लेह, लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, कल लद्दाख में आगमन के पश्चात परम पावन दलाई लामा ने आज दिन का आरंभ लेह जोखंग की तीर्थ यात्रा के साथ किया। जैसे ही वे लेह शहर के निकट पहुँचे, चेहरों पर मुस्कान लिए लोग मार्ग में पंक्तिबद्ध थे। जोखंग में आगमन पर लद्दाख बौद्ध संघ और उनके कर्मचारियों के अध्यक्ष छेवंग ठिनले ने उनका स्वागत किया। भिक्षुओं के श्रृंग वादन के नेतृत्व में मंदिर में परम पावन का अनुरक्षण किया गया जबकि परम्परागत लद्दाखी संगीतकार मंदिर के प्रांगण में वादन करते रहे।
मंदिर के अंदर पहुँचने पर जो स्थानीय लोगों, भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों साथ ही साधारण लोगों और महिलाओं से खचाखच भरा हुआ था, परम पावन ने मंजुश्री, सहस्र भुजा अवलोकितेश्वर, बुद्ध और गुरु पद्मसंभव के मूर्तियों के समक्ष अपना सम्मान व्यक्त किया। परम पावन ने ल्हासा जोवो का अनुकरण करने वाले बुद्ध की मूर्ति के समक्ष आसन ग्रहण करने से पूर्व सौहार्दता के साथ गदेन ठिसूर रिज़ोंग रिनपोछे, ठिकसे रिनपोछे तथा अन्य लामाओं का अभिनन्दन किया।
अपने परिचयात्मक भाषण में छेवंग ठिनले ने परम पावन और अन्य प्रमुख लामाओं के प्रति सम्मान व्यक्त किया। उन्होंने सूचित किया कि, परम पावन के मार्गदर्शन को गंभीरता से लेते हुए, लद्दाख बौद्ध संघ ने जोखंग को शिक्षा केंद्र में बदलने का निश्चय किया है। वे लोगों को २१वीं शताब्दी के बौद्ध बनने के उद्देश्य से साहित्यिक तिब्बती में सुधार करने तथा बौद्ध शिक्षा का अध्ययन करने का अवसर प्रदान कर रहे हैं - ताकि उनकी आस्था एक अच्छी समझ पर आधारित हो।
परम पावन ने अपनी टिप्पणी नागार्जुन की 'प्रज्ञानाममूलमध्यमकारिका' के वंदना के प्रथम श्लोक से प्रारंभ की:
"उस गौतम को मैं नमस्कार करता हूँ
जिसने अपनी करुणा के कारण
सभी दृष्टियों के प्रहाण हेतु
सद्धर्म का उपदेश दिया।
जिसने प्रतीत्य समुत्पाद,
अनिरोध, अनुत्पाद,
अनुच्छेद, अशाश्वत,
अनागम, अनिर्गम,
अनेकार्थ, अनानार्थ,
प्रपञ्च उपशम, शिव की देशना दी है,
उस सम्बुद्ध को प्रणाम करता हूँ, जो वक्ताओं में श्रेष्ठ है।
"धार्मिक परम्पराओं के कई संस्थापक शिक्षक हुए हैं, उदाहरणार्थ महावीर, ईसा मसीह और मुहम्मद, जिन्होंने प्रेम, करुणा और सहिष्णुता का एक आम संदेश सम्प्रेषित किया है। यही वह आधार है जिसके कारण भारत में सभी धार्मिक परम्पराओं का सम्मान है। अंतर्धार्मिक सद्भावना ३००० से अधिक वर्षों से प्रबल रही है। पर फिर भी दुख की बात है, आज अन्य स्थानों पर हम लोग धर्म के नाम पर लोगों को एक-दूसरे से लड़ते और हत्या करते देखते हैं।
"दार्शनिक विचारों के संदर्भ में, बुद्ध ने सिखाया कि अज्ञान को किस तरह दूर किया जा सकता है, यथार्थ को लेकर जो हमारी भ्रांत धारणाएँ हैं उन्हें किस तरह समाप्त किया जाए। प्रतीत्य समुत्पाद समझाते हुए उन्होंने दिखाया कि वस्तुएँ अन्य कारकों पर निर्भर होकर अस्तित्व रखती हैं। यह अनूठा दृष्टिकोण आज वैज्ञानिकों द्वारा भी प्रशंसित है।"
परम पावन ने अपने श्रोताओं को स्मरण कराया कि बौद्ध धर्म में पालि तथा संस्कृत परम्पराएं शामिल हैं और पालि परम्परा चार आर्य सत्य, विनय इत्यादि की व्याख्या पर केंद्रित है। इस बीच, संस्कृत परम्परा का मूल प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएं हैं, जो गृद्धकूट पर दी गई थीं, जो आंतरिक सत्ता की शून्यता पर बल देती हैं। इन शिक्षाओं को समझाते हुए नागार्जुन ने प्रतीत्य समुत्पाद को स्पष्ट किया, और घोषणा की कि चूंकि ऐसा कुछ भी नहीं है जो निर्भर नहीं है, ऐसा कुछ भी नहीं है जो शून्य न हो।
"मुझे गेशे रिगजिन तेनपा से नागार्जुन के 'युक्तिषष्टिकारिका', साथ ही उनके स्तुति संग्रह से बहुत सारे जैसे कि बोधिचित्त स्तुति की व्याख्या प्राप्त हुई। परम पावन ने कहा "इसके अतिरिक्त मुझे खुनु लामा रिनपोछे और गदेन ठिसूर रिज़ोंग रिनपोछे से कई दुर्लभ ग्रंथों के संचरण और स्पष्टीकरण प्राप्त हुए हैं।
"मुझे स्मरण है जब मैं युवा था तो ल्हासा में सफेद छूपा में लोगों को जूते पहने देखता था जो अंगूठे पर उठे हुए थे, जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी न थी। वे हिमालयी क्षेत्र के थे और तिब्बती उन्हे हेय दृष्टि से देखते थे। परन्तु ये तीन महान आचार्य, जो मेरे दयालु शिक्षक थे, ऐसे लोगों के बीच में से आए थे।
"हम अत्यंत भाग्यशाली हैं कि हमारे पास कंग्यूर और तेंग्यूर का एक समृद्ध साहित्य है, बुद्ध के अनुवादित शब्दों के १०० से अधिक खंड और २०० से अधिक खंडों का अधिकांश रूप से भारतीय आचार्यों का साहित्य। बुद्ध के अनुयायी के रूप में, एक भिक्षु के रूप में मात्र शरणगमन छंदों के पाठ से अधिक 'मैत्रेय के पञ्च ग्रंथ' और नागार्जुन के 'युक्तिषष्टिकारिका' जैसे ग्रंथों के आलोचनात्मक चिंतन ने मेरे चित्त को रूपांतरित किया है। जब हम ऐसे ग्रंथों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करते हैं तो हम एक तार्किक दृष्टिकोण का उपयोग करते हैं जो दिङ्नाग और धर्मकीर्ति से निकला है, जो अंतर्दृष्टि प्राप्त करने का गहन माध्यम है।
"बुद्ध ने स्वयं अपने अनुयायियों को सलाह दी कि वे उनकी शिक्षाओं को जस का तस न लें, पर उसका परीक्षण करें, जिस तरह एक स्वर्णकार स्वर्ण का करता है और उसे तभी स्वीकारें जब श्रमसाध्य परीक्षण ने इसे तर्कसंगत और लाभकारी माना हो। अतः यह बहुत अच्छा है कि आपने इस जोखंग और अन्य मंदिरों और विहारों को शिक्षा केंद्र बनाने के अपने उद्देश्य को घोषित किया है।"
मंदिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
तर्क युक्त नालंदा परम्परा अब मात्र तिब्बती और हिमालयी बौद्धों के बीच संरक्षित है। आज, मैं भारत में प्राचीन भारतीय ज्ञान को पुनर्जीवित करने के विषय में बात कर रहा हूँ। धर्मशाला में सरकारी कॉलेज के प्रधानाचार्य ने मुझे अकादमिक तरीके से ऐसा करने की पहल के बारे में बात की है। उस दिन दिल्ली सरकार द्वारा 'सुख के पाठ्यक्रम' के शुभारंभ पर मैंने आधुनिक शिक्षा को प्राचीन भारत की अंतर्दृष्टि और समझ के साथ जोड़ने की बात की। मुझे डेपुंग और सेरा के उपाध्यायों के साथ चर्चा करने का अवसर मिला कि किस तरह हमारे महाविहारीय विश्वविद्यालयों के विद्वान इस ज्ञान को भारतीय शिक्षकों के साथ साझा कर सकते हैं। मार्च में, मैं भारतीय विश्वविद्यालयों के १५० कुलपतियों के साथ इस विकल्प पर चर्चा कर सका। आप लद्दाखी भी भाग ले सकते हैं।
"हम सभी महायान, संस्कृत परम्परा का पालन करते हैं। प्रज्ञापारमिता की शिक्षाओं का स्पष्ट विषय का मूल नागार्जुन ने अपने 'युक्तिषष्टिकारिका' में समझाया। मैत्रेय के 'अभिसमयालंकार' में अंतर्निहित सामग्री समझाई गई थी। इसके लिए शून्यता की समझ परोपकारी बोधिचित्तोत्पाद का विकास आवश्यक है।"
परम पावन ने समझाया कि जिस तरह हम बच्चों को शारीरिक रूप से ठीक रहने के लिए प्रशिक्षित करते हैं, उन्हें व्यायाम, आहार और स्वच्छता के बारे में सिखाते हैं, हमें उन्हें चित्त को प्रशिक्षित कर तथा विनाशकारी भावनाओं से निपट कर चित्त को ठीक रखने के बारे में भी शिक्षित करना चाहिए। उन्होंने सुझाया कि हम सभी यह समझने का प्रयास करें कि हमारे चित्त की शांति को क्या विचलित करता है और क्या उसे शांत करता है, पर ज़ोर देते हुए कहा कि इसे धार्मिक नहीं अपितु शैक्षिक संदर्भ में सीखा जा सकता है। उन्होंने आगे सुझाव दिया कि एक बार जब भारत इस पहल की ओर ध्यान दे तो चीन भी रुचि दिखाएगा। एक बार ऐसा होने पर २.५ अरब लोग शामिल हो सकते हैं, जो विश्व के लिए महत्वपूर्ण होगा। उन्होंने घोषणा की कि यह सार्वभौमिक हितार्थ धर्मनिरपेक्ष ढंग से नालंदा परंपरा में संरक्षित ज्ञान का उपयोग होगा।
"आज विश्व भावनाओं के गंभीर संकट का सामना कर रहा है। लोगों का सोचना है कि विनाशकारी भावनाएं चित्त का एक स्वाभाविक अंग हैं। प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान का ज्ञान हमें दिखा सकती है कि ऐसा नहीं है और हम उनसे निपट सकते हैं और उन्हें खत्म कर सकते हैं। हमें स्वयं से पूछना होगा कि सुख कैसे प्राप्त करें - यह धन और शक्ति में नहीं है। जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया, हमें न केवल यह ढूंढना है कि हमारे चित्त को क्या विचलित करता है पर यह भी कि उन कारकों के प्रतिकारक क्या हैं।
"बौद्धों के रूप में हम नियमित रूप से सभी सत्वों के लिए प्रबुद्धता प्राप्त करने की प्रार्थना करते हैं। यद्यपि तथ्य यह है कि इस धरती पर मनुष्य हैं जिसके साथ हम सम्प्रेषण कर सकते हैं और इस समझ को साझा कर सकते हैं। इसमें तर्क और कारण शामिल है। जापान जैसे उच्च विकसित देश में आत्महत्या की दर बढ़ रही है। यहां तक कि लद्दाख में भी, मैं सुनता हूं कि आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं, संभवतः ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप। इस संबंध में कुछ किया जाना चाहिए। हमें अपने सामान्य ज्ञान, आम अनुभव और वैज्ञानिक निष्कर्षों पर निर्भर होते हुए, एक धर्मनिरपेक्ष तरीके से प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान की ओर देखने की आवश्यकता है। बस आज के लिए इतना ही।"
जनमानस, वृद्धों और छोटे बच्चों के साथ ठिठोली करने के लिए रुकते हुए परम पावन मंदिर से बाहर निकलकर अपनी गाड़ी की ओर गए। उसके बाद वे मध्याह्न के भोजन के लिए लेह से शिवाछेल (शान्तिवन) फोडंग गए।