग के ग्रन्थ को खोला । उन्होंने बताया कि जे-च़ोंखापा ने बोधिपथ मार्गक्रम के लघु, मध्य और दीर्घ ग्रन्थों की रचना के उपरान्त प्रधान-त्रिविधमार्ग नामक इस ग्रन्थ की रचना की थी । उन्होंने पूर्वी तिब्बत ज्ञालमोरोङ के राजनेता तथा उनके प्रिय शिष्य छ़ाको वोन्पो ङावाङ डाक्पा के अनुरोध पर इस ग्रन्थ की रचना की । प्रधान-त्रिविधमार्ग के इस लघु ग्रन्थ को लिखने का मुख्य कारण विमुक्ति सुनिश्चत करना था । इसमें बोधिचित्त और शून्यता को जानने वाली प्रज्ञा का युगनद्ध अभ्यास प्रदर्शित किया गया है ।
“सभी प्राणी सुख चाहते हैं तथा दुःख और विपत्ति से बचने की कोशिश करते हैं । यदि आप किसी कीट के मार्ग को अवरुद्ध करते हैं तो आसानी से आप इसे देख सकते हैं – वह कीट दूर भागकर दूसरा मार्ग खोजने लगता है । प्राचीन भारत के आध्यात्मिक साधकों ने कलुषित भावनाओं को हमारी समस्याओं का स्रोत बताया है । कलुषित भावनाओं का संस्कृत शब्द क्लेश है जिसे तिब्बती में ‘ञोनमोङ’ कहा गया है, जो एक ऐसे क्लेशयुक्त भावना है जिसके उत्पन्न होते ही हमारा चित्त विचलित हो जाता है और, हम दुःखी हो जाते हैं ।”
“प्राचीन भारत में अबौद्ध साधकों ने कामधातु के क्लेशपूर्ण भावनाओं को दोषयुक्त और अहितकारी जान लिया और उन्होंने इन भावनाओं का प्रहाण करने के लिए उपवास और नग्न रहते हुये सभी प्रकार की तपस्याओं का अभ्यास किया । उन्होंने कामधातु परित्याग करते हुये चार ध्यान समापत्तियों पर साधना की, जिससे वे आकाश अनन्त्य, विज्ञान अनन्त्य, अकिंचन्य और भवाग्र तक पहुंचे जहां पर अतिसूक्ष्म चित्त का प्रस्फुटन होता है । मुझे अनेक बार ऐसी आशा थी कि जब वे गुफाओं के एकान्तवास से कुम्भ मेले में आयेंगे तब मुझे उनसे चर्चा करने का अवसर मिलेगा । उनका पहाड़ों की गुफाओं में अत्यन्त ही ठंड में साधना करते हुये रहना यह दर्शाता है कि वे स्पष्ट रूप से 'चण्डाली उष्मता' की अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं जिसके बारे में नारोपा के छह धर्म में विस्तृत व्याख्या है । मैं उनके अनुभवों से सीखना चाहता हूँ, लेकिन अब तक ऐसा अवसर नहीं मिल पाया है । आचार्य नागार्जुन ने मूलमध्यमककारिका में भावनाओं के दोषपूर्ण स्वभाव को स्पष्ट किया है यथा -
कर्म और क्लेशों के उन्मूलन से मुक्ति है,
कर्म और क्लेश विकल्पों से निर्मित होते हैं ।
ये सब भी प्रपञ्चों से उत्पन्न होते हैं,
और शून्यता के भाव से इनका अन्त होता है ।”
“राग, द्वेष और मोह विकल्पों से निर्मित होती है जो सुन्दर और कुरूप इत्यादि पदार्थों को अतिशय दृष्टि द्वारा देखकर स्वभावतः सिद्ध मानती है । नागार्जुन के प्रिय शिष्य आर्यदेव ने इस बात को स्पष्ट किया है -
जिस तरह कायेन्द्रिय पूरे शरीर में मौजूद है,
उसी तरह अज्ञानता सभी में रहती है ।
इसलिए सभी क्लेश भी,
अज्ञानता के उन्मूलन करने पर दूर हो जाती हैं ।
जब प्रतित्यसमुत्पाद का दर्शन होता है,
तब अज्ञानता उत्पन्न नहीं होता ।
इसलिए यहां सभी ने प्रयत्नतः,
इसके बारे में परिचर्चा की है ।
इन आचार्यों ने अपने मत को सुदृढ़ बनाने के लिए सूत्रों के उद्धरणों का आश्रय नहीं लिया है, अपितु तार्किक माध्यमों को अपनाया है ।
“प्रधान-त्रिविधमार्ग का यह ग्रन्थ मुख्य रूप से शून्यता के दर्शन पर केन्द्रित है । इस दर्शन को विकसित करने के लिए हमें एक ऐसे उपाय की आवश्यकता होती है जिससे संज्ञानात्मक बाधाओं को दूर किया जा सके और यह उपाय- बोधिचित्त है । साथ ही हमें यह समझना होगा कि किस तरह क्लेश हमारे जीवन में समस्याएं उत्पन्न करती हैं और कैसे हम इन क्लेशों का उन्मूलन कर सकते हैं । जब हम यह जान जायेंगे कि क्लेशों का उन्मूलन सम्भव है तब हम यह भी समझ जायेंगे कि ज्ञान के प्रति हमारी मूढ़ता का भी परित्याग सम्भव है और इसी तरह शून्यता का अवबोधन भी सम्भव है । बोधिचित्त की साधना- जो सभी प्राणियों के लिए बुद्धत्व की प्राप्ति की आकांक्षा है - शून्यता के अवबोधन में सहयोग करता है । इसका प्रारम्भिक आधार निर्याण की भावना है ।"
परमपावन ने उल्लेख किया कि उन्हें इस ग्रन्थ का व्याख्यात्मक आगम उनके मुख्य गुरु -तागडाग रिन्पोछ, योङज़िन लिङ रिन्पोछे और योङज़िन ठीजाङ रिन्पोछे से प्राप्त हुआ । उन्होंने कहा कि वे अपनी साधना में प्रधान-त्रिविधमार्ग का पाठ करते हैं और उस पर विचार करते हैं तथा बोधिचित्त की साधना हेतु चित्त ‘शोधन की अष्ट पदावली’ का पाठ करते हैं ।
ग्रन्थ को पढ़ते हुये परमपावन ने कहा - “हम इस संसार में आसक्त रहकर इससे विमुक्त नहीं हो सकते हैं, इसलिए एक शुद्ध निर्याण की भावना का होना अत्यावश्यक है । इसके लिए हमें संस्कार दुःख को समझना होगा और उसे भी दुःख दुःखता तथा विपरिणाम दुःखता के द्वारा समझा जा सकते है ।”
“एक क्षणसम्पद मानव जीवन का मिलना अत्यन्त ही दुर्लभ है । शून्यता को जानने वाली प्रज्ञा के बिना निर्याण तथा बोधिचित्त की साधना मात्र से संसार में उत्पन्न होने के मूल कारणों का परित्याग करना सम्भव नहीं है । इसलिए प्रतीत्यसमुत्पाद को जानने का यत्न करना चाहिए । यह अत्यन्त ही रुचिकर है कि चार बौद्ध सिद्धांतवादियो में ‘अनात्मता’ की दृष्टि में समानता होने के उपरान्त भी जे-च़ोङखापा ने यहां इसका उल्लेख नहीं किया है, बल्कि उन्होंने तथागत बुद्ध को प्रतीत्यसमुत्पात की देशना करने पर उनकी स्तुति करने वाले आचार्य नागार्जुन के सिद्धांत की प्रस्तुतिकरण किया है । मूलमध्यमककारिका ग्रन्थ के अन्त में आचार्य नागार्जुन लिखते हैं –
जिन्होंने अनुकम्पा द्वारा,
ऐसे सद्धर्म की देशना की है ।
जिससे सभी दृष्टियों का प्रहाण होता है,
ऐसे गौतम को नमन है ।
जे-च़ोङखापा आगे लिखते हैं-
‘अव्यभिचार प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रतीति एवं प्रतिज्ञा रहित शून्यता का अवबोधन जब तक भिन्न रूप से आभासित होता है, तब तक मुनिमत का बोध नहीं हुआ है ।’
जब ये दोनों प्रतीतियाँ एक साथ और समवर्ती होंगे तब अव्यभिचार प्रतीत्यसमुत्पाद के दर्शन मात्र से एक निश्चित प्रज्ञा का अविर्भाव होता है जिससे सभी प्रकार के मानसिक ग्राह्यता का उन्मूलन होता है । जब ऐसा होता है तो गम्भीर दर्शन का विश्लेषण परिपूर्ण हो जाता है और प्रतीत्यसमुत्पाद का यह अवबोधन शून्यता के अवबोधन के लिए प्रेरित करता है । इसके कहने का तात्पर्य यह है कि शून्यता को जानने वाली बुद्धि और प्रतीत्यसमुत्पाद को जानने वाली बुद्धि दोनों पर्याय हैं - वे एक दूसरे के परिपूरक हैं ।”
“जब मैं आप लोगों को देखता हूँ मुझे कुछ दिखाई देता है । मैं आपके शरीर को देखता हूँ, आपकी आवाज़ को सुनता हूँ । मुझे ऐसा दिखाई पडता है कि मानो कोई ठोस वस्तु आपकी ओर से अस्तित्व में है, लेकिन वास्तव में आप इस प्रकार अस्तित्व में हैं ही नहीं । इसी प्रकार जब आप मुझे देखते हो और मुझे सुनते हो तो आप मेरे शब्दों से कुछ निष्कर्ष निकालते हो, तथापि मेरे काय, वाक् और चित्त- मैं नहीं हूँ । हालांकि वस्तुएं अपनी ओर से एक ठोस तत्व के रूप में दिखाई देते हो, लेकिन वे उस तरह से अस्तित्व में नहीं हैं ।”
“आचार्य चन्द्रकीर्ति ने वस्तुओं को स्वतन्त्र सत्ता के रूप में नहीं देखा है, फिर भी वस्तुएं संवृत्तितः अस्तित्व में होते हैं । उन्होंने एक रथ की उपमा देते हुये उसे सात प्रकार से विश्लेषण करने के उपरान्त उस रथ की स्वतन्त्र सत्ता का खण्डन किया, फिर भी व्यवहारिक स्तर पर वह अस्तित्व में है । जब आप प्रतीत्यसमुत्पाद को जान जाते हैं तब आपको शून्यता का बोध होता है । साथ ही आपको समझ आ जाता है कि जो भी शून्यता है वह प्रतीत्यसमुत्पाद भी है ।”
इस ग्रन्थ के प्रवचन की समाप्ति पर परमपावन आज के लिए यहीं पर रुक गये । उन्होंने घोषणा की कि कल बोधिचित्त उत्पन्न का अनुष्ठान होगा । अपने निवास स्थान पर लौटने के मार्ग में उन्होंने मित्रों और शुभचिन्तकों का अभिवादन स्वीकार किया तथा उनसे कुछ बातचीत भी की ।