बोधगया, बिहार, भारत, आज प्रातः शिशिर का ठिठुराता कोहरे लौट आया था जब परम पावन दलाई लामा ने गदेन फेलज्ञे लिंग से महाबोधि स्तूप तक की छोटी यात्रा तय की। वज्रासन और बोधि वृक्ष की वंदना करने के उपरांत उन्होंने स्तूप के चारों ओर परिक्रमा की और उद्यान में उपस्थित लोगों की ओर देख अभिनन्दन में हाथ हिलाया, मंदिर में प्रवेश किया और बुद्ध की प्रसिद्ध प्रतिमा के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित किया। प्रदक्षिणा पूरी करने के बाद चलते समय लोगों का अभिनन्दन करते हुए परम पावन ने बोधि वृक्ष के समक्ष अपना आसन ग्रहण किया। मंत्राचार्य के नेतृत्व का अनुपालन करते हुए वे प्रार्थना में सम्मिलित हुए, जो विख्यात ञिङमा लामा खेनपो जिगमे फुनछोग, जिनके चारों ओर लारुंग गर का बौद्ध समुदाय तिब्बत में एकत्रित होता था, की पद्रहवीं पुण्यतिथि मनाने हेतु आयोजित की गई थी।
लगभग पन्द्रह मिनट के बाद, परम पावन तिब्बती मंदिर में लौट आए जहाँ उन्होंने उपाध्यायों एवं शिक्षकों के साथ बैठक में भाग लिया। शरचे खेनसुर जंगछुब छोदेन ने परम पावन, गदेन ठिपा और अन्य प्रतिष्ठित अतिथियों का स्वागत किया तथा बैठक के उद्घाटन के लिए गदेन-धारक को आमंत्रित किया। ठि रिनपोछे ने घोषित किया कि इस शुभ अवसर पर जब परम पावन ने प्रवचन व अभिषेक दे रहे हैं और बोधगया में गेलुगपा (मोनलम) प्रार्थना उत्सव मनाया जा रहा है तो इसकी चर्चा करना उपयुक्त है कि गेलुगपा के शिक्षा केन्द्रों में शिक्षा में किस तरह का सुधार लाया जाए। उन्होंने परम पावन के प्रवचनों और सलाह के लिए कृतज्ञता व्यक्त की और प्रार्थना की कि वे दीर्घायु हों।
"बुद्ध की शिक्षा चित्त को वश में करने से संबंधित है न केवल आस्था के आधार पर अपितु कारण तथा तर्क के आधार पर," परम पावन ने कहा "यद्यपि तिब्बत में आम जनता ने इस पर अधिक ध्यान नहीं दिया। अध्ययन और सीखना यह विहारीय आवासियों का उत्तरदायित्व था। १९५९ में हमारे निर्वासन में आने के बाद, हमने अपनी शिक्षा केंद्रों की पुनर्स्थापना की। पर १९७३ में मेरी प्रथम यूरोप यात्रा के बाद ही मैं इस बात को समझ पाया कि हम दूसरों से सीख सकते हैं और वे हमसे बहुत कुछ सीख सकते हैं।
"हम शास्त्रीय भारतीय ग्रंथों में अबौद्ध दृष्टिकोण के विषय में पढ़ते हैं। अब जब हमारे पास अवसर है तो हमें उन लोगों को आमंत्रित करना चाहिए जो इस तरह की विचारधारा रखते हैं कि वे अपना ज्ञान हमारे साथ साझा कर सकें। शताब्दियों से हमने अपनी परम्पराओं को संरक्षित रखा है, पर वे बहुत अधिक विकसित नहीं हुईं हैं। विहारीय महाविद्यालयों में जे रिनपोछे के लेखन या भारतीय शास्त्र के बजाय विशिष्ट महाविद्यालय के पाठ्य पुस्तकों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। हमें अपने अध्ययन की सीमा का विस्तार करना चाहिए। उदाहरणार्थ यह भी अच्छा होगा, यदि गेलुगपा यह सीख लें कि ञिंङमा क्या कहना चाहते हैं और ञिंङमापा गेलुगपा के सिद्धांतों पर ध्यान दें। हमें अपनी परंपराओं में पुनः प्राण भरने की आवश्यकता है। इस समय उदासीन रहना भविष्य में मात्र कठिनाइयों का कारण बनेगा। हमें वर्तमान परिस्थितियों का आकलन करने और यह देखने की आवश्यकता है कि जो हम कर रहे हैं उसमें कमी या त्रुटियाँ हैं अथवा नहीं जिन पर हम काबू पा सकते हैं।"
गेशे को उत्तर देते हुए जिन्होंने सभा को बताया था कि उन्होंने बीस से अधिक वर्षों तक अध्ययन किया था, पर उन्होंने यह अनुभव नहीं किया कि उससे आंतरिक परिवर्तन हुआ है, परम पावन सहमत हुए कि विद्वत्ता के अतिरिक्त, वास्तविक अनुभव वाले व्यक्तियों की तत्काल आवश्यकता है।
एक अन्य शिक्षक ने मंगोलिया में एक कठोर समस्या के सामना करने का उल्लेख किया, जो एक पारम्परिक गेलुगपा गढ़ है। दोलज्ञल के समर्थक भ्रांति फैलाते हुए बल देकर कहते हैं कि वे गेलुगपा श्रुति परम्पराओं के वास्तविक धारक हैं, जो भ्रम उत्पन्न करता है। इसके अतिरिक्त, स्थानीय लोगों का धर्मांतरण करने हेतु ईसाई मिशनरी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थापना करते हैं। इस तरह के व्यवहार को लेकर अपनी अस्वीकृति व्यक्त करते हुए, परम पावन ने स्पष्ट किया कि वे इस बात को लेकर अत्यंत सावधानी बरतते हैं, कि वे यहूदियों - ईसाई देशों में बौद्ध शिक्षाओं का प्रचार करने वाले न प्रतीत हों।
परम पावन ने अपनी अंतिम टिप्पणी में उल्लेख किया कि यद्यपि विहारीय शिक्षा केंद्रों में अध्ययन की श्रमसाध्य परम्परा को अच्छी तरह से बहाल किया गया है, परन्तु इससे विद्यालय के छात्र प्रभावित हुए नहीं जान पड़ते, जिनकी महत्वाकांक्षाएं और आकांक्षाएं पश्चिम की और अधिक प्रवृत्त हो रही हैं। "यह," उन्होंने कहा, "चिन्तन का विषय है।"