थेगछेन छोएलिङ, धर्मशाला, हि. प्र. – पालि भाषा में ‘मंगल सुत्त’ और चीनी भाषा में ‘हृदय सूत्र’ पाठ के बाद परमपावन दलाई लामा ने चीनी बौद्धों द्वारा पाठ के बाद में जोड़े गये एक श्लोक की व्याख्या करते हुये कहा-
त्रिविष क्लेषों का नाश हो,
ज्ञान ज्योति का प्रकाश हो,
आन्तरिक और बाह्य बाधाएं न रहें,
और हम बोधिसत्त्व आचरण में प्रवृत्त हों।
“सभी आध्यात्मिक परम्पराएं हमें दूसरों को हानि न पहुंचाने तथा हानिकारक भावनाओं का शिकार न बनने के लिये प्रोत्साहित करते हैं । हमारा मन क्लेशों द्वारा अपरिवर्तनीय रूप से कलुषित नहीं हुआ है, बल्कि अनन्तकाल से यह तीन प्रकार के विषों का आदी हो गया है । इसलिए इन त्रिविषों को प्रज्ञा द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है । और प्रज्ञा को प्रबल बनाने के लिए शमथ साधना की आवश्यकता होती है जो शील पालन पर आधारित है ।”
“यहां यह स्पष्ट है कि क्लेशों को दूर करने के लिए शील, समाधि और प्रज्ञा को आत्मसात करना होगा तथा इन्हें सुदृढ़ एवं इनकी अभिवृद्धि के लिये बोधिचित्त उत्पन्न करना होगा । इसके लिए हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग एवं प्रयास करते रहना होगा ।”
“बुद्ध वे हैं जिन्होंने सभी दोषों और कमियों को दूर किया है । बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए प्रज्ञा और बोधिचित्त की आवश्यकता होती है । कारुणिक चित्त बुद्धत्व प्राप्ति का मूल आधार है जिससे बुद्धत्व प्राप्ति तथा इसकी सम्भाव्यता के प्रति एक निष्ठाभाव जागृत होती है ।”
“बुद्धत्व में धर्मकाय और रूपकाय की प्राप्ति होती है जो प्रज्ञा और पुण्यों के संचयन से क्रमशः प्राप्त होती है । बोधिचित्तोत्पाद और शून्यता को जानने वाली प्रज्ञा ही धर्म के सार हैं । इनकी साधना से न केवल बुद्धत्व तक पहुंचा जा सकता है, बल्कि दैनिक जीवन में भी ये अत्यन्त उपयोगी हैं । जैसा कि आचार्य शान्तिदेव बोधिचर्यावतार में कहते हैं- इस लोक में जितने भी सुख हैं, वे सब दूसरों की सुखेच्छा से उत्पन्न हुआ है ।
इस लोक में जितने भी दुःख हैं, वे सब स्वयं की सुखेच्छा से उत्पन्न हुआ है ।
यदि मेरे सुख और दूसरों के दुःख को,
सम्यक् रूप से परिवर्तन नहीं करता हूँ ।
तो, बुद्धत्व की प्राप्ति नहीं होगी और,
संसार में भी सुख का अनुभव नहीं होगा । यदि हम स्वार्थी बनें रहते हैं तो हमें इसी जीवन में विभिन्न प्रकार की विपत्तियों का सामना करना पड़ सकता है । हम स्वयं को जितना हो सके दूसरों के लिये समर्पित करेंगे उतना ही हम सुखी जीवन जियेंगे । स्वार्थता एक संकीर्ण तथा अदूरदर्शी विचार है । दुनिया के सभी सात अरब लोग सुख चाहते हैं एवं दुःख भोगना नहीं चाहते, लेकिन हम अपने समस्याओं को स्वयं बनाते हैं । यदि हम वैसे होते जैसे हम बचपन में थे तो आज यह दुनिया शांतमय होता । लेकिन जैसे ही हम बड़े हो जाते हैं, हम गणना करने और भेदभाव करने में लग जाते हैं, जो अत्यन्त दुखद है । ”
“आज दुनिया में देखिये, जितने भी हिंसक संघर्ष हो रहे हैं वे सब स्वार्थपूर्ण आचरणों का परिणाम है। इस प्रकार युद्ध का तंत्रजाल एक सामंती विचारधारा से उत्पन्न हुआ है । फौजियों को अपनी जान प्रिय होने के बावजूद भी वे दूसरों के साथ लड़ते हैं, मारते हैं और मरते हैं, क्योंकि उन्हें ऐसा करने के लिए आदेश दिया जाता है । परम्परागत रूप से ये आदेश राजा और ज़मीदार देते थे जो एक भेदभावपूर्ण विचारों पर आधारित था ।”
“यदि हम अपने दैनिक जीवन में नकारात्मक व्यवहार, जैसा कि दूसरों को तंग करना, हानि पहुंचाना इत्यादि को त्यागकर बोधिचित्त उत्पन्न करते हैं तो इससे हमें आत्मसन्तुष्टि मिलती है । हमारा स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है और समाज में लोग हमसे मैत्रीपर्ण व्यवहार करते हैं । आचार्य नागार्जुन द्वारा विरचित रत्नावली ग्रन्थ में सन्दर्भित अभ्युदय की प्राप्ति का मुख्य कारण भी दूसरों का जितना हो सके सहयोग करना है । स्वयं को दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित करने से आत्मविश्वास और बल मिलता है ।
परमपावन ने उल्लेख किया कि जब तथागत गौतम बुद्ध ने चार आर्यसत्य - दुखः, दुःख की उत्पत्ति, निरोध और निरोधगामी मार्ग की देशना की थी तब उन्होंने पुद्गल नैरात्मय की भी देशना की थी । बाद में जब उन्होंने प्रज्ञापारमिता की देशनाएं की तब उन्होंने न केवल पुद्गल नैरात्मय अपितु उसके आधारभूत काय-चित्त को भी स्वाभावतः असिद्ध प्रतिपादित किया, जो धर्म नैरात्मय को दर्शाता है ।
परमपावन ने ध्यानाकर्षित करते हुये कहा कि चित्त संतति आत्मा को आरोपित करने का आधार है और चित्तमात्र दर्शनवादियों के लिए यही आलयविज्ञान है । चित्तमात्र चित्त की सत्ता स्वीकारते हैं जबकि बाह्यार्थ का खण्डन करते हैं । माध्यमिक दर्शनवादी किसी भी पदार्थ की स्वाभाविक सत्ता नहीं मानते हैं, चित्त का भी नहीं । सभी पदार्थ प्रज्ञप्तिसत मानते हैं । माध्यमिकों में भी स्वातन्त्रिक माध्यमिक विषयी सत्ता स्वीकार्यता का तर्क देते हैं और वह भी चित्त से सम्बन्ध में सम्भव होगा । आचार्य चन्द्रकीर्ति मध्यमकावतार ग्रन्थ में प्रासंगिक माध्यमिकों के सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुये कहते हैं, हम बाह्य और आन्तरिक दोनों का विषयी सत्ता को स्वीकार नहीं सकते हैं, यदि ऐसा होगा तो युक्ति दोष आ जायेगा । बौद्ध दर्शन के अध्ययन में नेयार्थ और नीतार्थ के अर्थों को विभाजित करना आना चाहिए । तथागत बुद्ध ने तीसरे धर्मचक्र प्रवर्तन के सन्धिनिर्मोचन सूत्र में कहा है कि प्रथम और द्वितीय धर्मचक्र प्रवर्तन नेयार्थ को सन्दर्भित करता है जबकि तृतीय धर्मचक्र प्रवर्तन नीतार्थ है । बुद्ध ने दूसरे धर्मचक्र प्रवर्तन में विषय की प्रभास्वरता पर देशना करने के बाद तीसरे धर्मचक्र प्रवर्तन में विषयी प्रभास्वरता की देशना की । बुद्ध के तीनों प्रवचनों के विषय- चार आर्यसत्य, प्रज्ञापारमिता, बुद्धगोत्र, चित्त की प्रभास्वरता, ये सब हमें, जिस प्रकार हम पर्वत पर चढ़ने के बाद उसकी चोटी पर पहुंचते हैं उसी प्रकार बुद्धत्व की ओर अग्रसर करते हैं । बुद्ध ने बोधगया में बोधि ज्ञान की प्राप्ति के बाद इस प्रकार कहा - ‘गम्भीर एवं शांत, सभी प्रपञ्चों से रहित, असंस्कृत प्रभास्वर, मैंने अमृत रूपी धर्म का अधिगम किया है । यदि मैं इस धर्म की देशना करता हूँ तो कोई भी इसे समझ नहीं पायेगा । इसलिए मैं यहीं इस वन में मौन धारण किये रहता हूँ ।’ हम इस श्लोक को बुद्ध द्वारा भविष्य में उनके द्वारा दिये जाने वाले तीन धर्मचक्र प्रवर्तनों का पुर्वानुमान कथन स्वरूप समझ सकते हैं । ‘गम्भीर एवं शांत’ बुद्ध के प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन को निर्दिष्ट है जबकी ‘सभी प्रपञ्चों से रहित’ द्वितीय धर्मचक्र प्रवर्तन के विषय से सम्बन्धित है एवं ‘असंस्कृत प्रभास्वर’ तृतीय धर्मचक्र प्रवर्तन से सम्बन्धित है ।
परमपावन ने रत्नावली ग्रन्थ को पढ़ते हुये कहा कि यहां ये श्लोक दस अकुशल कर्मों से दूर रहने तथा अन्य छः कार्यों को न करने की ओर इंगित करता है, जिसमें नशा न करना भी है । अभ्युदय पद के अन्तर्गत, मनुष्य जीवन जो अत्यन्त ही मंगलकारी एवं स्वतंत्र है, निःश्रेयस की प्राप्ति का आधार है ।
परमपावन आज के लिए यहीं पर रुके और श्रद्धालुओं से कहा कि वे कल प्रथम परिच्छेद के शेष श्लोकों को पढ़ेंगे । कल वे बोधिचित्तोत्पाद संवर प्रदान करेंगे और महामयूरी अनुज्ञा देंगे जो चीनी और जापानी बौद्धों में अत्यन्त प्रसिद्ध है ।