बेंगलुरू, भारत, आज प्रातः परम पावन दलाई लामा १००० से अधिक की संख्या में श्रोताओँ को संबोधित करने के लिए होटल के बॉलरूम में लौटे जहाँ वे ठहरे हुए हैं। उनका पुनः पारंपरिक रूप से स्वागत किया गया, उन्होंने दीप प्रज्ज्वलित किया तथा मंच के पार्श्व में रखी पवित्र मूर्तियों के समक्ष सम्मान व्यक्त किया। उन्होंने श्रोताओं के चेहरों की ओर बड़े ध्यान से देखा और बैठने से पहले उनकी ओर देख अभिनन्दन में हाथ हिलाया। अपने परिचय में वीर सिंह ने परम पावन को असाधारण मानव के रूप में संदर्भित किया। उन्होंने कहा कि जब वे लोगों द्वारा उनकी सादगी, उनके आनन्द भाव, और उनके बाल स्वरूप भोलेपन की प्रशंसा सुनते हैं तो वे स्वयं को स्मरण दिलाते हैं कि परम पावन इन गुणों के साकार हैं, क्योंकि वह एक आध्यात्मिक अभ्यासी हैं।
"आप सबको सुप्रभात, आशा है आप सभी ठीक से सोए होंगे, ताकि आप मेरे व्याख्यान के दौरान ऊंघे नहीं और मुझे हतोत्साहित न करें।" परम पावन ने श्रोताओं के साथ ठिठोली की। "आधुनिक भारत में प्राचीन प्रज्ञा" मेरे प्रिय विषयों में से एक है। हमारे आस - पास हो रहे भौतिक, तकनीकी और वैज्ञानिक विकास के बावजूद हम भावनात्मक संकट से गुज़र रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि मात्र प्रार्थना समुदाय को स्थिर करने का एक प्रभावी तरीका है।
"सबसे महत्वपूर्ण अपने चित्त की शांति लाना है। ऐसा करने के लिए चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य और वास्तविकता की समझ के ज्ञान की आवश्यकता होती है। महत्वपूर्ण बात है चित्त को प्रशिक्षित करना, जैसे कि हम शारीरिक स्वच्छता को महत्व देते हैं, हमें भावनात्मक स्वच्छता की भी सराहना करना चाहिए।
"हम इसे एक धर्मनिरपेक्ष संदर्भ में कर सकते हैं, किसी विशेष धार्मिक परम्परा के पूर्वाग्रह के बिना। मैं धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग उस अर्थ में करता हूँ जिस तरह भारत में किया जाता है जो सभी आध्यात्मिक परंपराओं का सम्मान है और उन लोगों के विचारों के लिए भी जिनकी कोई आस्था नहीं है। मेरे कुछ पाश्चात्य मित्रों का मानना है कि यह शब्द धर्म के प्रति अपमान का अर्थ रखता है। जो भी हो, मेरी चिंता यह देखना है कि व्यक्ति अपने धार्मिक निष्ठा के बावजूद किस तरह शांतिपूर्ण, आनन्द से भरे रह सकते हैं। और इस संबंध में मेरा मानना है कि प्राचीन भारतीय प्रज्ञा के कई तत्व व्यावहारिक और यथार्थवादी तरह से लागू किए जा सकते हैं।
"चूंकि सभी धार्मिक परम्पराओं में मनुष्य शामिल होते हैं, वे सभी प्रेम और करुणा जैसे मानव मूल्यों से संबंधित एक संदेश सम्प्रेषित करते हैं। ईश्वरवादी परम्पराएं इन्हें एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास पर आधारित करती हैं। परन्तु इस देश भारत में तीन परम्पराएँ उभरीं जो अपना अभ्यास ईश्वर पर आधारित नहीं रखतीं - सांख्य परम्परा की एक शाखा, जैन धर्म और बौद्ध धर्म। उनका संबंध चेतना से है और वे परवर्ती जीवन को स्वीकार करते हैं।"
परम पावन ने सुझाया कि कुछ लोगों को जिन्हें विगत जन्म का स्मरण है, स्पष्ट करता है कि याद रखने के लिए कुछ है। उन्होंने दो लड़कियों का उल्लेख किया जिनसे वे मिले, एक पटियाला में और एक कानपुर में, जिन्हें अपने पिछले जीवन की स्पष्ट और ज्वलंत यादें थीं। उनमें से प्रत्येक ने अपने पिछले परिवार की पहचान की। उन्होंने एक और मामला उद्धृत किया जिसका संबंध तिब्बत में जन्म लिए एक बालक से था, जिसने बार बार अपने माता-पिता से कहा कि वह भारत का है। वे उसे धर्मशाला लेकर आए जहां उसने उन्हें बताया कि वह दक्षिण भारत में रहता था। जब वे उसे गदेन महाविहार में लेकर आए तो उसने उन्हें अपना पुराना घर दिखाया और एक डिब्बे की ओर इंगित किया कि वहाँ उन्हें उसका चश्मा मिलेगा। अमेरिकी मनोचिकित्सक इयान स्टीवंसन ने शोध किया है और विश्व के विभिन्न भागों से ऐसी कई कहानियों को एकत्रित किया है।
परम पावन ने कहा कि, विशेष रूप से न्यूरोप्लास्टिसिटी, मस्तिष्क में परिवर्तन लाने की क्षमता की खोज के बाद, मस्तिष्क विशेषज्ञों ने यह स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया है कि चेतना मस्तिष्क के प्रकार्य होने की तुलना में और भी कुछ अधिक हो सकती है। धर्मकीर्ति के अनुसार वह जो चेतना नहीं है, वह चेतना को जन्म नहीं दे सकता, पर उनकी व्याख्या मस्तिष्क के कार्य के आधुनिक ज्ञान की तुलना में काफी स्थूल है। परम पावन ने एक वैज्ञानिक को यह बताने का उल्लेख करते हुए याद किया कि यदि आप चुपचाप हैं, तो आप विचारों के आधार पर विभिन्न भावनाओं को जन्म दे सकते हैं। उन्होंने स्वीकार किया कि ऐसा प्रतीत होता है ऐसा हो रहा था, पर यह आवश्यक नहीं कि वे उसे स्वीकार कर लें।
कहा जाता है कि चेतना के स्तर होते हैं जो उनकी सूक्ष्मता के अनुसार भिन्न होते हैं। चेतना का सबसे स्थूल स्तर हमारी सामान्य जाग्रत अवस्था है, जो ऐन्द्रिक जागरूकता से भरी होती है। उस से सूक्ष्म स्वप्नावस्था है, गहन निद्रा है और जब हम बेहोश होते हैं। सूक्ष्मतम चेतना वह है जो मृत्यु के समय प्रकट होती है।
अबौद्धों के लिए पुनर्जन्म में आत्म की एक महत्वपूर्ण भूमिका है, पर बौद्ध धर्म स्थायी, एकल, स्वायत्त आत्म के अस्तित्व को नकारता है और कहता है कि आत्म को पांच मनो-भौतिक स्कंधों के आधार पर नामित किया गया है।
वैभाषिक मुख्य बौद्ध परम्पराओँ में सबसे आधारभूत के विचारों के अनुसार वस्तुओं के अस्तित्व में आने, उनके क्षय और विघटन की बात की जाती है।अन्य परम्पराएं वस्तुओँ के क्षण क्षण में हो रहे परिवर्तन की बात करते हैं और एक महत्वपूर्ण कारण और सहकारी स्थितियों को संदर्भित करते हैं। चेतना के संदर्भ में, पर्याप्त कारण चेतना का पिछला क्षण होना चाहिए।
परम पावन ने समझाया कि वैभाषिक और सौत्रातिंक, या सूत्र अनुयायी, मात्र पुद्गल नैरात्म्य की बात करते हैं। चित्तमात्रिन धर्म नैरात्म्य को भी स्वीकार करते हैं, पर वे बल देकर कहते हैं कि कुछ भी बाह्य रूप से उपस्थित नहीं है। वे इस पर भी बल देते हैं कि उदाहरण के लिए, दृश्य चेतना और उसकी वस्तु अद्वैत है।उनका कथन है कि चित्त पर अंकित चिह्नों के परिणामस्वरूप एक दृश्य वस्तु प्रकट होती है। यह बाहरी वस्तुओं के साथ मोह को कम करने में हमारी सहायता कर सकता है, परन्तु द्वेष जैसे क्लेशों, जो कि आंतरिक विश्व का अंग है, का प्रतिकार करने के लिए बहुत कम सहायक है।
परम पावन ने आगे मध्यमक या मध्यम मार्ग को बताया, यह दृष्टि कि चाहे वस्तुएँ बाह्य रूप में अस्तित्व रखती हों अथवा नहीं, चित्त की कोई स्वभाव सत्ता नहीं होती। प्रज्ञा पारमिता शिक्षाओं को समझाते हुए, नागार्जुन ने प्रतीत्य समुत्पाद पर बल दिया। परम पावन ने 'मूल मध्यम कारिका' के दो श्लोकों को उद्धृत किया:
जो प्रतीत्य समुत्पाद है,
वह शून्यता में व्याख्यायित होता है।
वह आश्रित होकर ज्ञापित है, वही मध्यमा प्रतिपत् है।
ऐसे कोई धर्म अस्तित्व नहीं रखता
जो प्रतीत्य समुत्पादित न हो अतः ऐसा कोई धर्म नहीं जो शून्यता न हो।
यह कहना कि रूप शून्यता है, का अर्थ भौतिक अस्तित्व को नकारना नहीं है। नागार्जुन कहते हैं कि जो प्रतीत्य समुत्पाद देखने में सक्षम है वह चार आर्य सत्यों को समझ सकता है - दुःख सत्य, दुःख समुदय, निरोध और मार्ग।
परम पावन ने स्पष्ट किया कि बुद्ध ने प्रथम चार आर्य सत्यों की देशना दी और प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ बाद में आई। चार आर्य सत्यों के साथ प्रतीत्य समुत्पाद के द्वादशांग थे, जो स्पष्ट करते हैं कि किस तरह दुःख व इसके कारण जनित होते हैं और उन्हें किस तरह समाप्त किया जा सकता है।
परम पावन ने नागार्जुन के 'मूलमध्यमकारिका' से एक और श्लोक को उद्धृत किया जिसकी तुलना वे अमेरिकी मनोचिकित्सक हारून बेक ने, जो उनसे कहा था उससे करते हैं। क्रोध से निपटने वाले लोगों का उपचार करने के अनुभव ने बेक को सिखाया कि जब हम क्रोधित होते हैं तो हम वस्तु अथवा अपने क्रोध के केन्द्र को १००% नकारात्मक मानते हैं, लेकिन उस भावना का ९०% मानसिक प्रक्षेपण है।
कर्म और क्लेशों के क्षय में मोक्ष है;
कर्म और क्लेश विकल्प से आते हैं,
विकल्प मानसिक प्रपञ्च से आते हैं,
शून्यता में प्रपञ्च का अंत होता है।
वे भ्रांतियां जो कर्म और क्लेशों को जन्म देती हैं वे मानसिक प्रपञ्च से आती हैं - और वह शून्यता से समाप्त होता है।
अपने 'मध्यमकवतार' में, चंद्रकीर्ति स्थापित करते हैं कि रथ का कोई भी अंग अपने आप में रथ नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि कोई रथ ही नहीं है, इसका प्रकार्य और अस्तित्व एक सांवृतिक स्तर पर होता है।
परम पावन ने सलाह दी, "हमें अपनी बुद्धि का पूरा उपयोग कर अभ्यास करने की आवश्यकता है।" "शून्यता के विषय में सोचना हमारे क्लेशों को दुर्बल करने में बहुत सहायक है। मैंने जिन दो पुस्तकों का उल्लेख किया है, 'मूलमध्यमकारिका' और शांतिदेव के 'बोधिसत्चर्यवतार' ऐसे प्रबल शस्त्र हैं जिनके साथ आत्म-केंद्रितता के आंतरिक दुश्मन को चुनौती दी जा सकती है और हमारे क्लेशों को पराजित किया जा सकता है। इनकी तुलना में, देवताओं की कल्पना करना इत्यादि अपेक्षाकृत अप्रभावी हैं।
"यह जीवन सार्थक हो सकता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि आगामी जीवन भी भाग्यशाली होगा। चूंकि शिक्षक ने इस पर बहुत अधिक समय बिताया है, इसलिए आप कम समय में बड़ी उपलब्धियां प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकते। आपने जो सीखा है उस पर आपको अध्ययन, विश्लेषण और ध्यान करना होगा।"
दर्शकों ने करतल ध्वनि के साथ प्रतिक्रिया दी। सत्र के आखिरी कुछ क्षणों में परम पावन ने उनके कई प्रश्नों का उत्तर दिया। उन्होंने करुणा के विकास के बारे में बात की। उन्होंने अंग दान और शाकाहार को प्रोत्साहित करने के प्रति अपनी स्वीकृति दी। यह पूछे जाने पर कि सभी को खुश कैसे करें, उन्होंने उत्तर दिया, "सबसे पहले, मुस्कुराओ।"
उन्होंने अपने श्रोताओं को स्मरण कराया कि बुद्ध का जन्म राजकुमार के रूप में हुआ था, परन्तु एक भिक्षु बनने के उपरांत उन्होंने एक याचक की तरह जीवन जिया। उन्होंने टिप्पणी की कि एक वकील के रूप में शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद, महात्मा गांधी भी विनम्र भाव से निर्धनों की तरह रहते थे।
अंत में, एक स्कूल छात्र ने परम पावन को बताया कि उसे स्कूल के कार्यक्रम में दलाई लामा की भूमिका निभानी थी और उसने परम पावन के बारे में बहुत कुछ सीखा था। फिर भी, वह उनसे सीधे पूछना चाहता था कि क्या वे वास्तव में करुणा का अभ्यास करते हैं और यदि ऐसा है, तो वह ऐसा कैसे करते हैं। परम पावन ने कल शांतिदेव के 'बोधिसत्वचर्यावतार' का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने के मूल्य की सलाह दोहराई।
"इसे पढ़ें और तुलना करें कि यह आपके अपने अनुभव से क्या कहता है। और जब आप दलाई लामा की भूमिका निभा रहे हैं तो मुस्कुराना न भूलें और फिर कुछ और अधिक मुस्कुराएँ।"