ज़्यूरिख, स्विट्ज़रलैंड, आज प्रातः तिब्बत-संस्थान रिकॉन की ५०वीं वर्षगांठ के आगे के समारोहों में भाग लेने के लिए विंटरथुर जाने से पहले, परम पावन दलाई लामा ने इस्लामी विद्वान और पत्रकार अमिरा हाफनर-अल जबाजी द्वारा संचालित स्विस टेलीविजन को एक साक्षात्कार दिया। उन्होंने तिब्बत-संस्थान रिकॉन के महत्व के विषय में पूछते हुए प्रारंभ किया।
परम पावन ने उत्तर दिया, "सबसे पहले तो स्विस लोगों ने १००० तिब्बती शरणार्थियों के लिए काम और घर उपलब्ध कराने का प्रस्ताव रखा जिन्होंने तिब्बती समुदाय का गठन किया। चूंकि बौद्ध धर्म तिब्बती संस्कृति के केंद्र में है, अतः सांस्कृतिक संस्थान के रूप में एक छोटा विहार का निर्माण सार्थक जान पड़ा। वहाँ भिक्षु मानव मस्तिष्क और भावनाओं के बारे में शिक्षा दे सकते थे, जिसका अध्ययन निस्सन्देह एक अकादमिक दृष्टिकोण से भी किया जा सकता है। प्रारंभ में कुह्न भाई तिब्बतियों की सहायता करना चाहते थे। बाद में, उन्हें अनुभव हुआ कि तिब्बती संस्कृति कुछ अनूठी थी और वे इसे संरक्षित रखने में सहायता करना चाहते थे।"
हैफर ने परम पावन से स्विट्ज़रलैंड के बारे में उनके विचार पूछे और उन्होंने उनसे कहा कि तिब्बत की तरह यह एक पहाड़ी देश है जहाँ का हवा शुद्ध, स्वच्छ है, परन्तु यह बहुत अधिक विकसित है। उन्होंने आगे कहा कि जब वे तिब्बत में थे, तो वे स्विट्ज़रलैंड को अधिकतर घड़ियों के साथ जोड़ते थे, विशेष रूप से रोलेक्स को उसके पांच-बिंदु के ताज प्रतीक के साथ।
हैफर ने स्विस परिवारों द्वारा पोषित किए गए १५६ तिब्बती बच्चों का उल्लेख किया, जिनमें से कुछ को अपने को ढालने की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। परम पावन ने समझाया कि निर्वासन के प्रारंभिक दिनों में, कई तिब्बतियों कम समृद्ध थे और वे सड़क निर्माण का काम करते थे। तिब्बती बच्चों के लिए सहायता का प्रस्ताव मानों उनके जीवन को बचाने के एक प्रस्ताव के रूप में प्रतीत हुआ।
उनके शब्दों का संदर्भ देते हुए, कि कभी-कभी हम उस लक्ष्य तक नहीं पहुंचते जिसे हम चाहते हैं, पर कई बार उस तक पहुंचते हैं जिसकी हमें आशा न थी - हैफर ने पूछा कि क्या उनके साथ ऐसा हुआ था। "हाँ," परम पावन ने उत्तर दिया, "शरणार्थियों के रूप में हमने अपना देश खो दिया, पर इससे अन्य अवसर सामने आए हैं। अगर मैं तिब्बत में रहता, जैसा था, तो मेरा जीवन अधिक प्रतिबंधित और एकाकी हो गया होता। शरणार्थी बनने से कई तिब्बतियों को आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। इस बीच, हमने विहारीय संस्थानों में प्रशिक्षण का पुनरुद्धार किया। परिणामस्वरूप, भारत में अब हमारे लगभग १०,००० भिक्षु हैं, जो पूर्ण रूप से प्रशिक्षित हैं और सिखाने में सक्षम हैं, साथ ही साथ कुछ हज़ार भिक्षुणियां भी हैं।
"विश्व एक भावनात्मक संकट से गुज़र रहा है, जिसका समाधान मात्र चित्त प्रशिक्षण है। शारीरिक स्वच्छता के पूरक के रूप में हम शारीरिक रूप से तन्दुरुस्त रहते हैं, हमें चित्त को प्रबल करने के लिए भावनात्मक स्वच्छता की आवश्यकता है।"
जब परम पावन विंटरथुर के लिए रवाना हुए तो रात भर के बाद नभ मेघ से आच्छादित था और हवा में शीतलता थी। यूलाचल में पहुंचने पर वह सीधे कार से मंच पर जा सके, 'छेमा छंगफू' के लिए और रास्ते में नर्तकियों से विनोद के लिए रुके। परम पावन के आसन ग्रहण करने के उपरांत प्रार्थनाओं का पाठ किया गया: दीर्घायु प्रार्थना, आठ मङ्ल शगुन इत्यादि।
रिकॉन के उपाध्याय, खेनपो थुबतेन लेगमोन ने प्रतिष्ठित अतिथियों, परम पावन और उनके बीच स्विस सरकार के प्रतिनिधियों का स्वागत किया। उन्होंने समझाया कि, किस तरह परम पावन के करुणाशील मार्गदर्शन के तहत, वे और तिब्बत-संस्थान रिकॉन (टीआईआर) के भिक्षु तिब्बत के धर्म और संस्कृति को संरक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने श्रोताओं के मित्रों से अनुरोध किया कि वे और ५० वर्षों तक अपना समर्थन बनाएँ रखें। उन्होंने यह भी टिप्पणी की, कि एक ऐसे वर्ष जिसे केंद्रीय तिब्बती प्रशासन ने 'धन्यवाद भारत वर्ष' कहा है, वे स्विस अधिकारियों को उनकी निरंतर सहायता और उदारता के लिए धन्यवाद देना चाहते हैं। उन्होंने एक प्रार्थना के साथ समाप्त किया कि परम पावन दीर्घायु हों और उनके कर्मों का प्रभाव दूर दूर तक फैले।
तत्पश्चात तिब्बती संस्थान रिकॉन की अध्यक्षा, डॉ कर्मा डोल्मा लोबसंग ने इस अवसर पर भाग लेने के लिए परम पावन के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। उन्होंने स्मरण किया कि जब संस्थान बनाने की योजनाएं थीं तथा भूमि पूजन समारोह होने वाला था, चीनी दूतावास ने विरोध व्यक्त किया, जिस पर स्विस सरकार ने कोई ध्यान न दिया। उन्होंने कहा कि चूंकि स्विट्जरलैंड में तिब्बतियों की संख्या में वृद्धि हुई है, टीआईआर के कार्य में परिवर्तन आया है। संस्थान में सभी चार तिब्बती बौद्ध परंपराओं के प्रतिनिधियों के होने का कारण, यह समुदायों के बीच एक सेतु की तरह कार्य करता है। उन्होंने दो स्थानीय राजनेताओं में प्रथम, विंटरथुर के महापौर, माइकल कुंजल का परिचय दिया।
परम पावन को नमन करने के बाद, महापौर कुंजल ने आशा व्यक्त की, कि टीआईआर एक और पचास वर्षों तक शांति और अध्ययन का स्थान हो सकता है। उन्होंने उनकी यात्रा के लिए परम पावन को धन्यवाद दिया जिसने थोड़े समय के लिए उनके शहर को विश्व मानचित्र पर रख दिया है। टीआईआर एक आवश्यकता को पूरा करता है और इसके विभिन्न शिक्षण और अध्ययन कार्यक्रमों में स्पष्ट करता है कि जब आप अपना मन बना लेते हैं तो क्या किया जा सकता है।
ज़्यूरिख के कैंटन परिषद के अध्यक्ष और तिब्बत के लंबे समय के मित्र मारियो फेहर ने घोषित किया कि ज्यूरिख सरकार ने उनकी ५०वीं वर्षगांठ पर टीआईआर को बधाई दी है। उन्होंने आगे कहा, "जैक्स और हेनरी कुह्न ने एक उदाहरण स्थापित किया, उन्होंने न केवल तिब्बतियों को काम दिया, उन्होंने एक सांस्कृतिक केंद्र स्थापित किया जो स्विस जीवन में तिब्बतियों के एकीकरण का प्रतीक है। वे हमारे मित्र व पड़ोसी बन गए हैं; सह नागरिक के रूप में हम एक दूसरे के हैं।
"तिब्बतियों ने अपने प्रयासों के माध्यम से यहां बहुत कुछ प्राप्त किया है, जबकि ज़्यूरिख सरकार ने टीआईआर के विकास के विभिन्न उपायों में योगदान दिया है। इन्होंने ड्रम प्रदान किए जिनके प्रार्थना चक्र बने, पुस्तकालय का विस्तार किया और संस्थान की इमारत के पक्षों का नवीनीकरण किया। टाशी देलेक।"
डॉ कर्मा डोल्मा ने युवा तिब्बतियों के एक समूह का परिचय दिया जो एक गीत प्रस्तुत करने वाले थे, जिसकी रचना उपाध्याय, खेनपो थुबतेन लेगमोन ने की थी। इसके बाद संस्थान की नींव रखने और विकास का वर्णन दर्शित करने वाला एक छोटा वीडियो दिखाया गया।
स्विट्जरलैंड और लिकटेंस्टीन के तिब्बती समुदाय के अध्यक्ष नोरबू समदा ने टीआईआर में आयोजित कक्षाओं की सराहना की जो तिब्बती धर्म और संस्कृति पर केंद्रित है, यह तथ्य कि, कि सभी चार प्रमुख तिब्बती बौद्ध परम्पराओं के भिक्षु टीआईआर का अंग हैं और पुस्तकालय में १२०,००० पुस्तकें हैं।
स्विट्ज़रलैंड के तिब्बती महिला संघ के लिए, श्रीमती पेमा लमदक ने परम पावन और श्रोताओं को सूचित किया कि स्विस टीडब्ल्यू अक्टूबर में ३० वर्ष का होगा। अपनी विभिन्न गतिविधियों में संस्था रिकोन विहार में सभी सत्वों के कल्याण के लिए प्रार्थनाओं और प्रसाद का आयोजन करता है। इस अवसर पर उन्होंने परम पावन को तीन परिवारों के संरक्षक अवलोकितेश्वर, मंजुश्री और वज्रपाणि की मूर्तियाँ भेंट कीं।
स्विस-तिब्बती मैत्री एसोसिएशन के अध्यक्ष थॉमस बुकली ने स्मरण किया कि संघ की स्थापना ३५ वर्ष पूर्व हुई थी और अब वह तिब्बत समर्थन आंदोलन में एक सशक्त प्रतिभागी बन गया है। उन्होंने अपने भाषण का समापन किया, "बोड-ज्ञल-लो"। उसके बाद तिब्बती युवा संघ, यूरोप, पलदेन तमन्येन ने रिपोर्ट पढ़ी और बताया कि उनका संगठन युवा लोगों में तिब्बती भाषा, धर्म और संस्कृति में रुचि बढ़ाने का प्रयास कर रहा है।
एक अन्य तिब्बती गीत के प्रदर्शक तिब्बत के तीन प्रांतों का प्रतिनिधित्व करने वाली वेशभूषा पहने हुए थे।
'बुद्ध के लिए उपहार' नामक रुडॉल्फ होगर द्वारा संकलित और तिब्बत-संस्थान रिकॉन द्वारा प्रकाशित, एक पुस्तक जो चक्र के प्रतीक को समझने का प्रयास करती है जो बौद्ध परम्परा में अष्ट मंगल प्रतीकों में धर्म चक्र बन गया को परम पावन को समर्पित किया गया।
अंत में, परम पावन ने सभा को संबोधित किया:
"मैं सभी प्रतिष्ठित अतिथियों का स्वागत करता हूं, आपको यह स्मरण कराता हूं कि तिब्बत के समर्थक सत्य के समर्थक हैं। मैं यहाँ आकर बहुत प्रसन्न हूं। मेरा रिकोन विहार और विंटरथुर दोनों के साथ एक विशेष संबंध है। मैं यहां चिकित्सा उपचार के लिए आता था।
"एक समय जब तिब्बतियों के एकमात्र मित्र ऊपर का आकाश और नीचे की धरती थी, हमें स्विस रेड क्रॉस के स्विट्ज़रलैंड में १००० तिब्बतियों के निमंत्रण के रूप में सहायता मिली। बाद में, मुझे याद है कि लुडी नामक एक स्विस व्यक्ति का जो बाईलाकुप्पे में आवासों की स्थापना के दौरान खेतों में काम कर रहे तिब्बतियों में शामिल हो गए थे।
"रिकोन विहार एक मंदिर के रूप में स्थापित किया गया था, पर एक ऐसा स्थान भी जो शिक्षण केंद्र बन सकता है, एक ऐसा स्थान जहां लोग बौद्ध दर्शन का अध्ययन कर सकते हैं। प्रथम उपाध्याय गेशे उगेन छेतेन ने भविष्य के लिए एक दृढ़ नींव रखी।
"मैं सभी आध्यात्मिक परंपराओं का सम्मान करता हूँ। मैं गैर- बौद्ध देशों में बौद्ध धर्म में धर्मांतरण अथवा बौद्ध धर्म के प्रसार के प्रयास नहीं करता, क्योंकि मुझे लगता है कि आम तौर से लोगों के लिए अपने जन्म से संबंधित धर्मों के साथ बना रहना बेहतर होता है। यद्यपि मैं यह भी मानता हूं कि हमारी परम्परा के ऐसे पक्ष भी हैं जो तर्क और मनोविज्ञान से संबंधित हैं जो अधिक सामान्य रुचि के हो सकते हैं।
"लंबे समय से भारतीयों ने चित्त शांति स्थापित करने के उपायों की खोज की जो शमथ और विपश्यना के प्रयासों से उत्पन्न हुए। बुद्ध ने घर त्यागा, इस तरह के उपायों को अपनाया और अनुभव में वृद्धि की। उन्होंने नैरात्म्य की अनुभूति की, क्लेशों तथा और उनके चिह्नों पर काबू पाया और बोधगया में प्रबुद्धता प्राप्त की। उन्होंने जाना कि एक स्वभाव सत्ता वाले अस्तित्व के प्रति ग्राह्यता एक भूल थी। इससे पहले भारत में एक स्थायी, एक आत्मा के अस्तित्व के समर्थन को लेकर व्यापक सहमति थी।
"बुद्ध ने समझाया कि जिस तरह एक गाड़ी को इसके संकलित भागों के आधार पर नामित किया जाता है, इसी तरह आत्म को स्कंधों, शरीर/चित्त के संयोजन के आधार पर ज्ञापित किया जाता है। गृद्ध कूट पर द्वितीय धर्म चक्र के दौरान उन्होंने प्रज्ञा-पारमिता की शिक्षा दी। कई शताब्दियों के बाद शांतरक्षित इन शिक्षाओं को नालंदा परम्परा के केंद्र के रूप में तिब्बत लाए। इसके पश्चात एक हज़ार वर्षों से अधिक समय से हमने इस परम्परा को जीवंत रखा है।
"विगत चालीस वर्षों में विद्वानों और वैज्ञानिकों के साथ संवाद के दौरान, मैंने जो बौद्धों के लिए विशेष है और उनके लिए रुचिकर है, को अलग रखा है। मैंने उनसे प्रबुद्धता, निर्वाण अथवा आगामी जीवनों के बारे में बात नहीं की है, पर हमने चर्चा की है कि सामान्य जीवन में चित्त की शांति कैसे प्राप्त की जाए।
"तिब्बती भावना हमारे धर्म और संस्कृति के कारण दृढ़ बनी हुई है। यहां तक कि जो आत्म-दाह करते हैं, यदि वे ऐसा कर सकते हैं, तो दूसरों को हानि पहुँचाने में सक्षम हैं पर फिर भी वे अपने धर्म और संस्कृति के कारण ऐसा करने से स्वयं को रोकते हैं। आज तिब्बत के युवा लोग सशक्त और दृढ़ भावना रखते हैं। पहले फुनछोग वांज्ञल जैसे प्रतिबद्धित साम्यवादियों ने तक एक प्रबल तिब्बती भावना बनाए रखी थी। तिब्बतियों में अपने धर्म और संस्कृति को संरक्षित करने का उत्साह है।
"आज चीनी तिब्बत के बौद्ध धर्म में रूचि ले रहे हैं। वे कहते हैं कि भविष्य में सुलह के लिए तिब्बती धर्म और संस्कृति आधार होगी।
"१९५९ में, मुझे इतना भी ज्ञात न था कि मैं आने वाला दिन देखने के लिए जीवित रहूंगा। ५००० भिक्षु थे जिनकी देखभाल का उत्तरदायित्व था। हमें अपनी परंपराओं को जीवित रखने के तरीकों पर केन्द्रित होना था। उस समय वहां चीनियों में कुछ ऐसे थे जिन्होंने बल देकर कहा कि सभी तिब्बती केवल चम्पा खा सकते थे। और अब लगता है कि हम चम्पा खाने वाले ऐसी बुद्धि रखते हैं जिनकी तुलना अतीत के भारतीय आचार्यों के साथ की जा सकती है।
"मैंने वाराणसी में दो आचार्यों से मैत्री की - उपाध्याय और त्रिपाठी, दोनों संस्कृत के विद्वान। त्रिपाठी जी ने जे चोंखापा के 'सुभाषित सार' का अनुवाद हिंदी में किया। मैंने उनसे पूछा कि जे रिनपोछे को नालंदा के विद्वानों के बीच कैसे गिना जाएगा। उन्होंने उत्तर दिया कि न केवल वे उनके बीच गिने जाएंगे; पर उनका स्थान शीर्ष आचार्यों में से एक होगा।"
परम पावन ने उल्लेख किया कि शांतरक्षित की प्रेरणा से तिब्बतियों ने भारतीय बौद्ध साहित्य का भोट में अनुवाद किया, जिसके परिणामस्वरूप कंग्यूर और तेंग्यूर के ३०० से अधिक खंड हुए। अपने 'प्रसन्न पद' में, हरिभद्र उन अभ्यासियों को संदर्भित करते हैं जो कुशाग्र बुद्धि वाले हैं और वे जो अपेक्षाकृत मंद बुद्धि रखते हैं। बौद्ध परम्परा मात्र तभी जीवित रहेगी जब कुशाग्र बुद्धि वाले लोग अध्ययन और अभ्यास करेंगे।
डॉ. कर्मा डोल्मा ने धन्यवाद के शब्द ज्ञापित किए। टीआईआर फाउंडेशन ने परम पावन को एक स्विस घड़ी भेंट की।
कल, वह नागार्जुन की 'रत्नावली’, कमलशील के 'भावनाक्रम के मध्य खंड' और थोंगमे संगपो के 'बोधिसत्व के सैंतीस अभ्यास' से प्रवचन देंगे।