थेगछेन छोएलिङ, धर्मशाला, हि. प्र. – आज सुबह थाई बौद्ध भिक्षुओं द्वारा पाली मे ‘मंगल सुत्त’ का पाठ के बाद इण्डोनेशियाई साधारण-जन ने अपनी भाषा में ‘हृदय सूत्र’ का पाठ किया । इसके पश्चात् परमपावन दलाई लामा ने प्रवचन प्रारम्भ करते हुये कहा –
“आज प्रवचन का अन्तिम दिन है । मैं विचार कर रहा था कि यदि हम बोधिचित्तोत्पाद विधि को अन्त में रखेंगे तो यह मंगल समापन कि दृष्टि से अच्छा होगा । चूंकि आचार्य नागार्जुन के इस ग्रन्थ का विषय बहुत ही व्यापक और पेचीदा है, इसलिए मैं आप लोगों को आचार्य च़ोङखापा द्वारा विरचित ‘प्रधान त्रिविध मार्ग’ पर प्रवचन दूंगा जिसका सरलता से साधना में प्रयोग किया जा सकता है ।”
“आचार्य अतिश दीपंकर श्रीज्ञान के तिब्बत में आने के बाद उन्होंने वहां कादाम परम्परा की शुरुआत की । इस परम्परा में त्रिपिटक के सम्पूर्ण विषयों को लघु, मध्यम तथा तीक्ष्ण – इन तीन स्तर की बुद्धि क्षमता वाले लोगों के लिए साधना की शिक्षाओं और निर्देशों को बताया गया है । जे-च़ोंखापा ने बोधिपथक्रम के दीर्घ, मध्यम और लघु ग्रन्थ तथा ‘पथक्रम आध्यत्मिक-अनुभव गीत’ की रचना के उपरान्त ‘प्रधान-त्रिविधमार्ग’ नामक इस ग्रन्थ की रचना की थी । उन्होंने पूर्वी तिब्बत ज्ञालमोरोङ के राजनेता तथा उनके प्रिय शिष्य छ़ाको वोन्पो ङावाङ डाक्पा के अनुरोध पर इस ग्रन्थ की रचना की । इसे प्रतिदिन पढ़ने पर बहुत लाभ मिलता है ।”
परमपावन ने ‘बोधिचित्त विवरण’ ग्रन्थ को हाथ में धारण कर कल जहां पर रुके थे वहां से आगे के श्लोकों को पढ़ना प्रारम्भ किया । ये श्लोक प्रतीत्यसमुत्पाद के बारह अंग से सम्बन्धित थे । उन्होंने कहा कि माध्यमिक उच्छेदवादी नहीं हैं, माध्यमिकों को उच्छेदवादी कहने वालों का खण्डन करते हुये आचार्य नागार्जुन ने कहा है कि वस्तुओं की सत्ता स्वप्न और माया जैसी है । सांवृत्तिक और परमार्थ एक ही स्वभाव के हैं – एक के बिना दूसरा का होना सम्भव नहीं है । वस्तुओं का स्वतंत्र सत्ता को मानना अज्ञानता है । यह एक मिथ्या दृष्टि है ।
श्लोक 74 से जब परमपावन सांवृत्तिक बोधिचित्त का उल्लेख कर रहे थे तो उन्होंने कहा जब आप बोधिचित्त उत्पन्न करते हैं तब आपमें दूसरों की सहायता करने के लिए साहस का संचार होने लगता है । हमारे अपने स्वयं के उद्देश्यों की पूर्ति तथा दूसरों की भलाई के लिए बोधिचित्त से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है ।
परमपावन ने ‘प्रधान-त्रिविधमार्ग’ ग्रन्थ पर व्याख्यान देते हुये कहा कि आचार्य च़ोङखापा ने इसे ङावाङ डाक्पा को एक पत्र स्वरूप भेजा था । उन्होंने इस पत्र के साथ भेजे गये एक टिप्पणी में उन्हें इस ग्रन्थ में विर्णित निर्देशों का पालन कर अच्छी तरह से साधना करने के लिए कहा था । परमपावन ने गुरु के बारे में उल्लेख करते हुये कहा-
“इस जगत में अधिकांश विषयों को सीखने के लिए एक गुरु की आवश्यकता होती है, इसी प्रकार धर्म को जानने के लिए भी होती है । आचार्य च़ोङखापा ने ‘दीर्घ बोधिपथक्रम’ में स्पष्ट किया है कि जब तक आप स्वयं को वश में नहीं करते हैं तब तक आप दूसरों को अनुशासित नहीं कर पायेंगे । हमे भगवान बुद्ध द्वारा उपदेशित देशना- शील, समाधि और प्रज्ञा का अनुसरण करना चाहिए । ‘दीर्घ बोधिपथक्रम’ में उन्होंने गुरु की शिक्षाओं को आधारित बनाकर गुरु का परिक्षण करने के लिए कहा है । गुरु के प्रति श्रद्धावान होना अच्छी बात है, लेकिन शिष्य को अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि कभी-कभी गुरु से भी गलतियां हो जाती है । हमें इस धारणा पर विचार करना चाहिए कि जिसमें हम यह समझते हैं कि गुरु जो भी करते हैं शुद्ध भावना से करते हैं ।”
“मोक्ष की प्राप्ति के लिए हमें क्लेशों का दमन करना होगा । हमें अध्ययन, चिंतन और भावना करनी होगी, मात्र श्रद्धा, प्रार्थना और पूजा-पाठ से यह सम्भव नहीं है । हमें अज्ञान रूपी भ्रांतियों को समूल नाश करना होगा । यदि बोधिचित्त के प्रति हमें कुछ समय के लिए भी विश्वास हो जाये तो उससे हमें अपार सुख की अनुभूति होती है ।”
“आचार्य च़ोङखापा द्वारा विरचित ‘प्रधान त्रिविध मार्ग’ का यह ग्रन्थ मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रतिबद्धता, बोधिचित्त और सम्यक् दृष्टि को प्रतिपादित करता है तथा इन्हें साधना में किस प्रकार प्रयुक्त करना है और उसका प्रतिफल किस प्रकार होता है, इसके बारे में पथ-प्रदर्शन करता है । यह ग्रन्थ हमें इस मूल्यवान जीवन का सदुपयोग करने और अनित्यता, मृत्यु की निश्चितता एवं इसकी अनिश्चितता के बारे में विचार करने के लिए प्रोत्साहित करता है । मृत्यु के समय जो हमारा परिचित होगा वह केवल धर्म का आचरण ही होगा ।”
“नेगी रिन्पोछे जब मुझे बोधिचर्यावतार की व्याख्यान दे रहे थे तब उन्होंने मुझसे कहा कि बोधिचित्त के विषय में जानने के लिए ‘बोधिचर्यावतार’ से बढ़कर कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है । आचार्य नागार्जुन ने रत्नावली में कुछ प्रेरणा प्रदायक श्लोंकों को लिखा है, यथा-
भूमि, जल, अग्नि एवं वायु
औषधि तथा वन की लकड़ी की भाँति ।
ऐसा करें कि मेरा कुछ क्षण के लिए भी
सत्त्वों के इच्छानुसार उपभोग हो ।
प्राणी मुझे प्राण सदृश प्रिय लगें,
मुझसे भी वे अधिक प्रिय लगें
उनका पाप मुझमें विपाक हो और
मेरे पुण्यों का उनमें विपाक हो ।
जब तक एक भी प्राणी
जहां पर मुक्त न हुआ हो तब तक ।
उस प्राणि के लिए अनुत्तर
बोधि की प्राप्ति होने पर भी स्थित रहूं ।”
“इस ग्रन्थ का 9वां श्लोक इस विषय को स्पष्ट करता है कि शून्यता को जानने वाली प्रज्ञा के बिना संसार के जड़ को समूल नाश नहीं किया जा सकता है । आचार्य नागार्जुन का अनुसरण करते हुये जे-रिन्पोछे ने समझाया है कि प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है । प्रतीत्यसमुत्पाद को हेतु-फल, आधार और आधेय, उपचारित मात्र या कल्पित मात्र के विचारों से समझा जा सकता है ।”
“यदि हेतु और फल की प्रक्रिया को जान जायेंगे तो आधार एवं आधेय, तथा वस्तुओं की उपचारित मात्र की सत्ता को जान जायेंगे । जब आप हेतु और फल को शून्यता की दृष्टि से समझेंगे तो आप शाश्वतान्त से मुक्त हो जायेंगे । यदि आप ऐसा करते हैं तो बुद्ध को प्रसन्न करने वाले मार्ग पर अग्रसर होंगे ।”
परमपावन ने बोधिचित्तोत्पाद की विधि प्रारम्भ की और अन्त में उन्होंने उपस्थित श्रद्धालुओं को बुद्ध, अवलोकितेश्वर, मञ्जुश्री और आर्यतारा के मूलमंत्रों का मुखागम प्रदान किया । परमपावन ने इसके बाद कहा-
“इसी के साथ प्रवचन पूर्ण हो गया है, अब मैं अगले वर्ष मिलने की आशा कर रहा हूँ ।” सभी श्रद्धालुओं ने तालियां बजाया ।
इस प्रवचन के मुख्य शिष्य एशियाई देशों के 38 समूह के सदस्यगण परमपावन के सिंहासन के समीप आकर उनके साथ फोटो लिया । उसके बाद परमपावन मुख्य तिब्बती मन्दिर के नीचे तल तक चलकर आये जहां पर उनकी कार खड़ी थी । वे लोगों की ओर मुस्कुराते हुये तथा हाथ हिलाते हुये अपने निवास स्थान के लिए लौट गये ।