लेह, लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, भारत, सूरज पहले से ही चमकीला व गर्म था जब परम पावन दलाई लामा शिवाछेल फोडंग के अपने निवास से प्रवचन स्थल के निकट प्रवचन शामियाना जाने के लिए निकले। ठिकसे रिनपोछे और लद्दाख बौद्ध संघ के अध्यक्ष, छेवंग ठिनले उनके साथ पैदल चल रहे थे। समूचे मार्ग पर परम पावन को निकट से देखने की आशा में लोग बाड़ से सट कर खड़े थे। परम पावन यहां वहां वह एक बच्चे के गाल को थपथपाने या एक वृद्ध अथवा वृद्धा के सिर पर अपना हाथ रखने के लिए रुके।
यथासंभव समावेशी होने का प्रयास करते हुए परम पावन ने मंच के अग्र भाग के सबसे दूर के कोने और मंच के निकट के लोगों साथ ही दूर के अनुमानित २०,००० लोगों का अभिनन्दन किया। इस बीच, केंद्रीय बौद्ध अध्ययन संस्थान की भिक्षुणियां ने मंच के समक्ष एक स्फूतिपूर्ण शास्त्रार्थ में संलग्न थीं। इसके बाद लद्दाख पब्लिक स्कूल के छात्र थे।
सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण करने के पश्चात, परम पावन ने टिप्पणी की, कि उन्हें यह देखकर खुशी थी कि शास्त्रार्थ करने वाले स्कूल के छात्रों में एक उत्साही सिख लड़का शामिल था। उन्होंने टिप्प्णी की, कि अध्ययन कर रहे विषय की समझ को प्रखर करने में शास्त्रार्थ कितना महत्वपूर्ण हो सकता है और उनके योगदान के लिए स्कूल के बच्चों का धन्यवाद किया। प्रारंभिक प्रार्थनाओं में 'उत्तरतंत्र शास्त्र' शामिल था, जो बुद्ध, धर्म और संघ के गुणों एवम् 'हृदय सूत्र' की प्रशंसा करता है।
"विगत वर्ष हमने 'बोधिसत्वचर्यावतार' के अध्याय ६ के अंत तक पढ़ा था," परम पावन ने समझाया, "अतः हम वहाँ से आगे बढ़ेंगे। मान्यता है कि शांतिदेव ने ८वीं शताब्दी में इस ग्रंथ की रचना की। यह विपुल चर्या परम्परा की शिक्षाओं पर आधारित है, जिसे मैत्रेय ने असंग को दिया और गम्भीर दृष्टि परम्परा, जो नागार्जुन से आती है, जिन्हें कभी-कभी द्वितीय बुद्ध के रूप में जाना जाता है। इस शिक्षण को महान विपुल चर्या परम्परा का प्रतिनिधित्व करने के रूप में संदर्भित किया जा सकता है।
"मैत्रेय का 'अभिसमयालंकार' प्रज्ञा पारमिता शिक्षाओं की अंतर्निहित विषय को व्याख्यायित करता है। नागार्जुन मुखर विषय को स्पष्ट करते हैं, जो शून्यता का सिद्धांत है। मैत्रेय का 'उत्तरतंत्र शास्त्र' बुद्ध प्रकृति को समझाता है, जबकि उनके पांच ग्रंथ समग्र रूप में बोधिसत्व मार्ग को रेखांकित करते हैं।"
बौद्ध दर्शन के विभिन्न परम्पराओं के बारे में बताते हुए, परम पावन ने कहा कि वैभाषिक और सौत्रंतिक, पुद्गल नैरात्म्य की शिक्षा देते हैं जबकि चित्तमात्रता तथा मध्यमक धर्म नैरात्म्य की शिक्षा भी देते हैं। चेतना के वास्तविक अस्तित्व पर बल देते हुए, चित्तमात्रता वस्तुओं के बाह्य अस्तित्व को नकारता है, जो उनके अनुसार हमारे चित्त पर अंकित चिह्नों का परिणाम है। परम पावन ने आगे कहा कि क्वांटम भौतिक विज्ञानी हैं जो सुझाव देते हैं, कि यह दृढ़ विश्वास कि किसी का भी वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं है, मोह जैसी भावनात्मक प्रतिक्रिया को कम करता है।
मध्यमक परम्परा मुख्य रूप से स्वातन्त्रिक तथा प्रासंगिक परम्पराओं में विभाजित है, यद्यपि स्वातंत्रिक की एक शाखा है जिसमें योगाचार विचार शामिल हैं। जहां स्वातंत्रिक किसी तरह के वस्तुनिष्ठ अस्तित्व की अनुमति देते हैं, प्रासंगिक किसी भी वस्तु या अनुभवों के वस्तुनिष्ठ अथवा स्वतंत्र अस्तित्व का खंडन करते हैं।
'बोधिसत्चर्यावतार' की ओर मुड़ते हुए, परम पावन ने लोगों को बताया, "मुझे इस ग्रंथ का संचरण और व्याख्या खुनु लामा रिनपोछे तेनजिन ज्ञलछेन से प्राप्त हुई। इसमें जो कुछ कहा गया है, वे उसके समर्पित अभ्यासी थे। एक समय जब उन्होंने बोधिचित्तोत्पाद के अभ्यास का विकास कर लिया तो वे नित्यप्रति एक स्तुति श्लोक की रचना करते। अंततः इन श्लोकों को रत्न दीप के रूप में संकलित किया गया और मैंने पहले इसका संचरण चाहा था। मुझे बोधिसत्वचर्यावतार बाद में प्राप्त हुआ। चूंकि उन्होंने बोधिचित्त के अभ्यास को इतना उपयोगी पाया था कि खुनु लामा रिनपोछे ने मुझसे जितने लोगों को संभव हो उतने लोगों को इसका शिक्षण देने के लिए कहा था।
'बोधिसत्वचर्यावतार' का तीन भागों में संक्षेपीकरण किया जा सकता है - आचरण जिसके द्वारा आप अभ्यास में प्रवेश करते हैं, वास्तविक अभ्यास तथा अभ्यास की उपलब्धि। यह मार्ग से संबंधित है, जो प्रबुद्धता की ओर ले जाता है, जिसके मूल में प्रज्ञा का विकास है, जिसके आधार पर आप बोधिसत्व के आचरण का विकास कर सकते हैं।"
परम पावन ने छह पारमिताओं के अभ्यास के संबंध में ग्रंथ के शीर्षक तथा विषय सामग्री की समीक्षा की। उन्होंने देखा कि दान के लिए कोई अध्याय समर्पित नहीं है, पर यह तथ्य कि पूरी रचना का संबंध काय, संसाधन और पुण्यों के दान से है, से इस कमी की आपूर्ति हो जाती है।
"दस अध्यायों में से सबसे महत्वपूर्ण अध्याय ६ क्षांति से संबंधित और अध्याय ८ का ध्यान से संबंधित है," परम पावन ने आगे कहा। "यदि हम स्वयं से अधिक दूसरों का पोषण करना चाहें तो हमें क्रोध पर काबू पाने की आवश्यकता है और क्षांति इसका प्रतिकार है। अध्याय ८ स्पष्ट करता है कि मात्र आत्मपोषण हमें विनाश की ओर धकेलता है। यह मुख्य रूप से परात्मसमपरिवर्तन अभ्यास की शिक्षा देता है।"
अध्याय ७ की पहली पंक्तियों को पढ़ने के बाद, 'क्षांति रखते हुए मुझे वीर्य का विकास करना चाहिए, क्योंकि बोधि, केवल उन लोगों में रहती है जो स्वयं वीर्य का पालन करते हैं,'। परम पावन ने उल्लेख किया कि मार्ग पर विकास केवल बोधिचित्त पर निर्भर नहीं करता, प्रज्ञा भी आवश्यक है। जिस क्षण आपके पास बोधिचित्त का सच्चा अनुभव हो जाए, आप बोधिसत्व मार्ग में प्रवेश करते हैं, परन्तु आपको अभी भी आगे प्रशिक्षण की आवश्यकता है। संभार मार्ग के बाद, प्रयोग मार्ग में शमथ चित्त और शून्यता पर केन्द्रित विपश्यना का जुड़ाव शामिल है। आप दर्शन मार्ग की ओर विकसित होते हैं, जहां आप सीधे शून्यता का अनुभव करते हैं तथा क्लेशों को समाप्त करते हैं।
दर्शन मार्ग के विकास और निरोध को प्राप्त करने के उपरांत आप ध्यान मार्ग में प्रवेश करते हैं और दूसरे बोधिसत्व भूमि से दसवीं तक प्रगति करते हैं। अंत में, आप अशैक्ष्य मार्ग का विकास करते हैं जो क्लेशों के अवशिष्ट अवशेषों के प्रतिकारक है। जब ये सभी क्लेश, जिसमें नकारात्मक भावनाओं के अंकित रूप भी शामिल हैं, समाप्त हो जाती तो आप बुद्धत्व प्राप्त करते हैं। यह पञ्च स्तर मार्ग 'हृदय सूत्र' के मंत्र में प्रतिबिम्बित होता है।
जब बुद्ध कहते हैं, "तद्यथा गते गते पारगते पारसंगते बोधि स्वाहा" (यह इस प्रकार है: बढ़ें, बढ़ें, आगे बढ़ें, सम्यक रूप से आगे बढ़ें, प्रबुद्धता में स्थापित हो जाएं), वह अपने अनुयायियों को पांच मार्गों से होकर आगे बढ़ने के लिए कह रहे हैं:
गते - संभार मार्ग
गते - प्रयोग मार्ग
पारगते - दर्शन मार्ग
पारसंगते - भावना मार्ग
बोधि स्वाहा - अशैक्ष्य मार्ग
"पथ के अनुपालन के लिए वीर्य और प्रयास की आवश्यकता है, पर आपको इन गुणों के लाभ को समझने की आवश्यकता है। उनके विरोधी उदाहरण के लिए, आलस्य और कम आत्म सम्मान हैं। जब तक आप न समझें कि आलस्य एक बाधा है, तो आप इसे दूर करने के लिए प्रेरित नहीं होंगे।
"अनित्यता पर चिंतन उपयोगी है, जैसे कि अध्याय ७ के प्रारंभिक छंद दर्शाते हैं। हम यहां इस समय स्वस्थ और खुश हैं, पर क्या हम सभी कल फिर मिलेंगे, इसकी गारंटी नहीं है। अगर मृत्यु आए तो ख्याति और धन, मित्र व परिवार से कोई सहायता न प्राप्त होगी। हमारा एकमात्र सहायक हमारे द्वारा किए गए पुण्य कार्यों के सकारात्मक अंकित चिह्न होंगे।
"आज, विश्व में ७ अरब मनुष्य हैं और उनमें से अधिकतर भौतिक लाभ के विषय में सोचते हैं। बहुत कम चित्त की आंतरिक दुनिया के बारे में सोचते हैं। हम में से कई जो बुद्ध की ओर प्रेरणा के लिए देखते हैं इस पर विचार करने की उपेक्षा करते हैं, कि क्या हम मार्ग में प्रगति कर रहे हैं, वह इस पर निर्भर करता है कि हम प्रयास करते हैं या नहीं। हम अपने विरोधियों को भी अपने से बाहर होने के अर्थ में सोचते हैं, जबकि असली दुश्मन भीतर है। दूसरे तरह का आलस्य गलत काम करने का आकर्षण है, जबकि तीसरा कम आत्म-सम्मान, पराजयवाद है, यह सोचते हुए है, 'मैं वास्तव में ऐसा नहीं कर सकता'। स्वयं की तथा दूसरों की समानता को समझना मार्ग के लिए वीर्य पैदा करता है।
"बोधिचित्त रूपी अश्व पर सवार हो जो सभी निराशा और थकान को दूर करता है,
कौन, जब वे इस चित्त के बारे में जाने जो आनंद से आनन्द की ओर बढ़ता है ,
कभी निराशा में गिरेगा?"
अपने पाठ के दौरान परम पावन ने इंगित किया कि श्लोक ४३ और ४४ पुण्य और गलत काम के परिणाम दर्शाते हैं। उन्होंने समझाया कि वज्रध्वज का उल्लेख अवतंसक सूत्र में एक अध्याय से संबंधित है। निराशा को दूर करने के लिए शांतिदेव की चेतना के अध्याय में उनकी सलाह का स्मरण करना है और फिर आनन्द से कार्य की ओर बढ़ना है।
अध्याय ७ के अपने पाठ को पूरा करने के बाद, परम पावन सीधे अध्याय ८ पर पहुँचे जो इस पर चर्चा से प्रारंभ होता है कि ध्यान को किस तरह विकसित किया जाए और उसे क्या बाधित करता है। उन्होंने त्वरित रूप से श्लोक ८९ और ९० तक पढ़ा, जहाँ बोधिचित्त के विकास परात्मसमता पर ध्यान के निर्देश का प्रारंभ होता है।
जिस तरह मैं अपनी करता हूँ मुझे सभी सत्वों की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि हम सभी सुख चाहने और दुःख को न चाहने में समान हैं।
अभ्यास में करुणा को विकसित करने के लाभ और ऐसा न करने की हानियां श्लोक १०४ में इस प्रश्न के साथ समाप्त होती हैं - 'पर चूंकि यह करुणा मेरे लिए बहुत दुख लाएगी, मैं इसे विकसित करने के लिए स्वयं पर क्यों ज़ोर डालूं?' - प्रत्युत्तर है, 'यदि आप जीवित प्राणियों के दुःखों पर विचार करें तो करुणा का दुख और अधिक कैसे हो सकता है?'
इस सलाह को चिह्नांकित करते हुए कि यदि आप स्वार्थी हों, तो आप कभी भी खुश नहीं होंगे, परम पावन ने १३०वें श्लोक के शक्तिशाली प्रभाव पर टिप्पणी की।
यदि अपने सुख का दूसरों के दुखों के साथ,
अच्छी तरह से परिवर्तन नहीं करेगा।
बुद्धत्त्व प्राप्त नहीं होगा,
भव चक्र में कोई आनन्द नहीं है।
१४०वां श्लोक परात्मसमपरिवर्तन के एक अभ्यास से प्रारंभ होता है जिसमें ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धात्मकता और आत्म महत्व पर चिंतन शामिल है। आप अपने से ऊंचे किसी के प्रति ईर्ष्या रखते हैं, यह सोचते हुए --- उसे सम्मानित किया गया है, मुझे नहीं। आप प्रतिस्पर्धी हैं और किसी ऐसे व्यक्ति से उत्कृष्ट बनना चाहते हैं जो आपके बराबर है और आप से निम्न को अपमानित करना चाहते हैं। १५५ श्लोक से आत्मपोषण के दोषों को समझाया गया है।
"परात्मसमपरिवर्तन का अभ्यास हमें दूसरों के बजाय आत्मपोषण करने की हानि के प्रति सजग करता है। यदि आप इस जीवन में और अगले में अपने आप से अधिक दूसरों की देखभाल करें, तो महान लाभ उपार्जित होंगे।"
परम पावन ने अपनी घड़ी की ओर देखा और घोषणा की, "मध्याह्न के भोजन का समय हो गया है। कल मिलेंगे।" दिन के लिए पुस्तक को नीचे रख प्रस्थान करते हुए उन्होंने लोगों की ओर देख अभिनन्दन में हाथ हिलाया और गाड़ी से फोडंग लौट गए।