थेगछेन छोएलिङ, धर्मशाला, हि. प्र. – आज सुबह परमपावन दलाई लामा अपने आवास से मुख्य तिब्बती मन्दिर की ओर आते समय मार्ग में विभिन्न लोगों से मिले । मन्दिर के प्रांगण में लोग परमपावन की एक झलक पाने के लिए आतुर थे । परमपावन ने किसी का ज़ोर से हाथ पकड़ा, तो किसी के साथ बातचीत की, कुछ बच्चों को उनके गाल पर हाथ रखकर दुलारा, तो किसी से माथा मिलाकर अभिवादन किया ।
“सबसे पहले मैं रत्नावली ग्रन्थ का प्रथम परिच्छेद पढ़ता हूँ । यह परिच्छेद सुगति के हेतुओं के विषय में बताता है जिसके बारे में जानना अत्यन्त आवश्यक है । क्योंकि सुगति की प्राप्ति के बिना बुरे और अच्छे का भेद करने वाली विवेकशील बुद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती है । हम मनुष्यों के पास एक अद्भुत मस्तिष्क है, इसीलिए मानव जीवन अमूल्य है । तथापि, हमें निःश्रेयस प्राप्ति का लक्ष्य रखना चाहिए, क्योंकि अभ्युदय में उपलब्ध सुविधाएं भी कर्म और मोह के अधीन हैं, जिससे हमें दुःख ही मिलती है ।”
“पुण्यों का संचयन मात्र पर्याप्त नहीं है, हमें अविद्या को भी दूर करना होगा । तथागत गौतम बुद्ध ने जब दुखः, समुदय, निरोध और निरोधगामी मार्ग की देशना की थी तब उन्होंने हमारे मन के दोषों को दूर करने की भी विधियां बतायी थी । हम पदार्थों की वास्तविक स्वभाव को समझकर क्लेश एवं कलुषित बुद्धिमत्ता का परिहार कर सकते हैं ।”
“बाहरी रूप हमें अपनी ओर से ठोस, स्वतंत्र सत्तात्मक दिखाई देते हैं, लेकिन इनका विश्लेषण करने पर समझ आता है कि वे वास्तव में ऐसे नहीं हैं । निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए हमें वास्तविक स्वभाव को समझना ज़रुरी है । हम सम्यक् दृष्टि से जितना अधिक पदार्थों की स्वभाव पर गहन शोध करेंगे उतना ही हम उसके मूल तत्व को समझेंगे । जो भी पदार्थ हमें दिखाई देते हैं उनका कोई स्वाभाविक सत्ता नहीं होती है और अन्तिम सत्य यही है कि जिस प्रकार बादल आकाश-शून्य में विघटित हो जाता है उसी प्रकार सभी पदार्थ शून्यता या तथता में विलय हो जाते हैं । विश्लेषण करने पर स्वाभाविक सत्ता पूरी तरह से विलुप्त हो जाता है, जिससे हम यह कह नहीं सकते कि ‘यह वह है’ । शून्यता में ध्यानमग्न रहना परम आनन्द में विचरण करने जैसा होता है ।”
“हमारे जीवन की सारी विपत्तियां हमारे इस असयंमित एवं चंचल मन के कारण घटित होते हैं । अज्ञानता ही हमारे मन के क्लेशों का जड़ है, जो वास्तविकता के प्रति भ्रमित है । इस भ्रम को दूर करने पर हमारे सारे क्लेशों का अन्त हो जाता है । जैसा कि आचार्य आर्यदेव चतुशतक में कहते हैं –
जिस तरह कायेन्द्रिय पूरे शरीर में मौजूद है,
उसी तरह अज्ञानता सभी में रहती है ।
इसलिए सभी क्लेश भी,
अज्ञानता के उन्मूलन से दूर हो जाती हैं ।
अज्ञानता के उन्मूलन के लिए हमें प्रतीत्यसमुत्पाद को समझना होगा । आचार्य नागार्जुन एवं उनके शिष्यों ने शून्यता का प्रतिपादन करते हुये प्रतीत्यसमुत्पाद की व्याख्या की, क्योंकि प्रतीत्यसमुत्पाद से ही दो अन्तों का तत्काल उच्छेदन होता है ।”
“हम जब किसी का निषेध करते हैं तो हमें यह जानना अति आवश्यक होता है कि वह निषेध्य वस्तु क्या है । जैसा कि चांक्या रोल्पाई दोर्जे कहते हैं “हमारे इस सिद्धांत को मानने वाले लोग शून्यता की बात तो करते हैं, लेकिन कहीं न कहीं वे विषय के सत्ता पर आसक्त रहते हैं ।” सातवें दलाई लामा ने लिखा है कि हम सभी प्रकार के वस्तुओं को देखते हैं, जैसा कि घोड़े इत्यादि, लेकिन वे जैसा हमें आभासित होते हैं वैसा नहीं होते हैं । हमें जो ठोस, स्वतन्त्र विषय दिखाई देता है वही यहां निषेध्य-धर्म है ।”
परमपावन ने प्रथम परिच्छेद का सार प्रस्तुत करते हुये इस सुप्रसिद्ध श्लोक को कहा-
जब तक स्कन्ध-ग्राह्य है,
तब तक उसमें अहंकार है ।
अहंकार होने से पुनः कर्म होता है ।
उससे पुनः जन्म होता है ।
उन्होंने आगे कहा कि शून्यता को समझने में स्थूल और सूक्ष्म स्तर की बुद्धि होती है । प्रथम-भूमि प्राप्त बोधिसत्त्व शून्यता का प्रत्यक्ष बोध करते हैं, लेकिन वे श्रावकयानी आर्यों को सातवीं-भूमि प्राप्त होने पर अभिभूत करते हैं । परमपावन ने श्रोताओं से कहा-
“मैंने आप लोगों को इस ग्रन्थ का सार बता दिया है । आप लोगों के पास यह ग्रन्थ है इसलिए आप स्वयं इसे पढ़कर अध्ययन कर सकते हैं । लेकिन इस ग्रन्थ को पढ़ने के बाद आपमें परिवर्तन आये या न आये यह आपके अपने हाथों में है । यह हम लोगों के बाज़ार में जाने जैसा है, बाज़ार में बिक्री के लिए अनेक वस्तुएं पड़ी होती है लेकिन उसे खरीदारी करना या न करना आपके ऊपर निर्भर है । तथागत बुद्ध ने कहा है “मैंने तुम्हें मार्ग दिखाया है, लेकिन मुक्ति तुम्हारे अपने हाथों में है ।” आचार्य नागार्जुन ने अनेक श्रेष्ठतम टीकाओं की रचना की है । उन ग्रन्थों का बारम्बार अध्ययन करें तथा उस पर चिंतन करें ।”
“मैंने तागडाग रिन्पोछे से कहा कि बोधिचित्त उत्पन्न करना अत्यन्त कठिन है । लेकिन उन्होंने मुझे इसकी साधना में डटे रहने के लिए कहा तथा आश्वस्त किया कि बोधिचित्त की अनुभूति होती है । निर्वासन में आने के बाद मैं इसके विषय में अध्ययन कर पाया, ध्यान-साधना कर सका और मुझे लगता है कि इसे फलीभूत किया जा सकता है यदि मुझे एकांतवास में रहने का समय मिल जाये । प्रथम दलाई लामा ज्ञालवा गेदुनडुब ने कहा था कि यदि वे एकांतवास में रहते तो उन्हें उच्च स्तरीय ज्ञान की प्राप्ति होती । लेकिन उन्होंने उस विकल्प को त्याग दिया और टाशी ल्हुन्पो मठ की स्थापना की तथा जनकल्याणकारी कार्यों में लगे रहे । मैं भी बोधिचित्त और शून्यता का अध्ययन अध्यापन कर उनका अनुसरण करने का प्रयास कर रहा हूँ ।
परमपावन ने अपनी चार प्रतिबद्धताओं को रेखांकित करते हुये कहा कि एक मनुष्य होने के नाते मैं इस विचार को दूसरों को स्मरण दिलाने के लिए प्रतिबद्ध हूँ कि हम सब एक सामाजिक प्राणी हैं और इसलिए हमें करुणा की ज़रुरत है । हम सब सुखी जीवन चाहते हैं, और दयावान होने से स्वयं और दूसरों के लिए लाभप्रद है । उन्होंने उल्लेख किया कि वे धार्मिक सम्प्रदायों के मध्य धार्मिक सद्भाव एवं आदर को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहे हैं । ये धार्मिक परम्पराएं दार्शनिक सिद्धान्तों में अलग-अलग मत रखते हों लेकिन सभी का प्रयोजन प्रेम और करुणा को आत्मसात करना है ।
एक तिब्बती होने तथा दलाई लामा नामधारक होने के नाते तिब्बत के लोगों का उनमें आशा और विश्वास है । हालांकि उन्होंने सभी प्रकार की राजनीतिक सहभागिता से सन्यास ले लिया है, फिर भी वे तिब्बत के नाज़ुक पर्यावरण के संरक्षण के विषय में दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं । वे तिब्बत में आचार्य शांतरक्षित द्वारा आठवीं शताब्दी में स्थापित किये गये नालन्दा परम्परा को संरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं जिसे तिब्बतियों ने आज तक जीवित रखा है ।
आचार्य शान्तरक्षित ने सलाह दी थी कि चूंकि हमारे पास अपनी भाषा और लेखन है, इसलिए भारतीय बौद्ध साहित्यों का तिब्बती भाषा में अनुवाद करना चाहिए जिससे तिब्बती अपनी भाषा में अध्ययन कर सके । तिब्बती में अनुवाद करने के क्रम में तिब्बती भाषा भी समृद्ध हुयी है । आजकल चीनी अधिकारी तिब्बती भाषा को तिब्बती पहचान के साथ जोडकर देख रहे हैं और वे तिब्बती भाषा का दोहन करने में लगे हुये हैं । यहां निर्वासन में भारत सरकार के सहयोग से तिब्बतियों ने नये स्कूलों का निर्माण किया है तथा मठों का पुनर्स्थापना कर उन्हें एक अध्ययन केन्द्र के रूप में विकसित किया है ।
अन्त में परमपावन ने महामयूरी की अनुज्ञा प्रदान किया जो पञ्चरक्षक के नाम से विख्यात पञ्चदेवियों में से एक हैं तथा चीन और जापान में अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । अनुज्ञा अनुष्ठान के क्रम में उन्होंने बोधिचितोत्पाद अनुष्ठान भी किया ।
“पिछले तीन दिनों में हमने रत्नवाली ग्रन्थ पर ध्यान केन्द्रित किया । मुझे आशा है कि आप लोगों ने यहां जो सुना है वह आपके लिए कल्याणकारी होगी । हालांकि मैं देवयोग साधना करता हूँ, तथापि मेरी मुख्य साधना बोधिचित्त उत्पन्न करना तथा शून्यता को जानने वाली बुद्धि का विकास करना है । कभी-कभी मुझे ऐसे सपने भी आते हैं जिसमें मैं लोगों को बोधिचित्त का देशना कर रहा होता हूँ । जिस तरह तिब्बतियों ने आचार्य शान्तरक्षित द्वारा स्थापित ज्ञान का अध्ययन किया, उसी तरह आप लोग भी इसके अध्ययन द्वारा अपनी समझ को गम्भीरता देने की प्रयास करें ।”
चीनी अनुयायियों ने परमपावन के गुरुद्वय लिंङ रिन्पोछे एवं ठीजाङ रिन्पोछे द्वारा विरचित परमपावन की दीर्घायु प्रार्थना का चीनी भाषा में पाठ करने के साथ इस प्रवचन श्रृंखला का अन्त हुआ । परमपावन शिष्यों के साथ फोटो लेने के उपरान्त मंदिर से नीचे प्रांगण तक गए जहां से वे गाड़ी में दोपहर भोजन के लिए अपने आवास के लिए लौट गये ।