बेंगलुरु, भारत, वर्तमान भारतीय यात्रा के दौरान परम पावन दलाई लामा का अंतिम कार्यक्रम दलाई लामा इंस्टीट्यूट फॉर हायर एजुकेशन(दलाई लामा उच्च शिक्षा संस्थान) की यात्रा थी। आज प्रातः तड़के ही जब नभ अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक स्वच्छ था उन्होंने बेंगलुरू शहर से मैसूर रोड पर शेषगृहली संस्थान की ओर प्रस्थान किया।
महिलाओं के गायन से उनका स्वागत किया गया और उन्हें पारंपरिक तिब्बती छेमा छंगफू भेंट किया गया। पुरुषों के नूतन छात्रावास ब्लॉक में उनका अनुरक्षण किया गया और अपने उद्घाटन को चिह्नित करने के लिए उन्हें एक स्मारक पट्टिका का अनावरण करने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने स्टैब कैसर फाउंडेशन के बोर्ड के सदस्यों और स्विट्जरलैंड के ज्यूसेपे कैसर फाउंडेशन को बधाई दी जिन्होंने निर्माण में सहयोग दिया है।
संस्थान के कार्यालय में परम पावन ने गेशों से भेंट की, जो दलाई लामा ट्रस्ट के समर्थन से अंग्रेजी और चीनी का गहन अध्ययन कर रहे हैं। उनके साथ बैठकर उन्होंने पहले पूछा कि वे किस महाविहार से संबंधित थे, कितने लोगों का जन्म तिब्बत में और कहाँ हुआ था।
उन्होंने कहा, "विगत ६० वर्षों में हमें नए अनुभव मिले हैं। तिब्बत में हमने पहले शांतरक्षित के निर्देशों के अनुसार अध्ययन किया था, जिन्हें ठिसोंग देचेन ने ८वीं शताब्दी में तिब्बत में आमंत्रित किया था। पालि परम्परा के अनुयायी जब चार आर्य सत्यों और उनके आकारों को व्याख्यायित करते हैं तो आगमों के प्रभुत्व को उद्धृत करते हैं। हाल ही में मिले थाई विद्वानों के एक समूह ने मुझे यह बताया। इसके विपरीत, हमारी परम्परा, जिसका जन्म नालंदा विश्वविद्यालय में हुआ था, कारणों पर निर्भर होते हुए प्रखर बुद्धि वाले लोगों के मार्ग का अनुसरण करती है। शांतरक्षित की अनुकम्पा और धर्म प्रिय राजाओं के कठोर परिश्रम के कारण हमें यह अद्भुत परंपरा विरासत में मिली है।
"इन दिनों हम आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ चर्चा कर रहे हैं। जब हम क्वांटम भौतिकी के बारे में बात करते हैं तो वे हमारे प्रतीत्य समुत्पाद स्पष्टीकरण की सराहना करते हैं। हमने भी उनसे सीखा है। उदाहरण के लिए ब्रह्मांड विज्ञान के वैज्ञानिक दृष्टिकोण में मेरु पर्वत के लिए कोई स्थान नहीं है। हमने यह परीक्षण करने के लिए कि बुद्ध की शिक्षाओं को शब्दशः लिया जाना चाहिए अथवा उन्हें नेयार्थ माना जाना चाहिए, नालंदा आचार्यों का भी अनुपालन किया है।
"जब मैंने पहली बार चर्चाओं में वैज्ञानिकों को शामिल करने के बारे में सोचा, तो एक पाश्चात्य मित्र ने मुझे यह कहते हुए चेतावनी दी, 'विज्ञान धर्म का हत्यारा है'। मैंने तब बुद्ध की सलाह पर चिंतन किया कि उन्होंने जो कुछ सिखाया है उसे जस का तस न लिया जाए, पर उसका उसी तरह से परीक्षण किया जाए जिस तरह स्वर्णकार सोने की परख करता है और निश्चय किया कि बहुत अधिक खतरा नहीं था। परन्तु जब मैंने सुझाया कि भिक्षु अपने पाठ्यक्रम के अंग के रूप में अंग्रेजी और विज्ञान सीखें तो विहारों में जो वरिष्ठ भिक्षु थे, वे प्रारंभ में चिंतित थे कि यह उन्हें विचलित करेगा।
"अन्य भाषाओं को सीखना जैसा कि आप कर रहे हैं महत्वपूर्ण है। यह आपके लिए दूसरों की सेवा करने का एक तरीका है। अपनी प्रार्थनाओं में हम कहते हैं, 'मैं बोधिचित्त उत्पन्न करता हूँ और सभी सत्वों को अपने अतिथियों के रूप में बुलाता हूँ ...', पर हमें कुछ व्यावहारिक करने की आवश्यकता है जैसा आप कर रहे हैं।
परम पावन बाहर एम्फीथिएटर तक गए, जो संस्थान की इमारतों के बीच में स्थित है, जहां अनुमानित ६००० लोग एकत्रित हुए थे। वे कुछ लोगों का अभिनन्दन करने और कुछ लोग जो उनके सान्निध्य से अभिभूत होकर रुआंसे थे, को सांत्वना देने के लिए रुके। हमेशा की तरह परम पावन ने बैठने से पहले मंच के समक्ष के जनमानस का अभिनन्दन करने के लिए समय निकाला।
अपने सारांश रिपोर्ट में, प्राचार्या डॉ. बी. छेरिंग ने परम पावन के साथ मैसूर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर आर. रंगप्पा और बैंगलोर विश्वविद्यालय के कुलपति, प्रोफेसर के. आर. वेणुगोपाल और स्विट्जरलैंड के दानकर्ताओं का स्वागत किया। उन्होंने बताया कि अब तक छात्र बीए स्नातक अर्जित करने में सक्षम हैं, परन्तु एमए कार्यक्रम प्रारंभ करने की योजनाएं प्रारंभ हो रही हैं, और जिसके बाद बीए, बी कॉम, बीसीए इत्यादि और साथ ही पीएचडी और अन्य विशेषज्ञताओं की संभावनाएँ भी हैं। अब तक २७५ छात्रों ने यहाँ से स्नातक की उपाधि प्राप्त की है।
प्राचार्या ने यह भी उल्लेख किया कि छात्रों को धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के बारे में सीखने का अवसर प्राप्त है। इस बीच विदेश से युवा तिब्बती संस्थान में भोट भाषा और संस्कृति में गहन प्रशिक्षण लेने के लिए आ रहे हैं। उन्होंने इस कामना के साथ समाप्त किया कि परम पावन दीर्घायु हों और उनकी सभी आकांक्षाएँ पूरी हों।
टीसीवी के अध्यक्ष, थुबतेन दोर्जे ने डीएलएचई प्रायोजन के संदर्भ में सहयोग की बात की। उसके बाद मैसूर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर आर. रंगप्पा की बारी थी। उन्होंने कहा कि जो बात डीएलआइएचई को उच्च शिक्षा के अन्य संस्थानों से अलग करती है वह यह, कि सबसे पहले इसका संबंध पैसा बनाने से नहीं है। उन्होंने कहा यहां छात्र जीवन की कला और विज्ञान सीखते हैं। उन्होंने उच्च स्तर की भोट भाषा के उपयोग में रखने के प्रयासों के लिए अपना समर्थन व्यक्त किया क्योंकि एक बार भाषा की संस्कृति खो जाए तो सब कुछ खो जाता है। उन्होंने अब तक जो कुछ प्राप्त किया है, उसके लिए संस्थान को बधाई दी।
बैंगलोर विश्वविद्यालय के कुलपति, प्रोफेसर के. आर. वेणुगोपाल ने अपनी बारी में यह कहा कि वे परम पावन की उपस्थिति में कितने सम्मान का अनुभव कर रहे थे। उन्होंने छात्रों और कर्मचारियों को आश्वासन दिया कि बीए, बीसीए और बीकॉम पाठ्यक्रम इस वर्ष के अंत में उपलब्ध होना चाहिए। उन्होंने छात्रों से वादा किया कि बैंगलोर विश्वविद्यालय में उनके पास लाई गई किसी भी समस्या का समाधान तत्काल वहीं किया जाएगा।
परम पावन ने टिप्पणी की, "इस शैक्षणिक संस्था की शुरुआत आरंभ से हुई पर तब से यह निरंतर बढ़ रहा है। अब यह गर्व करने योग्य बन गया है। इन दोनों कुलपतियों ने हमें उनके समर्थन का आश्वासन दिया है और तिब्बत के ६ लाख लोगों की तरफ से मैं उन्हें धन्यवाद देना चाहता हूं।
"भारत और तिब्बत के अनूठे तथा दीर्घ कालिक संबंध हैं। साधारण भारतीय तिब्बत से अवगत हैं क्योंकि भगवान शिव का निवास पवित्र कैलाश पर्वत वहां है। यह उनके लिए तीर्थयात्रा का स्थल है। तिब्बतियों के लिए, भारत वह स्थान है जहां बुद्ध का निवास था और उन्होंने शिक्षा दी।
"हमने उन कार्यक्रमों के बारे में सुना है जिन्हें विकसित किया जा रहा है और मैं उन्हें हृदय से अपना पूरा समर्थन देता हूं।
"हम केवल शरणार्थी नहीं हैं, हम तिब्बत में हुए उत्पीड़न से निर्वासित हैं। हमें तिब्बत के लोगों को कभी नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि वे किसी रूप में स्वतंत्र नहीं हैं और हम उनके प्रतिनिधि हैं।
"चीनी पुरातत्त्वविदों ने ३५,००० वर्षों से पहले एक तिब्बती संस्कृति का प्रमाण पाया है। किर्गिस्तान के आगंतुकों ने मुझे एक तिब्बती मणि पत्थर की एक तस्वीर दिखायी जो कि उनके देश में दफन किए गए ताबूत पर पाया गया था, जो इंगित करता है कि एक समय तिब्बत का प्रभाव कितनी दूर दूर तक था।
जब सम्राट सोंगचेन गमपो ने एक चीनी राजकुमारी से विवाह किया, तो वे अपने साथ बुद्ध की प्रतिमा को तिब्बत लाईं। मैंने शीआन की पुरानी चीनी राजधानी में एक मंदिर में आला देखा है जहाँ इसे रखा गया था। जब मैं वहां था तो मुझे यह भी बताया गया कि अतीत में तिब्बती सेना ने शहर में इसकी बाहरी दीवारों पर घेराबंदी की थी।
"चीनी दस्तावेज बताते हैं कि ७वीं, ८वीं, और ९वीं शताब्दी में तीन अलग साम्राज्य विकसित हुए: चीन, मंगोलिया और तिब्बत। विद्वानों ने मुझे यह भी बताया है कि तांग से मांचू राजवंशों के ऐतिहासिक अभिलेखों में तिब्बत के चीन का हिस्सा होने का कोई उल्लेख नहीं है। अगर ऐसे कोई संदर्भ थे, ऐसा लगता है कि वे तिब्बती लामाओं द्वारा स्वयं के लिए चीनी सम्राट का अनुग्रह पाने के लिए थे।
"समये विहार की स्थापना शांतरक्षित तथा पद्मसंभव द्वारा की गई। यही स्थान था जहाँ शांतरक्षित के मार्गदर्शन में संस्कृत बौद्ध साहित्य का भोट भाषा में अनुवाद प्रारंभ हुआ। इसके परिणामस्वरूप आज हमारे पास कंग्यूर और तेंग्यूर हैं। शांतरक्षित न केवल एक गहन दार्शनिक थे, वह भी एक चतुर तर्कशास्त्री भी थे। उन्होंने तिब्बतियों को दर्शन और तर्क दोनों के अध्ययन का परिचय कराया। कुछ चीनी विद्वानों ने सुझाव दिया है कि कारण और तर्क का उपयोग बौद्धों को वैज्ञानिकों के साथ इतनी अच्छी तरह से व्यवहार करने में सक्षम बनाता है।"
परम पावन ने कहा विगत ७० वर्षों में, तिब्बतियों ने अनगिनत दुःखों का सामना किया है। जब पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने तिब्बत में प्रवेश किया और ल्हासा पर आने से पहले लिथंग पर हमला किया, तो उनके रिकॉर्ड बताते हैं कि ३००,००० तिब्बती मारे गए थे। तिब्बत को निगलने और इसे पचाने में नाकाम रहने के कारण, ऐसा लगता है कि कट्टरपंथी इसे पुन: उगलने को लेकर चिंतित हैं।
यद्यपि तिब्बत में रह रहे तिब्बती इस तरह के दमन में हैं पर उनकी भावना और दृढ़ संकल्प प्रबल है। चाहे वे बौद्ध हों या नहीं, वे नहीं भूलते कि वे तिब्बती हैं। अब तक १५२ लोगों ने अपने मातृभूमि की स्थिति के विरोध में आत्म-दाह किया है। वे दूसरों पर आक्रमण कर सकते थे और उन्हें क्षति पहुंचा सकते थे, पर उन्होंने स्वयं को हानि पहुंचाई।
परम पावन ने श्रोताओं को बताया कि उन्होंने सुना है कि लोग कहते हैं कि जब तक वे जीवित हैं वे अहिंसक बने रहेंगे, पर उसके बाद, कौन जानता है। उन्होंने उनसे अपील की कि चाहे जो भी स्थिति हो वे अहिंसक बने रहें। उन्होंने कहा कि वे अभी भी तिब्बत में सकारात्मक परिवर्तन देखने की आशा रखते हैं।
"हम अनूठे लोग हैं जिनकी संस्कृति अनूठी है जिसको लेकर हमें गौरवान्वित होने का हर कारण है। कभी न भूलें कि आप तिब्बती हैं। आरंभिक दिनों में लोगों ने कर्नाटक में जंगल को साफ़ करने के लिए बहुत कठिन परिश्रम किया ताकि स्कूल आदि का निर्माण किया जा सके। वह पीढ़ी जिसने महाविहारीय विश्वविद्यालयों को पुनः स्थापित किया, वे लगभग जा चुकी है पर उनके कर्मों के फल बने हुए हैं। उन प्रारंभिक दिनों में वे मुझसे शिकायत करने के लिए आते थे कि यह स्थान इतना गर्म था कि उन्हें लगता था कि वे निश्चित रूप से मर जाएंगे। जब मैं पुनः आया, तो मैं उनके साथ मज़ाक कर सका कि वे अभी भी जीवित थे। मैंने उनसे कहा - 'कभी हार न मानें।' इन दिनों आपके पास बहुत बेहतर सुविधाएं हैं, लेकिन आपके पास अधिक अवसर भी हैं।
"अंत में, मैं इस देश में चित्त और भावनाओं के प्रकार्य के संबंध में प्राचीन भारतीय ज्ञान में रुचि को पुनर्जीवित करने के प्रयास के लिए अपनी नवीनतम प्रतिबद्धता का उल्लेख करना चाहता हूं। मुझे आशा है कि यह संस्थान इस में एक भूमिका निभा सकता है।"
डीएलआईएचई के उप-प्राचार्य दावा छेरिंग ने धन्यवाद के शब्द व्यक्त किए और परम पावन की दीर्घायु की प्रार्थना के साथ समाप्त किया।
तत्पश्चात परम पावन संस्थान से सीधे बैंगलोर हवाई अड्डे गए जहां से उन्होंने दिल्ली के लिए उड़ान भरी। वे कल धर्मशाला लौटेंगे।