चण्डीगढ़, भारत – आज सुबह परमपावन दलाई लामा अपने होटल से गाड़ी में सवार होकर चण्डीगढ़ विश्वविद्यालय में पहुंचे जहां पर कुलपति एवं उप-कुलपित ने उनका स्वागत किया । तिब्बती छात्रों ने ‘छेमा छाङफु’ द्वारा तिब्बती सांस्कृतिक स्वागत किया और भवन के मुख्य द्वार पर भारतीय परम्परागत शैली में उनका स्वागत किया । कुलपति कार्यालय में कुछ समय बिताने के बाद वे विद्युत वाहन से कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे जहां पर 4000 से भी अधिक संख्या में श्रोतागण उन्हें सुनने के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे, जिनमें अधिकतर छात्र-छात्राएं थे ।
मंच पर श्रोताओं का अभिवादन करने के पश्चात् परमपावन ने दीप प्रज्जवलन कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया । उप-कुलपित डॉ आर.एस. भावा ने परमपावन का परिचय देते हुये कहा कि परमपावन एक वैश्विक आध्यात्मिक गुरु है जिन्होंने मस्तिष्क को एक मन्दिर और अच्छे मनोभाव को हमारे सुख का स्रोत बताया है ।
परमपावन ने सभी श्रोताओं को भाईयों और बहनों कहकर सम्बोधित किया और इस प्रकार सम्बोधित करने की उनकी आशय को स्पष्ट करते हुये उन्होंने कहा कि आज जो सात अरब मनुष्य जीवित हैं वे सब मानसिक, शारीरिक एवं भावनात्मक रूप से एक समान हैं । इस दृष्टि से सभी भाई और बहनें हैं ।
“हम सब सुखी जीवन जीना चाहते हैं और हमें सुखी जीवन जीने का अधिकार है । वैज्ञानिकों का कहना है कि एक सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य का करुणामय होना मानवीय स्वभाव है । मनुष्य होने के नाते हमें सह-अस्तित्व का अवबोधन होना चाहिए ताकि हम जीवित रह सकें ।”
“सभी धर्म मनुष्य से सम्बद्ध हैं और चूंकि उनका सम्बन्ध प्रेम और करुणा पर आधारित है इसलिए सभी धर्मों में समान रूप से प्रेम और करुणा का सन्देश है । दार्शनिक दृष्टिकोण से उनमें कुछ भिन्न पद्धतियाँ दिखाई देती हों, लेकिन वे सभी प्रेम का सन्देश देने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं ।”
“हमारे जन्म के समय हम अपनी मां की दया पर निर्भर होकर जीवित रहते हैं । बाद में हम किसी भी पेशे में हों या कोई सा भी पद हमें प्राप्त होता हो, हम उसी दया और ममता के सहारे जीवन व्यतीत करते हैं । इसलिए हमें प्रेम और करुणा जैसे मौलिक मानवीय मूल्यों को स्वयं में आत्मसात् करने के लिए प्रयास करनी चाहिए ।”
“दुख की बात है कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था भौतिक उद्देश्यों पर केन्द्रित है और मानवीय मूल्यों के लिए बहुत ही कम जगह है । भारत में वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पश्चिम की देन है, जहां पर अशांत मन को दूर करने की विधियों के बारे में अल्प ज्ञान था । भारत हज़ारों वर्षों से अहिंसा और करुणा के विषयों से परिचित है । यदि आप दूसरों का ख्याल रखते हैं, तो आप उनको कैसे हानि पहुंचा सकते हैं? इसलिए अहिंसा एक समुचित आचरण है और करुणा एक समुचित भावना । तथागत बुद्ध उनमें से एक हैं जिन्होंने इन मूल्यों की देशना की थी ।”
“आज के युग में भौतिक संसाधनों के बावजूद भी बहुत सारे लोग मन की शांति से वंचित हैं । और इस अशांति का कारण क्रोध, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा हैं जिन्हें अहिंसा और करुणा से दूर किया जा सकता है । यही कारण है कि मैं भारतीय प्राचीन ज्ञान परम्परा को आज भी प्रासंगिक समझता हूँ । हम निष्पक्ष और धर्मनिरपेक्ष रूप से भारतीय ज्ञान के स्रोतों से क्रोध को शांत करने और मन की शांति प्राप्त करने की विधियों को सीख सकते हैं ।”
“आठवीं शताब्दी में आचार्य शांतरक्षित ने तिब्बत में नालन्दा की ज्ञान परम्परा को स्थापित किया था तब से लेकर आज तक हम तिब्बतियों ने इस परम्परा को जीवित रखा है । नालन्दा परम्परा तर्क और हेतुओं पर बल देता है तथा मन और भावनाओं की व्यवस्थित क्रियाशैली को बताती है । मैं भी एक साधारण मनुष्य हूँ और एक तिब्बती और बौद्ध होने के नाते, मैं भी इसी परम्परा का शिष्य हूँ । हम नालन्दा आचार्यों द्वारा विरचित मूल ग्रन्थों को कण्ठस्थ करते हैं तथा तर्क और हेतुओं पर आधारित कर भारतीय शास्त्रों एवं तिब्बती टिकाओं का अध्ययन करते हैं । यही नहीं उसके बाद जिन शास्त्रों का हमने अध्ययन किया है उन विषयों के बारे में एक-दूसरे के साथ शास्त्रार्थ करते हैं ।”
“निर्वासन मे आने के बाद जब मैंने यूरोप, अमेरिका और सोवियत युनियन की यात्राएं की । और उस दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि हमने जिस ज्ञान को आज तक संजोकर रखा है उसका आज भी प्रासंगिकता है और दुनिया को इसकी आवश्यकता है । हालांकि, यह ज्ञान भारत से ही आया है, लेकिन आधुनिक भारतीयों ने इस प्राचीन ज्ञान की उपेक्षा की है । आधुनिक शिक्षा व्यवस्था मन की शांति लाने के लिए पर्याप्त नहीं है, लेकिन मुझे विश्वास है कि भारत में यह दक्षता है कि वह इस आधुनिक शिक्षा को मन और भावनाओं के प्राचीन ज्ञान से जोड़ सकता है, जिससे परम शांत अवस्था को प्राप्त किया जा सके ।”
“आज आप गुरु नानक देव जी की 550वीं जयंती मना रहे हैं, उन्होंने अहिंसा और धार्मिक सहिष्णुता के आचरण से लोगों को प्रेरित किया था । वे एक हिन्दू थे फिर भी उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता और परस्पर आदरभाव पर ज़ोर देने के लिए मक्का की तीर्थ यात्रा की थी ।”
“मैंने यह देखा है सिख समुदाय के लोग अत्यन्त परिश्रमी होते हैं तथा वे उदार भाव से एक-दूसरे का सहयोग करते हैं, जिस कारण सिख समुदाय में कोई बिखारी दिखाई नहीं देते हैं । यह बहुत ही अच्छे गुण हैं, इससे हमें सीखने की ज़रुरत है ।”
परमपावन ने कहा कि वे यहां पर प्रफुल्लित युवाओं से मिलकर अत्यन्त खुश हैं, जिनके हाथों में आने वाला भविष्य होगा । उन्होंने युवाओं से ज़ोर देकर कहा कि वे समाज में एक सकारात्मक बदलाव के लिए प्रयत्न करें जिससे अमीर और गरीब के बीच की खाई को दूर किया सके और जातीवाद को जड़ से समाप्त किया जा सके । तथागत गौतम बुद्ध एवं गुरु नानक देव जी ने भी इसी कार्य को किया था ।
पर्यावरण से जुड़े एक प्रश्न का उत्तर देते हुये परमपावन ने कहा “हम जीवाश्म ईंधन का प्रयोग करना छोड़कर अक्षय उर्जा के स्रोतों का उपभोग कर सकते हैं । हमारी जीवनशैली से भूमंडलीय ऊष्मीकरण में वृद्धि हो रही है जो इस धरती के जीवन को कम कर रहा है । हमें इसके लिए ठोस कदम उठाने होंगे।”
चण्डीगढ़ विश्वविद्यालय की ओर से परमपावन को ग्लोबल लीडरशिप पुरस्कार से सम्मानित किया गया जिसके लिए उन्हें गुरु नानक देव जी का चित्र उकेरे हुये एक पीतल का प्लेट तथा छात्रों द्वारा बनाये गये परमपावन की चित्र भेंट की गयी ।
धन्यवाद ज्ञापन देते हुये श्री डी.पी. सिंह ने कहा कि परमपावन एक ऐसे महान व्यक्तित्व हैं जो अपनी उर्जा से लाखों लोगों को सकारात्मक परिवर्तन के लिए एकजुट करते हैं । उन्होंने परमपावन को विश्वविद्याल में पधारने के लिए धन्यवाद किया । उसके बाद परमपावन ने उनके यहां पधारने के यादगार में अकेडेमिक ब्लॉक के सामने पौधारोपण किया ।
परमपावन ने कुलपति, उप-कुलपति एवं विश्वविद्यालय के अन्य सदस्यों के साथ दोपहर का भोजन किया । उसके उपरान्त जब वे प्रस्थान के लिए निकले तो उनको विदाई देने के लिए छात्रों का सैलाब उमड़ पड़ा । परमपावन ने मुस्कराते तथा हाथ हिलाते हुये परिसर से विदा लिया । विश्वविद्यालय से वे सड़क मार्ग द्वारा पंजाब की सीमा पर स्थित नगल पहुंचे जहां उन्होंने सन् 1956 में अपनी भारत भ्रमण के दौरान एक रात बिताया था । परमपावन कल सुबह धर्मशाला लौट जायेंगे ।