मुण्डगोड, कर्नाटक, भारत – आज सुबह डेपुङ लोसलिङ सभागार में 15,000 भिक्षु एवं भिक्षुणियां तथा 9500 अतिथिगण एवं अन्य लोग उपस्थित थे। वे सब यहां आचार्य आर्यदेव विरचित ‘माध्यमिक चुतुःशतक’ पर आयोजित संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र के लिए एकत्रित हुये थे।
परमपावन दलाई लामा के आसन ग्रहण करने के पश्चात् दार्दो टुल्कु ने संगोष्ठी का परिचय देते हुये कहा कि डेपुङ लोसलिङ कॉलेज तिब्बत के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान जे-च़ोङखापा के 600वीं परिनिर्वाण एवं ज्ञालछ़ाब दारमा रिन्छेन द्वारा गादेन में गद्दीनशीन होने के 600वीं वर्षगांठ तथा परमपावन दलाई लामा द्वारा गेशे ल्हाराम्पा उपाधि प्राप्ति के 60वें वर्षगांठ के तीन मंगल अवसरों के उपलक्ष्य में इस संगोष्ठी का आयोजन कर रहा है ।
डेपुङ लोसलिङ मठ के मठाधीश गेशे लोब्ज़ाङ सामतेन ने इस अवसर पर सभा को सम्बोधित करते हुये कहा कि परमपावन की दूरगामी दृष्टि और उनकी कृपा से सन् 1959 के बाद भारत में तिब्बत के शिक्षण संस्थाओं का पुनर्स्थापन संभव हो पाया है । उनके प्रवचन और शिक्षा से तिब्बत की समृद्ध संस्कृति का संरक्षण हुआ है । परमपावन सदैव भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों को गहन अध्ययन अध्यापन के लिए प्रेरित करते हैं जो आचार्य जे-च़ोखापा जी के कथनानुसार है-
पहले मैंने गहन अध्ययन किया ।
मध्य में सम्पूर्ण शास्त्रों पर आत्मचिंतन किया ।
अन्त में दिन-रात साधना में लीन रहा ।
इन सभी का शासनवृद्धि हेतु परिणामना किया ।
मठाधीश ने परमपावन की दीर्घायु की कामना करते हुये उद्बोधन समाप्त किया । इसके पश्चात् संगोष्ठी के प्रथम वक्ता ने आचार्य आर्यदेव रचित चतुःशतक ग्रन्थ के प्रथम अध्याय ‘नित्यग्राह परिहार के उपाय’ पर अपनी प्रस्तुति में प्रथम श्लोक को सन्दर्भित करते हुये कहा कि यदि मृत्यु को पराजय करने वाले विद्यमान हैं तथा मृत्युजाल से विमुक्त अर्हत और बोधिसत्व हैं, तो हम इनसे अवगत क्यों नहीं हैं । कहते हैं कि भगवान बुद्ध ने मृत्यु को पराजित किया था, तो 81 वर्ष की आयु में उनका देहावसान कैसे हुआ ।
दूसरे वक्ता ने इसी ग्रन्थ के दूसरे अध्याय ‘सुख में विपर्यास-दृष्टी का परिहार’ विषय पर बोलते हुये कहा कि हमारा शरीर एक शत्रु समान त्याज्य है क्योंकि यह दुःखमय है । इसलिए कहा गया है कि जो भी अनित्य हैं वे दुःखदायी हैं । उन्होंने रेखांकित किया कि हमारी मिथ्या धारणा के कारण ही हम अपने शरीर को नित्य और अनाश्रित समझते हैं।
इस संगोष्ठी का संचालन कर रहे गेशे येशे थापखे ने उपरोक्त वक्ताओं की प्रस्तुतियों पर विचार व्यक्त करते हुये कहा कि मृत्यु के बारे में विचार करने से हमें इसके प्रति भय से छुटकारा मिलता है । इस विचार के प्रगाढ़ होने पर, यदि हमें आज ही मरना पड़े तो भी बिना किसी पश्चाताप के मर सकते हैं । भगवान बुद्ध द्वारा अपने उपदेशों में मृत्यु के बारे में बार-बार कहने का तात्पर्य यही था कि हम मृत्यु के भय से मुक्त हों । सभी सास्रव (दुषित) पदार्थ दुःखमय हैं, इसलिए इनमें जितना सुख को ढूंढेंगे उतना ही हम असंतुष्ट होंगे ।
इसके पश्चात् संचालक ने परमपावन को इस संगोष्ठी के अध्यक्षीय उद्बोधन के लिए सादरपूर्वक आग्रह किया । परमपावन ने कहा “आचार्य आर्यदेव विरचित ‘माध्यमिक चुतुःशतक’ एक माध्यमिक ग्रन्थ है और इसका स्रोत प्रज्ञापारमिता सूत्र है जो प्रत्यक्ष रूप से शून्यता और अप्रत्यक्ष रूप से सन्मार्ग में प्रशस्त होने की देशना करती है ।”
“यहां इस बौद्ध विश्वविद्यालय में अध्ययन करने का लक्ष्य अध्ययन करने के उपरान्त विदेशों में जाना नहीं है बल्कि ‘हृदय सूत्र’ में जिस प्रकार उपदेश दिया गया है, “तद्यथा गते-गते पारगते पारसम्गते बोधि स्वाहा ।”, का अध्ययन कर पांच मार्ग में अग्रसर होना है । यहां पर गते-गते का यह शब्द सम्भार मार्ग, प्रयोग मार्ग तथा बोधिचित्त एवं शून्यता के प्रारम्भिक अनुभूति को इंगित करता है । पारगते का यह शब्द दर्शन मार्ग, शून्यता का सर्वप्रथम साक्षात् अवबोधन और प्रथम बोधिसत्व भूमि की प्राप्ति को इंगित करता है । पारसम्गते का यह शब्द भावना मार्ग और बोधिसत्व की अन्य भूमियों की प्राप्ति को इंगित करता है । बोधि स्वाहा का यह शब्द सम्यक निर्वाण के आधार सुनिश्चित करने को इंगित करता है ।
“यदि हमें सर्वज्ञता की प्राप्ति एकाएक न भी हो, हमें हमारे संकल्प में शिथिलता नहीं लानी चाहिए । हमारा लक्ष्य दर्शन मार्ग प्राप्त कर शून्यता का प्रत्यक्ष रूप से साक्षात्कार करना है ।”
“आचार्य नागार्जुन द्वारा विरचित मूलमध्यमककारिका और चतुःशतक एक दूसरे के परिपूरक ग्रन्थ हैं । आचार्य बुद्धपालित एवं भावविवेक इन विषयों के परम ज्ञाता हैं । आचार्य बुद्धपालित ने रेखांकित किया है, “यदि पदार्थ अपने आप सत्ता में हैं तो प्रतीत्यसमुत्पाद की क्या आवश्यकता है ।”
“आचार्य चन्द्रकीर्ति विरचित ‘मूलमाध्यमिक प्रसन्नपदा’ मूलमध्यमककारिका के प्रत्येक शब्दों की व्याख्या अत्यन्त स्पष्ट रूप से करती है । जब हम इन ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो हमारे दीर्घकालिक भ्रान्तियां नष्ट हो जाती हैं ।”
“आचार्य शांतिदेव ने कहा है कि ऐसे कोई भी चीज़ नहीं हैं जो अभ्यास करने पर आसान न हो जाये या जिससे हम अवगत न हो जायें । शून्यता को जानने वाली प्रज्ञा को हम स्वयं में जागृत कर सकते हैं तथा उससे अवगत हो सकते हैं । इसके विपरीत अज्ञानता का कोई सुदृढ़ आधार नहीं है । शून्यता को अपने अनुभव के बल पर जानना अत्यन्त आवश्यक है, केवल सूत्रों के शाब्दिक ज्ञान पर्याप्त नहीं है । यह अनुभव और दृढ़ संकल्प अर्जित करने का विषय है ।”
“प्रतिदिन प्रातः बोधिचित्त और शून्यता पर ध्यान करना चाहिए । ऐसे ध्यान से हमारे ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है, यह मैंने देखा है । दर्शन मार्ग को प्राप्त करना सम्भव है । इसलिए, श्रवण, चिंतन एवं भावना कर हमारा लक्ष्य बुद्धत्व की प्राप्ति होनी चाहिए । हमें मन के भीतर ही शांति की खोज करनी चाहिए जो दया और करुणा द्वारा ही विकसित होती है । धन्यवाद ।”
सभी श्रोताओं ने तालियां बजाकर आभार प्रदर्शित किया । धन्यवाद ज्ञापन के भाषण में मठ के प्रतिनिधि ने परमपावन को इस संगोष्ठी का उद्घाटन करने के लिए कृतज्ञता अर्पित की और आशा व्यक्त की कि भविष्य में इस प्रकार की संगोष्ठियों का आयोजन होते रहेगा ।