बेंगलुरू, भारत, कल प्रातः गोवा से प्रस्थान कर परम पावन दलाई लामा ने बेंगलुरू के लिए एक लघु उड़ान भरी। वह गाड़ी से शहर की ओर गए और कर्नाटक में रहने वाले तिब्बतियों के एक बड़े दल ने होटल में उनका स्वागत किया। टाशी शोपा और ज्ञल शे नर्तकियों ने होटल के सामने वाले प्रांगण में कार्यक्रम प्रदर्शित किया, जबकि तिब्बती पोशाक में युवा तथा युवतियों ने पारंपरिक 'छेमा छंगफू' का समर्पण किया। गदेन ठि रिनपोछे और उनके पश्चात अन्य कनिष्ठ लामाओं ने औपचारिक रूप से परम पावन का अभिवादन किया। तिब्बती आवासों के विभिन्न महाविहारों के उपाध्याय लॉबी के लिफ्ट तक पंक्तिबद्ध थे। परम पावन समय रहते मध्याह्न के भोजन के लिए अपने कमरे पहुंचे।
आज सुबह बाहर जाने से पहले, परम पावन ने शोभा नारायण जो एक पत्रकार, लेखिका और बंगालोरियन हैं, को एक साक्षात्कार दिया। उन्होंने उनसे यह पूछते हुए प्रारंभ किया कि उन्होंने आयु के अधिक होने के बारे में क्या सीखा है और परम पावन ने उन्हें बताया कि यह व्यक्ति के अनुरूप विभिन्न होगा। अपने संबंध उन्होंने कहा कि वे नालंदा परम्परा में तर्क और तर्क के पूर्ण उपयोग में प्रशिक्षित हैं। हालांकि, एक बालक के रूप में, वह अध्ययन करने को लेकर अनिच्छुक थे, पर जैसे जैसे समय बीता उन्होंने जो कुछ सीखा था वे उसके मूल्य की सराहना करने लगे।
यह पूछे जाने पर कि क्या यह पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग होगा, परम पावन ने स्पष्ट रूप से उत्तर दिया कि चित्त के प्रशिक्षण में मानसिक चेतना शामिल है और उस स्तर पर लिंग का कोई अंतर नहीं होता। हम चित्त को केंद्रित करना सीख सकते हैं ताकि यह आकर्षणों के पीछे न दौड़ सके और फिर दृश्य वस्तुओं और उनके गहन यथार्थ, तथा क्रोध और ईर्ष्या जैसी विनाशकारी भावनाओं के अंकुश में आ जाने के नुकसान का विश्लेषण करने के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं।
जब नारायण ने परम पावन से पूछा कि क्या वह कभी उदासी का अनुभव करते हैं और उस संबंध में वे क्या करते हैं तो उन्होंने टिप्पणी की, कि प्रातः उन्होंने युवाओं को अपनी खिड़की से व्यायाम करते देखा और सोचा कि ऐसा वे अब और नहीं कर सकते। उसने पूछा कि क्या उन्हें कोई पछतावा है और उन्होंने उसे बताया कि जब वह अपने जीवन की ओर मुड़ कर देखते हैं तो वे संतुष्टि का अनुभव करते हैं कि महत्वपूर्ण अवसरों पर में किए गए निर्णय उचित थे।
नारायण ने आगे परम पावन से, भय, दुनिया में सद्भाव स्थापित करने और उनके प्रिय भोजन के बारे में पूछा। आखिरी उत्तर देते हुए उन्होंने टिप्पणी की, कि बुद्ध के अनुयायी जो कुछ भी दिया जाए वे खाते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि बुद्ध का संबंध कोई निश्चित संस्थान से नहीं था और उनकी कोई रसोई नहीं थी, यहाँ तक कि कोई जूते भी नहीं, उनके पास मात्र उनका भिक्षा पात्र और चीवर थे।
परम पावन गाड़ी से वेस्ट एंड होटल गए जहां केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) द्वारा तिब्बतियों के निर्वासन के ६०वें वर्ष में भारत के प्रति कृतज्ञता वर्ष के अंग के रूप में 'धन्यवाद कर्नाटक' कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा था। परम पावन मुख्य अतिथि कर्नाटक के मुख्यमंत्री, एच. डी. कुमारस्वामी के स्वागत के लिए बाहर आए और वे दोनों सभागार के भीतर एक साथ गए। हर कोई भारतीय और तिब्बती राष्ट्रीय गीतों के लिए खड़ा हुआ।
तिब्बती समुदाय के स्थानीय मुख्य प्रतिनिधि, छोफेल थुबतन ने परम पावन, मुख्यमंत्री, प्रोफेसर निजलिंगप्पा, केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के अध्यक्ष डॉ लोबसंग सांगे, निर्वासित तिब्बती संसद के अध्यक्ष, खेनपो सोनम तेनफेल और उपस्थित अन्य सभी का स्वागत किया। उन्होंने भारत और तिब्बत के बीच सदियों पुराने संबंधों की ओर संकेत किया और टिप्पणी की कि बौद्ध धर्म तिब्बती अस्मिता का अंग बन गया है। उन्होंने स्मरण किया कि जिसे १९५६ में पहली बार मैसूर राज्य का रूप दिये गये थे वह १९७३ में कर्नाटक राज्य बना और तिब्बतियों को राज्य के लोगों और सरकार से प्राप्त समर्थन को समारोह का रूप दिया गया।
भोट भाषा में बोलते हुए खेनपो सोनम तेनफेल ने उल्लेख किया कि भारत और तिब्बत ने १००० वर्षों से अधिक घनिष्ठ संबंध बनाए रखा है। उन्होंने पूर्व भारतीय प्रधान मंत्री मोराजी देसाई का कथन उद्धृत किया कि भारत और तिब्बत बोधि वृक्ष की दो शाखाएं हैं।
डॉ. लोबसंग सांगे अंग्रेजी में बोले, "जैसा कि परम पावन ने सलाह दी है, हम अपने पुराने मित्र बनाए रखते हैं और नए बनाते हैं। हम उन सब का स्मरण करते हैं और उन सभी के आभारी हैं जिन्होंने हमें सहायता प्रदान की है। इस वर्ष, केंद्रीय तिब्बती प्रशासन भारत और सुंदर कर्नाटक को आपके द्वारा दिखाई गई दयालुता तथा उदारता के लिए धन्यवाद कह रहा है। मुख्यमंत्री एच. डी. कुमारस्वामी ने कर्नाटक के लोगों के लिए उपलब्ध सुविधायें तिब्बतियों तक पहुंचाईं हैं। इस राज्य में भारत की सबसे बड़ी तिब्बती आबादी है, तिब्बती भिक्षुओं और भिक्षुणियों की सबसे बड़ी संख्या और तिब्बती स्कूलों की सबसे बड़ी संख्या है।
"इस बीच तिब्बत में इस तरह का उत्पीड़न है कि १५२ लोगों ने विरोध में आत्मदाह किया। तिब्बती अपने ही भूमि में दूसरे वर्ग के नागरिक हैं। वे आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं। इसके विपरीत, भारत में और विशेष रूप से कर्नाटक में, तिब्बतियों के पास अवसर हैं - इसके लिए हम सदैव आभारी रहेंगे और आपको धन्यवाद कहना हमारी स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।"
डॉ सांगे ने दर्शकों को कनाडा में एक तिब्बती की कहानी से हंसाया जिसे एक यातायात अपराध के लिए किनारे कर दिया गया था, पर बातों ही बातों उन्हें पता लगा कि पुलिसकर्मी मूल रूप से कर्नाटक से आया था। कन्नड़ (कर्नाटक की भाषा) में अनुभवों का आदान-प्रदान करने का आनंद लेते हुए वे यातायात टिकट के सभी बातें भूल गए।
उनके परिवार के प्रति कृतज्ञता के प्रतीक के रूप में, परम पावन ने पूर्व मुख्यमंत्री निजलिंगप्पा के सबसे छोटे बेटे प्रोफेसर एस. निजलिंगप्पा को धर्म चक्र प्रस्तुत किया जो राज्य में तिब्बतियों के पहले मित्र थे। तेनज़िन छोडेन ने कन्नड़ में एक गीत गाया।
मुख्य मंत्री एच. डी. कुमारस्वामी ने सभा को बताया कि परम पावन के सान्निध्य में होना एक सौभाग्य व सम्मान था। उन्होंने स्मरण किया कि निजलिंगप्पा ने तिब्बतियों को भूमि प्रदान किया था जिस पर उन्होंने पांच आवासों की स्थापना की थी। उन्होंने तिब्बती कर्नाटक में किए गए तिब्बती योगदान को स्वीकार किया और उन्हें शुभकामनाएँ दी।
इसके उपरांत तिब्बत के तीन प्रांतों के लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले नृत्य का प्रदर्शन हुआ।
परम पावन ने कर्नाटक जनता के प्रति कृतज्ञता के रूप में मुख्यमंत्री को धर्म चक्र प्रस्तुत किया, साथ ही साथ जिलों, जिसमें तिब्बती बस्तियों को शामिल थे, के विधायकों को उपहार भी प्रदान किए गए।
परम पावन ने मेरे सम्मानित भाइयों और बहनों का अभिवादन कर अपना संबोधन प्रारंभ किया। "यह मेरे लिए गौरव की बात है कि मुझे कर्नाटक राज्य और यहाँ के लोगों की मैत्री और समर्थन के लिए धन्यवाद देने का अवसर प्राप्त हुआ है। हम तिब्बती कभी भी आपकी दयालुता नहीं भूलेंगे। हमें तिब्बत में १९५६ से समस्याओं का सामना करना पड़ा जब चीनी अधिकारियों ने हम पर वही सुधार लागू किए, जो उन्होंने मूल भूमि चीन में लागू किए थे। ये सुधार तिब्बत के लिए अनुपयुक्त थे और तिब्बतियों ने उसका प्रतिरोध किया। १९५९ तक पूरे देश में उत्पीड़न हुआ, जिसने और अधिक प्रतिरोध को जन्म दिया।
"१९५४ में, मैं चीन गया और कई बार अध्यक्ष माओ से मुलाकात की। साम्यवाद के बारे में मैंने जो कुछ सीखा, उसने मुझे आकर्षित किया। जब १९५५ में मैं घर लौटा तो मैंने जनरल झांग गुओहुआ से भेंट की और उनसे कहा कि जब मैं पिछले वर्ष निकला था तो आशंकाओं से भरा हुआ था पर मैं आत्मविश्वास से भरा हुआ लौट रहा था। परन्तु १९५६ से स्थितियाँ बिलकुल अलग हो गईं।
'जब हम १९५९ में भारत पहुंचे तो पंडित नेहरू ने मुझे महत्वपूर्ण सलाह दी कि यदि हम तिब्बती मुद्दे को जीवित रखने की इच्छा रखते हैं, तो हमें अपने बच्चों को शिक्षित करने की आवश्यकता है। ऐसा करने और भोट भाषा को संरक्षित करने के लिए हमें अलग-अलग स्कूलों की आवश्यकता होगी। उन्होंने स्कूल स्थापित करने में हमारी सहायता की। उन्होंने तिब्बती आवासों को स्थापित करने की हमारी इच्छा का भी समर्थन किया और विभिन्न राज्यों को लिखा कि क्या कोई आवश्यक भूमि प्रदान कर सकता है। निजलिंगप्पा, जिनसे मैं पहली बार मिला था जब मैं १९५६ में भारत आया, ने सबसे अधिक उदार प्रतिक्रिया प्रस्तुत की।
"तिब्बत में जिस सांस्कृतिक विरासत को हमने जीवित रखा वह मूल रूप से भारत से आई थी। ७वीं शताब्दी में तिब्बती सम्राट ने देवनागरी वर्णमाला और संस्कृत व्याकरण के आधार पर भोट लिखित भाषा के निर्माण का प्रारंभ किया। ८वीं शताब्दी में, सम्राट ने नालंदा विश्वविद्यालय के शीर्ष विद्वानों को तिब्बत आने और बौद्ध धर्म की स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया। उस समय से हमने नालंदा परम्परा को जीवित रखा है। इसमें जो ज्ञान निहित है वह आज प्रासंगिक बना हुआ है।
"आज, जब विश्व को भावनात्मक संकट का सामना करना पड़ रहा है, तो उसका समाधान मात्र प्रार्थना में नहीं पाया जा सकता, अपितु चित्त को प्रशिक्षित करने में, अपनी विनाशकारी भावनाओं को कम करने और उन भावनाओं को प्रबल करने की शिक्षा में है जो सकारात्मक हैं। इस संदर्भ में मैंने भारत में प्राचीन भारतीय ज्ञान की सराहना को पुनर्जीवित करने के प्रयास हेतु स्वयं को प्रतिबद्ध किया है। मेरा मानना है कि भारत एकमात्र ऐसा देश है जो आधुनिक शिक्षा के साथ प्राचीन मनोविज्ञान और चित्त की समझ को जोड़ सकता है।
"जब हम पहली बार शरणार्थियों के रूप में पहुंचे, तो हम हतोत्साहित थे, पर ६० वर्षों के बाद हमने अपने आत्मविश्वास का पुनर्निर्माण किया है और यह देख पा रहे हैं कि हम किस तरह व्यापक लाभ में योगदान दे सकते हैं। यह भारत सरकार के समर्थन के कारण है, जो पंडित नेहरू की अनुकम्पा के साथ प्रारंभ हुई।
"४० वर्ष पहले की तुलना में, चीन में बहुत परिवर्तन हुआ है। तिब्बत का भी एक अच्छा भविष्य है। हतोत्साहित होने का कोई आधार नहीं है, हमें अपने उत्साह को बनाए रखना चाहिए और अपने मित्रों को उनकी उदारता के लिए धन्यवाद देना चाहिए।"
जिगमे छुलठिम ने उन सभी लोगों का धन्यवाद किया, जिन्होंने आज के कार्यक्रम को सफल बनाने में योगदान दिया था, साथ ही उन व्यक्तियों और संगठनों के प्रति जिन्होंने वर्षों से तिब्बतियों के प्रति मैत्री भाव दिखाया है।
परम पावन के सभागार से निकलते समय लोगों में से कइयों ने परम पावन तक पहुंचने का प्रयास किया और गाड़ी में बैठने से पहले परम पावन लोगों का अभिनन्दन करने हेतु पलटे। वे मध्याह्न भोजन के लिए अपने होटल पहुँचे और अपने दिन के कार्यक्रमों का अंत किया। कल वे होटल में विद्यालोके के सदस्यों से बात करेंगे।