रीगा, लातविया, कल, बाल्टिक सागर के ऊपर से होते हुए एक छोटी हवाई उड़ान के पश्चात परम पावन दलाई लामा लातविया पहुँचे। स्थानीय लातवियाई और उनकी यात्रा के रूसी आयोजकों द्वारा रीगा हवाई अड्डे पर उनका स्वागत किया गया। उनके होटल में शुभचिंतकों का एक बड़ा समूह उनका अभिनन्दन करने हेतु प्रतीक्षा कर रहा था - परम पावन मुस्कुराए, हाथ हिलाकर अभिनन्दन किया और जितने लोगों से संभव था हाथ मिलाया।
आज प्रातः स्कोंटो सभागार में, जो पुनः एक बार प्रवचन स्थल है, परम पावन ने पहले साथ के कमरे में एकत्रित मीडिया के ४० से अधिक सदस्यों से भेंट की। एक संक्षिप्त वक्तव्य देने के उपरांत परम पावन ने उनके प्रश्नों के उत्तर दिए।
यह पूछे जाने पर कि सही निर्णय लेने के बारे में किस तरह आत्मविश्वास की भावना का अनुभव किया जाए, परम पावन ने उत्तर दिया:
"हम मनुष्यों में एक परिष्कृत बुद्धि है जिसका उपयोग हमें सही तरीके से करना सीखना चाहिए। हमारे निर्णय और उससे जुड़े कार्यों को हम जो चाहते हैं उसके आधार पर नहीं किए जाने चाहिए। यद्यपि इस तरह का दृष्टिकोण कुछ अल्पकालिक संतुष्टि प्रदान कर सकता है, पर हम जानवरों से थोड़ा ही अलग होंगे। बुद्धिमान मनुष्यों के रूप में हमारे पास हमारे कर्मों के परिणामों का तर्क और अनुमान लगाने की क्षमता भी है। हम आकलन कर सकते हैं, कि हम जो करेंगे वह सामाजिक रूप से स्वीकार्य होगा और यह हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा है या नहीं। हमें किसी भी परिस्थिति के बड़े यथार्थ को ध्यान में रखना होगा। वस्तुओं को मात्र एक दृष्टिकोण से देखना पर्याप्त नहीं है। वस्तुओं का परीक्षण बहुत अधिक भावना के बिना विभिन्न दृष्टिकोणों से करना बेहतर होगा।"
प्रतियोगिता के बारे में और क्या विश्व कप जीतने के लिए उनकी कोई प्रिय टीम थी, के बारे में पूछे जाने पर, परम पावन ने उत्तर दिया:
"मुझे लगता है कि प्रतिस्पर्धा, जिसके परिणामस्वरूप सभी शीर्ष तक पहुँच सकते हैं, को स्वस्थ और सकारात्मक माना जा सकता है। परन्तु यदि यह आपके प्रतिद्वंद्वियों के रास्ते में बाधा डालता है तो यह इतना अच्छा नहीं है।
"व्यक्तिगत रूप से, खेल को लेकर मेरी बहुत कम रूचि है, इसलिए मेरी कोई प्रिय टीम नहीं है। जब मैं युवा था तो थोड़ा बहुत बैडमिंटन और पिंग-पोंग खेलता था। बीजिंग में, १९५४/५५ में, मैंने चीनी प्रधान मंत्री झोउ एन-लाई के साथ पिंग-पोंग खेला, पर मेरा उद्देश्य ठीक न था क्योंकि वे किंचित विकलांग थे तो मैंने सोचा कि मेरे लिए जीतना सरल होगा।"
जैसे ही परम पावन ने बड़े सभागार में मंच ग्रहण किया लगभग ४००० लोगों का जनमानस खड़ा हो गया तथा उत्साह पूर्ण स्वर में रेशमी स्कार्फ हिलाकर उनका स्वागत किया। लातवियाई में 'हृदय सूत्र' का पाठ किया गया।
"मैं रीगा में पुनः एक बार आकर बहुत खुश हूँ," परम पावन ने प्रारंभ किया। ऐसा प्रतीत होता लगता है कि रूसी गणराज्य के भी कई लोग आए हैं। हम सभी नालंदा परम्परा के अनुयायी हैं, अतः मुझे लगता है कि इसे आपको समझाना मेरा कर्तव्य है।
"हर कोई सुख चाहता है और कोई भी दुःख नहीं चाहता। इस संबंध में हम सब बराबर हैं। यद्यपि दुःख की इच्छा न करने के बावजूद ऐसा लगता है कि हम इसके पीछे भागते हैं। यद्यपि हम शारीरिक दुःख पर काबू पाने के लिए कदम उठा सकते हैं, पर चूंकि दुःख के मूल में चिंता और भय हैं, हमें जो वास्तव में प्राप्त करने की आवश्यकता है, वह चित्त की शांति है। वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्हें प्रमाण मिले हैं कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है, अतः यह सामान्य बात है कि हम जो भी आस्था का पालन करें, चित्त की शांति का मूल सौहार्दता है।"
परम पावन ने समझाया कि नालंदा परम्परा का प्रमुख तत्व, जिसे तिब्बती बौद्ध धर्म में जीवित रखा गया है, वह इसके तर्क और कारण का उपयोग है। तिब्बतियों को इस दृष्टिकोण का परिचय महान नालंदा आचार्य शांतरक्षित ने दिया, जिन्हें ८वीं शताब्दी में तिब्बती सम्राट ने हिम भूमि में आमंत्रित किया था।
"हम अज्ञानता के आधार पर क्रोध और मोह जैसे क्लेशों का विकास करते हैं। इसके प्रतिकार में बुद्ध ने सत्य द्वय - सांवृतिक और परमार्थिक, की बात की। उन्होंने दृश्य तथा यथार्थ के बीच के अंतर को इंगित किया। बौद्ध विचारों की विभिन्न परम्पराएँ सत्य द्वय की विभिन्न व्याख्याएं प्रस्तुत करती हैं, पर नागार्जुन ने सिखाया कि हम केवल प्रतीत्य समुत्पाद के संदर्भ में स्वभाव सत्ता की शून्यता की समझ से आधारभूत अज्ञान को समाप्त कर पाएँगे - यह धारणा कि वस्तुएँ मात्र अन्य कारकों पर आश्रित रहकर अस्तित्व रखती हैं।
"बौद्धों के रूप में हमारा अभ्यास समझ पर आधारित होना चाहिए, न कि अंधविश्वास पर और समझ के लिए हमें सीखने की आवश्यकता है। अतीत में तिब्बत में, भिक्षुओं को केवल उसी समय विद्वान माना जाता था जब उन्होंने २०- ३० वर्षों का अध्ययन कर लिया हो। आज भारत में, भिक्षु कम से कम २० साल का अध्ययन करते हैं। मैं सभी धर्मों का सम्मान करता हूँ, पर बौद्ध धर्म जिस रूप में विशिष्टता रखता है कि बुद्ध ने अपने अनुयायियों को सलाह दी कि उन्होंने जो कुछ कहा उसे जस का तस न लें अपितु तर्क के आधार पर इसकी जाँच व परीक्षण करें। बौद्ध धर्म ही एकमात्र परम्परा है जो इस तरह का शंकाकुल दृष्टिकोण अपनाती है।"
पहला ग्रंथ जिसमें से परम पावन ने पढ़ना शुरू किया वह 'वज्रच्छेदिक सूत्र' था। इसे पूरा करने से पहले, वे चोंखापा की 'प्रतीत्य समुत्पाद' की ओर मुड़े जिसे उन्होंने अंत तक पढ़ा।
परम पावन ने होटल लौटने से पहले आमंत्रित अतिथियों के समूह के साथ मध्याह्न का भोजन किया। प्रवचन कल जारी रहेंगे।