औरंगाबाद, महाराष्ट्र – परमपावन दलाई लामा आज सुबह अपने होटल से पीईएस कॉलेज ऑफ फिजिकल एजुकेशन में आये, जहां पर एक बहुत बड़े खेल मैदान को उनके प्रवचन के लिए तैयार किया गया था । वहां पहुंचने पर उनके कार से मंच तक जाने के लिए फूल-मालाओं से सुसज्जित गोल्फ-कार्ट की व्यवस्था की गयी थी जिस पर बैठकर परमपावन गलियारे से होकर मंच तक पहुंचे । मंच तक जाने के लिए बनाये गये गलियारे के दोनों ओर बड़ी संख्या में लोग परमपावन की झलक पाने के लिए मुस्कराते हुये हाथ जोड़े खड़े थे ।
मंच पर पहुंचने पर उन्होंने भगवान बुद्ध की विशालकाय मूर्ति और डॉ. बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की मूर्ति पर श्रद्धा अर्पित की । उनके मंच पर पहुंचते ही प्रवचन स्थल में लोगों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी और अन्ततः वहां पर 50,000 से अधिक संख्या में लोग मौजूद थे । वहां उपस्थित भिक्षुगण पीले और लाल रंग के चीवर धारण किये हुये थे जबकि गृहस्थ लोग अधिकतर सफेद वस्त्र में थे । श्रीलंका से पधारे भिक्षु महानायक थेरो परमपावन के साथ मंच पर बैठ गये तथा उन्होंने पालि भाषा में शरण-गमन का पाठ किया ।
डॉ. हर्षदीप काम्बले ने लोगों को सम्बोधित करते हुये कहा कि वे और उनके परिवार ने इस सम्मलेन के आयोजन के लिए पहल किया था तथा इस कार्यक्रम को आर्थिक रूप से सहयोग कर रहे हैं । भिक्षु बोधिपलो महाथेरो ने परमपावन को जनसभा को सम्बोधित करने के लिए आमंत्रित किया । परमपावन ने प्रवचन के प्रारम्भ में कुछ स्तुति श्लोकों का वाचन किया । प्रज्ञापारमिता स्तुति-
“अचिन्तनीय एवं अवर्णनीय प्रज्ञापारमिता,
अनुत्पन्न एवं अनिरोध गगन-स्वभाव,
विषय में प्रत्यात्मज्ञान वाले,
त्रिकाल जिन-जननी को नमन है ।
तद्यथा गते-गते पारगते पारसम्गते बोधि स्वाहा ।”
आचार्य नागार्जुन के माध्यमिक ग्रन्थ ‘मूलमध्यमककारिका’ का मंगलाचरण-
“जिन्होंने प्रतीत्यसमुत्पन्न,
अनिरोध, अनुत्पन्न,
अनुच्छेद, अशाश्वत,
अनागम, अनिर्गम,
न अनेकार्थ, न एकार्थ
प्रपञ्च रहित शांत की देशना की है,
सम्यक् सम्बुद्ध - सभी उपदेशकों में
सर्वश्रेष्ठ को प्रणाम करता हूँ ।”
आचार्य चन्द्रकीर्ति के माध्यमिक ग्रन्थ ‘मध्यमकावतार’ का मंगलाचरण-
श्रावक एवं मध्य बुद्ध (प्रत्येक बुद्ध) मुनि से उत्पन्न हैं,
बुद्ध बोधिसत्त्व से उत्पन्न हुये हैं ।
कारुणिक चित्त, अद्वयाभास बुद्धि और,
बोधिचित्त जिनपुत्र के हेतु हैं ।
“आचार्य नागार्जुन ने प्रज्ञापारमिता पर व्याख्या करते हुये ‘मूलमध्यमककारिका’ नामक ग्रन्थ की रचना की है, जिसमें उन्होंने शून्यता के विषय को प्रत्यक्ष रूप से वर्णन किया है । आर्यमैत्रेय ने ‘अभिसमयालंकार’ ग्रन्थ की रचना की, जिसमें उन्होंने प्रज्ञापारमिता के अप्रत्यक्ष विषय- पथक्रम को विशेष रूप से निरूपण किया है । तिब्बत में इन दोनों ही ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया जाता है ।”
“हम विद्यार्जन के सभी क्षेत्रों में तर्क और हेतुओं का प्रयोग करते हैं, जिसमें विशेषकर आचार्य धर्मकीर्ति का ‘प्रमाणवार्तिक’ है । हम आचार्य गुणप्रभ की टीकाओं पर आधारित मूलसर्वास्तिवाद परम्परा का विनयशील पालन करते हैं ।”
“तथागत बुद्ध ने प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन में शील, शमथ और विपश्यना की देशना की थी तथा बाद में राजगीर में विशेष बुद्धिमत्ता वाले शिष्यों को प्रज्ञापारमिता का प्रवचन दिया । भगवान ने उन्हें सत्य का उपदेश करते हुये यथार्थ और आभास के भेद को बताया तथा सूक्ष्म अज्ञानता को दूर करने की विधि का साक्षात्कार कराया । नालन्दा परम्परा में इस विधि से अध्ययन किया जाता है ।”
“नालन्दा के आचार्य नागार्जुन ने तथागत बुद्ध की देशनाओं को सुगम रूप में व्याख्या कर उस परम्परा को विस्तार दिया । कालन्तर में बौद्धधर्म पूरे एशिया में फैल गया और 20वीं सदी में पश्चिमी देशों ने इस धर्म को अपनाया । यहां भारत में डॉ. अंबेडकर ने बौद्धधर्म को जन-जन तक पहुंचाने में अहम योगदान दिया तथा सन् 1956 में स्वंय बौद्ध बनकर नागपुर में 500,000 लोगों को बौद्धधर्म की दीक्षा दी । उन्हीं के कारण आज हम और आप यहां हैं तथा भारत में बौद्धधर्म के पुनरूद्धार में उनकी मुख्य भूमिका रही है ।”
“आज लोग बौद्धधर्म में अत्यन्त रूचि ले रहे हैं । एक सम्यक बौद्ध बनने के लिए हमें बुद्ध और धर्म के अर्थ को जानना आवश्यक है । बुद्ध के अर्थ को तिब्बती भाषा में जिस प्रकार अनुवाद किया गया है उसके अनुसार बुद्ध वे हैं जिन्होंने सभी प्रकार के क्लेशों और विकारों को दूर किया है तथा सभी प्रकार की अज्ञानताओं का प्रहाण किया है ।”
“त्रिरत्न के विषय में जानने के लिए उससे पहले चार आर्यसत्य और दो सत्यों को जानना ज़रुरी है । साथ ही साथ किस प्रकार पाप कर्मों को त्यागना है और निरोधगामी मार्ग में अग्रसर होना है, यह जानना अतिआवश्यक है । दुःखों का समूल नाश कर निरोध अवस्था में विलीन होना ही सम्यक शरण है, जिसे धर्मरत्न कहते हैं । उसकी प्राप्ति के लिए शून्यता में प्रत्यक्ष ज्ञान का अवबोधन करना होता है, जिससे संघ में स्थापित हो सके । केवल श्रद्धा मात्र का होना पर्याप्त नहीं है, हमें तर्कपूर्ण अध्ययन करना चाहिए ।”
“हमारे दुःखों का कारण प्रतीत्यसमुत्पाद के द्वादश अंग में बतायी गयी अज्ञानता है, जो केवल किसी चीज़ के विषय में न जानना मात्र नहीं है । यह अज्ञानता हमारे भ्रामक अवधारणा से उत्पन्न है । जब हम प्रतीत्यसमुत्पाद को जान जाते हैं तो यह भ्रामक विचार भी दूर हो जाता है ।”
“बौद्धधर्म के चार मतावलम्बियों में अनात्मता को जानने वाली प्रज्ञा के अवबोधन में सूक्ष्म और स्थूल के विभिन्न स्तर होते हैं । वैभाषिक और सौत्रान्त्रिक दार्शनिक स्वतंत्र आत्मा मात्र का खण्डन करते हैं जबकि चित्तमात्र और माध्यमिक दार्शिनिक न केलव पुद्गल नैरात्म्य अपितु धर्मनैरात्म्य की भी व्याख्या करते हैं ।”
“यदि हम बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन नहीं करते हैं, तो ध्यान साधना किस पर करेंगे? इसलिए आप सबको अध्ययन पर अधिक ज़ोर देना चाहिए । मैंने अपने जीवन में अनेक समस्याओं का सामना किया है लेकिन उन परिस्थितियों में मेरे लिए बौद्ध दर्शन के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान ही सबसे अधिक सहायक रहा है ।”
“मैं प्रायः बौद्ध अनुयायियों से 21वीं सदी के बौद्ध बनने का आह्वान करता हूँ, जो अध्ययन और ज्ञानार्जन द्वारा श्रद्धा का संवर्धन करने पर ज़ोर देता । आचार्य हरिभद्र ने ‘अभिसमयालंकार नाम प्रज्ञापारमिता उपदेशशास्त्र वृत्ति’ में उल्लेख किया है कि धर्म के दो प्रकार के अनुयायी होते हैं, तीक्ष्ण बुद्धि वाले और मन्द बुद्धि वाले । यदि हम मन्द बुद्धि वालों का रास्ता अपनाते हैं तो बौद्धधर्म अधिक समय तक नहीं रहेगा, लेकिन यदि तीक्ष्ण बुद्धि वालों का रास्ता अपनायेंगे तो बौद्धधर्म अनेक शताब्दियों तक स्थित रहेगा ।”
“तथागत बुद्ध ने अपने अनुयायियों से कहा था, “हे भिक्षुओं अथवा विद्वानों ! जिस प्रकार स्वर्ण को तपाकर, काटकर तथा रगड़कर उसकी परीक्षा की जाती है उसी प्रकार मेरे वचनों को भी श्रद्धा मात्र से नहीं बल्कि भलीभांति परीक्षण करने के पश्चात् ही स्वीकार करना चाहिए ।” जब हम बुद्ध के चित्र देखते हैं तो हम उन्हें अपने गुरु कहते हैं । यदि हम वास्तव मैं उन्हें अपना गुरु मानते हैं तो हमें भी स्वयं को उनका शिष्य मानकर उनकी शिक्षाओं का गहन अध्ययन करना चाहिए ।”
“अब में ‘चित्तशोधन की अष्टपदावली’ ग्रन्थ को पढ़ता हूँ, मैंने इसे सबसे पहले बच्चपन में श्रवण किया था और तब से आज तक इसका प्रतिदिन पाठ करता हूँ । यह मेरे लिए अत्यन्त ही उपयोगी है ।”
परमपावन ने ‘चित्त शोधन की अष्टपदावली’ पर व्याख्यान प्रारम्भ करते हुये कहा कि प्रथम दो श्लोक हमें घमंडी न बनने की शिक्षा देती है । यदि हम परकल्याणकारी बनेंगे और दूसरों को कष्ट पहुंचाने से बचेंगे तो घमंडी होने का कोई स्थान नहीं रहता है । तीसरा श्लोक हानिकारक भावनाओं को विवेक बुद्धि द्वारा सामना करने का सुझाव देता है । चौथे श्लोक में हमारे मित्रों और सम्बन्धियों के बीच का प्रेम- जो आसक्ति से रंगा हुआ होता है, और वास्तविक प्रेम – जो अपने शत्रुओं के प्रति भी प्रेम करना सिखाता है, उसका विभेद करता है ।
पांचवां और छठा श्लोक आचार्य शांतिदेव के शिक्षाओं की ओर इंगित करता है- कि हमारे शत्रु ही हमारे परम गुरु हैं । सातवां श्लोक देने और लेने के साधना-अनुष्ठान को बताता जिसे परमपावन ने उनके साधना में अत्यन्त उपयोगी कहा । अन्तिम श्लोक कहता है कि, “विचारों से मलिन न होकर तथा सभी धर्म माया स्वरूप जानने वाली बुद्धि के द्वारा विरक्त भाव में बंधन से मुक्त हो जाऊं ।” इस श्लोक से प्रतीत्यसमुत्पाद को समझने की प्रत्याशा प्रदर्शित होती है ।”
“यहां दो विकल्प हैं, वस्तुएं या तो स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में हैं, या फिर अन्य प्रत्ययों पर निर्भर होकर अस्तित्व में हैं । जैसे कि क्वांटम भौतिकी कहता है, वस्तुओं का विषयी ओर से कोई अस्तित्व नहीं होता है । वे अस्तित्व में तो हैं लेकिन स्वतंत्र रूप में नहीं ।”
“आचार्य नागार्जुन के ‘मूलमध्यमककारिका’ और आचार्य चन्द्रकीर्ति के ‘मध्यमकावतार’ ये दोनों ग्रन्थ वस्तुओं के आभासित और यथार्थ अस्तित्व पर प्रकाश डालते हैं । मैंने इस पर पिछले 70 वर्षों तक विश्लेषण किया है और बोधिचित्त पर 50 वर्षों से साधना की है । ये साधनाएं मेरे लिए आत्मा के प्रति भ्रान्तियों और आत्म-पोषित विचारों को दूर करने में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ है ।”
“अन्त में, मैं उन सभी के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने हमें एक साथ यहां एकत्रित होने का सुअवसर दिया । और आप सभी श्रद्धालुओं का भी धन्यवाद करता हूँ, कि आप लोगों ने यहां आकर गहन रुचि दिखायी है । बौद्धधर्म अत्यन्त गहरा है, लेकिन मैं कभी भी यह नहीं कहता कि यह परम्परा सर्वश्रेष्ठ है । जिस प्रकार हम यह कह नहीं सकते कि एक दवाई सदैव सर्वश्रेष्ठ होता है, क्योंकि उस दवाई का सर्वश्रेष्ठ होना रोगी की स्थिति पर निर्भर करता है । इसलिए विभिन्न मनोस्थिति के लोगों को भिन्न-भिन्न आध्यात्मिक परम्पराएं उपयोगी लगता है ।”
कार्यक्रम के समापन पर परमपावन मंच के सामने आये और श्रद्धालुओं की ओर ध्यान से देखा तथा दोनों हाथों को जोड़कर अभिवादन किया । जैसे ही वे अपनी कार की ओर बढ़ने लगे उनके दर्शन के लिए लोगों का हुजूम उम़ड पड़ा । यहां से वे औरंगाबाद विमान-पत्तन के लिए रवाना हुये, जहां से वे दिल्ली और फिर कल धर्मशाला लौट जायेंगे ।