मुण्डगोड, कर्नाटक, भारत – आज सुबह परमपावन दलाई लामा डेपुङ गोमाङ मठ के नये शास्त्रार्थ सभागार में पधारे जहां पर मठाधीश लोब्ज़ाङ ज्ञालछ़न ने उनका स्वागत सत्कार किया । नये भवन के उद्घाटन हेतु परमपावन ने फीता काटा और मंच की ओर पधारे । मंच पर अन्य मठों के मठाधीश, भूतपूर्व मठाधीश, गोमाङ मठ के टुल्कुओं ने उनका अभिनन्दन किया । परमपावन मंचासीन गादेन ठीपा, भूतपूर्व गादेन ठीपा, शारपा तथा जाङचे छोजे एवं एमोरी के वैज्ञानिकों का अभिवादन करने के उपरान्त भवन में स्थापित मूर्तियों, थांकाओं का प्राण-प्रतिष्ठान करते हुये उनके समक्ष दीप प्रज्जवलन कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया ।
परमपावन के आसन ग्रहण करने पर मठाधीश ने मण्डल अर्पण किया जो बुद्ध के काय, वाक् और चित्त को चिन्हित करते हैं, तथा उन्होंने परमपावन को मठ में पधारने पर धन्यवाद करते हुये गोमाङ मठ का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया । उन्होंने इस मठ के संस्थापक जामयाङ छोजे टाशी पालदेन तथा गोमाङ विश्वविद्याल के संस्थापक डुग डाक्पा रिन्छेन का स्मरण करते हुये कहा कि सन् 1959 में तिब्बत से आने के बाद बक्सर में पुनः अध्ययन अध्यापन प्रारम्भ किया गया था और सन् 1969 में 60 भिक्षु मुण्डगोड आये और यहां इस मठ का निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ ।
धीरे-धीरे लद्धाख, अरुणाचल प्रदेश तथा अन्य हिमालयी क्षेत्रों से भिक्षु यहां आये और यह संख्या बढ़कर 300 तक पहुंच गया । सन् 1982 से तिब्बत से तिब्बती भिक्षुओं का आना शुरु हुआ और इसी तरह मंगोलिया तथा रूस से अनेक भिक्षु आये हैं जिसके फलस्वरूप आज यहां पर अध्ययनरत भिक्षुओं की संख्या 2000 से अधिक है । अन्त में उन्होंने इस भवन निर्माण के दानदाताओं, सहयोगकर्त्ताओं एवं अतिथियों का धन्यावाद करते हुये जे-च़ोङापा जी के इस श्लोक का वाचन किया-
इस उत्कृष्ट शासन-रत्न का जहां पर व्याप्ति नहीं हुयी है,
या फिर व्याप्ति होने पर भी उसका ह्रास हुआ है, ऐसे क्षेत्र में,
मेरे चित्त में महाकरुणा उत्पन्न होकर,
हित-सुख के इस निधि को (मैं) प्रकाशित कर पाऊं ।
उसके पश्चात् एमोरी तिब्बत विज्ञान उपक्रम (ई.टी.एस.आई) को बौद्ध विश्वविद्यालयों में लागू कर छह वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया । इस संस्था के निदेशक डॉ. लोब्ज़ाङ तेनज़िन नेगी ने परमपावन एवं अन्य गन्यमान्य लोगों का इस अवसर पर पधारने के लिए धन्यावाद किया तथा उन्होंने कहा कि सन् 2006 में परमपावन ने अमेरिका के जॉर्जिया में स्थित एमोरी विश्वविद्यालय में इस उपक्रम की स्थापना की थी । उन्होंने ही इस साझेदारी को आगे बढ़ाने हेतु प्रेरणा और मार्गदर्शन किया था जिसमें धर्मशाला में स्थित तिब्बती ग्रन्थ एवं अभिलेख पुस्तकालय भी सम्मलित हुआ ।
सहायक-निदेशक डॉ. छ़ेतेन डोलकार ने छह वर्ष की उपलब्धियों का विवरण प्रस्तुत करते हुये कहा कि इन छह वर्षों में प्रत्येक वर्ष एक महीने के लिए भिक्षुओं को विज्ञान की कक्षाओं का आयोजन किया गया तथा ज़रूरतमंदों को तेनज़िन ज्ञाछ़ो छात्रवृत्ति दिया गया है । इसी तरह जीवविज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, तंत्रिका विज्ञान आदि विज्ञान के विषयों को सिखाने के लिए द्विभाषिक पाठ्य पुस्तक तैयार किये गये हैं । उन्होंने कहा कि अब तक 1000 से भी अधिक भिक्षुओं ने प्रथम चरण के इस अध्ययन को पूरा किया है तथा 40 भिक्षुणियां तीन वर्ष का अध्ययन पूर्ण कर चुके हैं ।
इस अवसर पर जीवविज्ञान के प्राध्यापक डॉ. एरी ईसेन ने पिछले छह वर्षों के अपना अनुभव साझा करते हुये कहा कि एमोरी विश्वविद्यालय के छात्रों एवं बौद्ध भिक्षुओं के मध्य जो संवाद और चर्चा होते हैं उनसे वे काफी प्रभावित हुये हैं । भिक्षुओं का विज्ञान के प्रति रूचि लेने की प्रक्रिया में उन्हें अनेक जीवनमूलक तथ्यों से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ है ।
तंत्रिका विज्ञान के प्राध्यापक डॉ. केरॉल वर्थमेन ने कहा कि विज्ञान भौतिक एवं ठोस विषयों पर अध्ययन करता है जबकि बौद्धधर्म तर्क और हेतुओं का प्रयोग कर मन पर ध्यान केंन्द्रित करता है । उन्होंने दृढ़ विश्वास ज़ाहिर करते हुये कहा कि इन दोनों का एक साथ आकर कार्य करने पर लोक कल्याण की स्थापना में अहम भूमिका निभा सकते हैं । उन्होंने परमपावन को उनके दूरदृष्टि और प्रेरणा प्रदान करने के लिए धन्यवाद किया ।
तिब्बती ग्रन्थ एवं अभिलेख पुस्तकालय के निदेशक गेशे लाकदोर ने एमोरी विश्वविद्यालय एवं उनके संस्था के मध्य स्थापित सहोद्योग का ज़िक्र किया । उन्होंने सभी को इसकी सफलता में सहयोग देने के लिए धन्यवाद किया तथा कहा कि परमपावन जी की चार प्रतिबद्धताओं को यदि ध्यान से समझेंगे तो परमपावन द्वारा विज्ञान और बौद्धधर्म को एक साथ लाने के उपक्रम की दृष्टि को समझने में मदद मिलेगी । उन्होंने परमपावन की दीर्घायु की कामना करते हुये वक्तव्य को समाप्त किया । परमपावन ने अपना सम्बोधन प्रारम्भ करते हुये कहा-
“पूर्व के कुछ मठाधीश विज्ञान के साथ संवाद करने में कतराते थे, लेकिन तथागत गौतम बुद्ध ने दूसरे धर्मचक्र प्रवर्तन में विज्ञान और तर्कविद्या का प्रवचन दिया था जिसके मूल में प्रज्ञापारमिता थी । पश्चिम में विज्ञान भौतिक वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित करता है । विज्ञान को अब आन्तरिक विषयों पर अधिक ध्यान देना चाहिए । बौद्धधर्म आध्यात्मिक विषयों पर अन्वेषण करता है और तथ्यों को प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण द्वारा स्थापित करता है । यदि इन दोनों विद्याओं को अन्वित करते हैं तो इससे समाज और लोगों का महान हित सिद्ध होगा ।”
“हमने कांग्युर और तांग्युर के विषयों को पुनःवर्गीकृत कर उन्हें बौद्ध विज्ञान, दर्शन और धर्म के विषयों के अन्तर्गत रखकर अलग-अलग संकलित ग्रन्थों में प्रकाशित किया है । इसमें धर्म से जुड़े विषय धार्मिक लोगों के लिए है, लेकिन विज्ञान और दर्शन के विषयों को शैक्षणिक विषय के रूप में अध्ययन और विश्लेषण किया जा सकता है ।”
“दर्शन के विषयों पर जब हम अध्ययन करते हैं तब हम यह पाते हैं कि जीव एवं पदार्थ हमें स्वतंत्र रूप से आभासित होते हैं, जो सत्य नहीं है । क्योंकि उनका कोई स्वाभाविक सत्ता नहीं होती है, स्वतंत्र सत्ता नहीं होती है और न ही इनका कोई कूटस्थ सत्ता है । हम प्रामाणिक विश्लेषण के द्वारा इस अविद्या रूपी भ्रामक बुद्धि का प्रतिकार कर सकते हैं । हम वस्तुओं की स्वतंत्रतात्मक सत्ता में आसक्त हैं, इसलिए जब हम ऐसे विश्लेषण करते हैं कि वस्तुएं केवल नाममात्र में अस्तित्व में हैं, तो उससे हम असहज अनुभव करते हैं, लेकिन इस प्रकार के विश्लेषण से हमारे में भ्रामक दृष्टि का पकड़ कमज़ोर हो जाता है ।”
परमपावन ने उसके बाद ‘नालंदा के 17 महापण्डितों की स्तुति’ एवं चाङ्क्या रोल्पाई दोर्जे द्वारा विरचित ‘मेरी पुरानी माँ का अभिज्ञान’ नामक ग्रन्थ पर प्रवचन दिया । उन्होंने प्रवचन के दौरान जे रिन्पोछे जी के जीवन से जुड़े एक घटना को सुनाते हुये कहा कि उनके गुरु छोजे दोन्डुब रिन्छेन ने उन्हें माध्यमिक ग्रन्थों के अध्ययन के लिए प्रेरित किया था । इसलिए वे जब मध्य तिब्बत में आये थे तो शास्त्रों का गहन अध्ययन कर अनुसंधान किया था । जे रिन्पोछे जब गम्भीर ध्यान साधना कर रहे थे उस समय आर्यमञ्जुश्री के दर्शन होने पर उन्होंने कुछ प्रश्न पूछा था, लेकिन जब उनके उत्तरों को समझने में कठिनाई हुयी तो इस पर आर्यमञ्जुश्री ने उन्हें पुण्य संचय करने और पापों का परिशोधन करने की शिक्षा दी । वे उसके बाद एकांतवास साधना में चले गये जहा उन्हें आचार्य नागार्जुन एवं उनके शिष्यों का स्वप्न आया । स्वप्न में वे देखते हैं कि आचार्य बुद्धपालित उनके द्वारा रचित बुद्धपालित ग्रन्थ को उनके सिर पर रख रहे हैं। उसके बाद उन्हें एक अद्भुत अनुभव हुआ और उन्होंने बुद्धपालित ग्रन्थ का अध्ययन एवं विवेचन किया। जब वे इस ग्रन्थ का विवेचन कर रहे थे तब मूल-मध्यमककारिका के अठारहवें परिच्छेद की व्याख्या में- यदि स्कन्ध आत्मा है तो वह (आत्मा) उत्पन्न और विनाश हो जायेगा और यदि स्कन्ध से अलग है तो स्कन्ध लक्षण विहीन हो जायेगा। इस व्याख्या मे आया हुआ वाक्य ‘स्कन्ध लक्षण विहीन हो जायेगा’ की बुद्धपालित ग्रन्थ में इस प्रकार व्याख्या है- गम्भीर प्रतीत्यसमुत्पाद प्रतीत्यप्रज्ञप्त मात्र है और प्रतीत्यप्रज्ञप्त मात्र में क्रिया एवं कर्ता का होना युक्तिसंगत है। जब जे-रिन्पोछे ने इस व्याख्या को समझा उसी क्षण उन्होंने शाश्वत एवं उच्छेद इन दो अन्तों का निराकरण कर प्रतीत्यसमुत्पाद की तथता के अर्थ को सम्पूर्ण रूप से जान लिया।
परमपावन ने गोमाङ मठ में अध्ययन कर रहे मंगोलियायी भिक्षुओं से कहा कि तिब्बत और मंगोलिया के बीच विशेष सम्बन्ध रहा है । डोगोन छोएज्ञाल फागपा के साथ तिब्बती बौद्धधर्म तिब्बत से मंगोलिया पहुंचा था और बाद में तीसरे दलाई लामा सोनम ज्ञाछो ने उस परम्परा को आगे बढ़ाया । 20वीं शताब्दी के जनक्रांतियों के दौरान बहुत सारे भिक्षुओं को मारा गया था, लेकिन बाद में इस देश ने अपनी स्वतंत्रता पुनः अर्जित की और आज स्थिति में सुधार हुआ है ।
कार्यक्रम के अन्त में गेशे लोब्ज़ाङ गेलेक ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुये सभी अतिथियों एवं दानदाताओं के प्रति आभार व्यक्त किया तथा परमापवन के चिरायु होने और तिब्बत की समस्या का शीघ्र समाधान हेतु मंगल-कामना की ।