लेह, लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, भारत, लेह-मनाली राजमार्ग पर चोगलमसर की सड़क टिब्बटेन चिल्ड्रन्स विलेज स्कूल तक दोनों तरफ दीवार युक्त है और घुमावदार गली की तरह चढ़ती है। आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा पहुंचे, तो तिब्बती युवा और बूढ़े, जिनमें ढोल और बांसुरी वादकों के बैंड शामिल थे, उनका स्वागत करने के लिए मार्ग के दोनों ओर पंक्ति बद्ध थे।
अपनी गाड़ी से उतरकर स्कूल मैदान के ऊपर बने मंच तक चलते हुए परम पावन यदा कदा वयोवृद्धों, अशक्त और विकलांगों के समूहों को आशीर्वाद देने के लिए रुके, जो उनके दर्शन की प्रतीक्षा कर रहे थे। स्कूल के अधिकारी और पूर्व राज्यसभा सदस्य, ठिकसे रिनपोछे ने मंच पर उनका स्वागत किया। जब छात्र बैंड ने तिब्बती और भारतीय राष्ट्रीय गीत प्रस्तुत किया तो पूरी सभा उठ कर खड़ी हो गई।
निदेशक छिमे ल्हुन्डुब ने हाल के विकास की एक संक्षिप्त रिपोर्ट प्रस्तुत की, जो विशेष जरूरतों वाले बच्चों की देखभाल के लिए एक इकाई की स्थापना पर केंद्रित था। इसमें विशेष रूप से समर्पित कर्मचारियों और सुविधाओं के लिए व्यवस्था करना शामिल है और जिसे दलाई लामा ट्रस्ट का सहयोग प्राप्त है।
छात्रों ने एक पारम्परिक तिब्बती नृत्य प्रस्तुत किया।
सोनमलिंग तिब्बती आवास के बारे में अपनी व्यापक रिपोर्ट में, मुख्य प्रतिनिधि छेतेन वंगछुग ने इस साल के आरंभ में दिवंगत ठिकसे गांव के पार्षद, स्वर्गीय सोनम दावा को श्रद्धांजलि अर्पित की। उन्होंने उल्लेख किया कि एक गेशे व्यापक हित के लिए बौद्ध धर्म का एक लोकप्रिय परिचय पढ़ा रहे हैं। अन्य विकासों में चिकित्सा शिविर शामिल हैं, जो रोगों को रोकने के उपायों के साथ-साथ आवश्यक लोगों के लिए उपचार प्रदान करते हैं। तिब्बती चिकित्सा एवं ज्योतिष संस्थान भी निदान और उपचार के लिए लद्दाख के विभिन्न भागों की यात्रा करता है। जंग-थंग में रहने वाले बंजारे और साथ ही लेह के निवासी भी आवास की देखभाल के अंतर्गत आते हैं।
रिपोर्ट में भारत सरकार के स्वच्छ भारत अभियान के अनुरूप स्वच्छता के अभियान, जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार को समर्थन के लिए अनुरोध और सेव द चिल्ड्रर्न फंड द्वारा समर्थित जल की कमी से निपटने के लिए बोर वेल ड्रिलिंग का भी उल्लेख हुआ। बकुला रिनपोछे के जन्म की १००वीं वर्षगांठ के समारोह आयोजित किए गए और जुलाई में आवास के प्रतिनिधियों ने श्रीनगर में तिब्बती मुस्लिम समुदाय का दौरा किया। मुख्य प्रतिनिधि ने परम पावन की दीर्घायु और उनकी कामनाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थनाओं के साथ समाप्त किया।
सोनमलिंग आवास के सदस्यों द्वारा एक पारम्परिक नृत्य के बाद, टीसीवी ने परम पावन से अतिथियों के बीच लद्दाखी नेताओं को उपहार देने का अनुरोध किया।
"नमो अवलोकितेश्वर" कहते हुए परम पावन ने प्रारंभ किया। "आज, मैं इस आवास पर आया हूँ, जहां बड़ी संख्या में स्कूल के बच्चे उपस्थित हैं और मैं आपको तिब्बती की हिम भूमि से तिब्बती के रूप में बात करने जा रहा हूँ। तिब्बत और निर्वासन में तिब्बती अधिकांश लोग मुझ पर आस्था रखते हैं, इसलिए मैं उनके लिए कुछ शब्द कहना चाहूँगा।
"तिब्बत को प्रायः विश्व की छत कहा जाता है। एक चीनी पुरातात्विक ने मुझे बताया कि उन्होंने प्राचीन अवशेष देखे थे कि तिब्बत में मानव आवास ३५,००० वर्ष प्राचीन है, जो कि किसी भी मानक से काफी पहले का है। एक समय में देश शांग-शुंग के नाम से जाना जाता होगा। फिर ७वीं शताब्दी में सम्राट सोंगचेन गमपो ने चीनी और नेपाली राजकुमारियों से विवाह किया और उनके माध्यम से बौद्ध धर्म के साथ संबंध बनाया। उन्होंने भारतीय देवनागरी और व्याकरण के आधार पर भोट भाषा की लिपि की संरचना को प्रेरित किया, जिसमें वर्णमाला लिपि शामिल थी।
"८वीं शताब्दी में, जब राजा ठिसोंग देचेन तिब्बत में बौद्ध धर्म स्थापित करना चाहते थे, उन्होंने शांतरक्षित को आमंत्रित किया। नालंदा के इस महान विद्वान ने शिक्षा के लिए एक विहारीय व्यवस्था प्रस्तुत की। उन्होंने सम्ये में पहला विहार स्थापित किया, जिनमें ब्रह्मचारी भिक्षुओं का एक वर्ग शामिल था, और यह देखने के लिए पहले सात तिब्बतियों को प्रव्रजित किया कि क्या वे अपना संवर का निष्ठापूर्वक पालन कर सकते थे।
"उनके निर्देश के अंतर्गत एक व्यापक स्तर पर संस्कृत बौद्ध साहित्य का भोट भाषा में अनुवाद कार्य आरंभ हुआ, जिसके परिणामस्वरूप आज हमारे पास कंग्यूर - बुद्ध वचनों के अनूदित शब्दों के १०० खंड और तेंग्यूर के २२५ खंड - परवर्ती भारतीय आचार्यों के ग्रंथ हैं। उन्होंने उस ढंग को प्रस्तुत किया जिसका प्रयोग हम आज भी मूल ग्रंथ को कंठस्थ करने में, उसके भाष्यों का अध्ययन करने में और जो कुछ सीखा है उसका शास्त्रार्थ में प्रयोग करते हैं। यह दूसरों के दृष्टिकोण को खण्डन करने, अपने दृष्टिकोण को स्थापित करने, और उस पर आलोचना का खंडन करने का रूप लेता है।
"शांतरक्षित एक उत्कृष्ट विद्वान, एक महान दार्शनिक और तर्कज्ञ थे, जैसा कि उनका लेखन प्रमाणित करता है। यह उनके मार्गदर्शन का परिणाम है कि अनुवाद की प्रक्रिया के दौरान भोट भाषा गहन रूप से समृद्ध हुई। इसके बाद, उनके अध्ययन और अभ्यास के माध्यम से तिब्बतियों ने बौद्ध धर्म के संरक्षण को सुनिश्चित किया। जो भाष्य तिब्बती आचार्यों ने लिखे हैं उनकी अनुमानित संख्या ४०, ००० से अधिक है।
"हमारे तिब्बती पूर्वजों ने महान त्रय, आचार्य पद्मसंभव, उपाध्याय शांतरक्षित और धर्मराज ठिसोंग देचेन की इच्छाओं को पूरा किया और तिब्बत में बौद्ध धर्म प्रसरित किया। और हम जो उनके बाद आए हैं, उन्होंने परम्परा को जीवित रखा है।
"बुद्ध की देशनाओं की सत्यता प्रमाणित करने के लिए इन विभिन्न प्रस्तुतियों में असंगतताओं के कारण केवल आगम के उद्धरणों पर निर्भर रहना अनुचित है। बाद में तर्कशास्त्रियों ने शास्त्रों को आगम तथा अधिगम के रूप में वर्गीकृत किया। तर्क व कारण कुंजी थे और आरंभ में जो छात्र शास्त्रार्थ कर रहे थे वे उस परम्परा में भाग ले रहे हैं।
"जिस शैली के साथ हम तिब्बती शास्त्रार्थ करते हैं, वे जिस रूप में नालंदा में शास्त्रार्थ का आयोजन किया जाता था उनसे कुछ भिन्न हो सकते हैं। १२वीं शताब्दी में, सक्या पंडित ने तर्क पर एक विस्तृत ग्रंथ तैयार किया जिसके आधार पर छपा छोकी सेंगे ने आज हमारे द्वारा उपयोग किए जाने वाले शास्त्रार्थ के नियमों और शैली को निर्धारित किया। एक परिणाम यह है कि हिंदी, अंग्रेजी और चीनी जैसी भाषाएं उतनी सटीक नहीं हैं जितने सटीक रूप में भोट भाषा में बौद्ध विचार और तर्क व्यक्त किए जा सकते हैं। छह करोड़ तिब्बती आज जीवित ७ अरब मनुष्यों के महासागर में एक बूंद हैं, और फिर भी यह हमारी भाषा है जिसमें बौद्ध धर्म को सबसे सटीक रूप से समझाया और समझा जा सकता है।"
परम पावन ने कहा कि कारण और तर्क में प्रशिक्षण है जिसने तिब्बती विद्वानों को आधुनिक वैज्ञानिकों से संवाद करने में सक्षम किया है। उन्होंने भौतिक संसार के बारे में और अधिक सीखा है और वैज्ञानिकों ने चित्त के बारे में सीखा है-दूसरे शब्दों में संवाद पारस्परिक रूप से लाभदायी रहा है। तब से महाविहारों में विज्ञान का अध्ययन पाठ्यक्रम का एक निश्चित अंग बन गया है। इस नवाचार का अर्थ है कि विहार अब भवविवेक के 'तर्कज्वाल' में चित्रित नालंदा की स्थिति का और अधिक बारीकी से अनुकरण करते हैं जो ध्यान के लिए विरोधाभासी दृष्टिकोणों का एक व्यापक स्वरूप को वर्णित करता है।
आगे जारी रखते हुए परम पावन ने कहा "हमने कई कठिनाइयों का सामना किया है, पर फिर भी तिब्बती भावना प्रबल बनी हुई है। हम चीनी लोगों का विरोध नहीं कर रहे, पर संकीर्ण विचारधारा वाले चीनी साम्यवादी पार्टी के सदस्यों ने हमारे लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न की हैं। जब तक तिब्बती अपनी अनूठी विशेषताओं को संरक्षित करना चाहते हैं, तब तक ये कट्टरवादी, चीन से अलगाव के रूप में गलत व्याख्या करते हैं। हमारे संघर्ष के दौरान हजारों विहारों तथा मंदिरों को नष्ट कर दिया गया। भिक्षुओं के साथ भी क्रूर व्यवहार किया गया।
"जमयंग शेपा के शिक्षक, जिनसे मैं १९५४ में चीन जाते हुए मिला था, को १९५९ के पश्चात कैद कर लिया गया और उन्हें मत्यु दंड दिया गया। दंड से पहले, उन्होंने प्रार्थना करने के लिए एक क्षण मांगा और निम्नलिखित छंद को उच्चरित किया:
"मेरे पवित्र लामाओं के आशीर्वाद के साथ
मेरी कामना है कि सत्वों के दुख
मुझ पर परिपक्व हों
और मेरे सभी पुण्य और सुख उन्हें दे दिए जाएं।
"इसी तरह एक भिक्षु, जिन्हें मैं जानता था, को भारत आने से पहले चीनी के कारागार में १८ वर्षों का समय हिताना पड़ा। जब मैंने उनके अनुभवों के बारे में उनसे बात की तो उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें कई बार संकटों का सामना करना पड़ा था। यह सोचते हुए कि वे अपने जीवन के संकट की बात कर रहे थे, मैंने उससे कहा कि वह मुझे इसके बारे में कहें। उन्होंने उत्तर दिया कि वह कई बार अपने चीनी उत्पीड़कों के प्रति करुणा को खोने के संकट में थे।
"जब से बौद्ध धर्म ८वीं शताब्दी में तिब्बत में आया हमने उसे पूर्ण रूप से आत्मसात कर लिया है। चीनी साम्यवादियों ने हमारी संस्कृति और अस्मिता को समाप्त करने के प्रयास में तिब्बतियों के चित्त को बदलने के लिए यथासंभव कदम उठाए हैं, पर वे व्यर्थ हुए हैं क्योंकि हमारा संकल्प दृढ़ रहा है। आज, कई लोग तिब्बती बौद्ध धर्म की ओर ध्यान देते हैं, जिनमें से ४०० करोड़ बौद्ध चीन में हैं।
"ऐतिहासिक दस्तावेज हमें बताते हैं कि ७वीं, ८वीं और ९वीं शताब्दी में तीन साम्राज्य फले फूले - चीन, मंगोलिया और तिब्बत। तिब्बत के उन चीनी दस्तावेजों में तिब्बत के चीन का हिस्सा होने का कोई उल्लेख नहीं है।
"पंडित नेहरू ने मुझे बताया कि अमेरिका तिब्बत के मुद्दे पर चीन के साथ युद्ध नहीं करेगा और अभी या बाद में हमें चीन से बात करनी होगी। हमने संयुक्त राष्ट्र से अपील की और जिसमें कोई सफलता न मिली और १९७४ में स्वतंत्रता की मांग न करने का अपितु संवाद के लिए तैयार होने का निश्चय लिया। हमारा मध्यम मार्ग दृष्टिकोण तिब्बत और निर्वासन में तिब्बतियों के अधिकांश तिब्बतियों द्वारा समर्थित है। और मेरा मानना है कि यदि चीनी लोग समझें कि तिब्बती स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे तो उनके पास हमारा विरोध करने का कम कारण होगा। विगत ४० वर्षों में चीन में इतने परिवर्तन हुए हैं, मेरा विश्वास है कि हम आगे सकारात्मक परवर्तन की आशा कर सकते हैं।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि लद्दाख में तिब्बतियों ने अपने ज्ञान और संस्कृति को जीवित रखने के लिए, जो कुछ कर सकते थे वह किया है। उन्होंने कहा कि विश्व में अन्य स्थानों पर तिब्बती अपने शिष्टाचार और सच्चाई के लिए मूल्यवान हैं। उन्होंने २०११ में अपनी सेवानिवृत्ति और एक निर्वाचित नेतृत्व के हाथों अपनी राजनीतिक उत्तरदायित्व सौंपने की बात की। उन्होंने उल्लेख किया कि जहां कुछ यात्री तिब्बती बौद्ध धर्म को लामावाद के रूप में संदर्भित करते थे, अब एक सार्वभौमिक मान्यता है कि यह वास्तव में भारतीय नालंदा परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है।
परम पावन ने माओ ज़ेदोंग की एक कहानी के साथ समापन किया कि १९५४ में तिब्बत के पास अपना ध्वज था। यह सुनकर कि उनका ध्वज है, उन्होंने परम पावन से कहा कि इसे संरक्षित रखना और लाल झंडे के साथ इसे फहराना महत्वपूर्ण था। इसलिए, जब चीनी दूतावास के कर्मचारी विभिन्न स्थानों पर तिब्बती झंडे के फहराने के बारे में शिकायत करते हैं, तो परम पावन समर्थकों को यह कहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं कि माओ ज़ेदोंग ने व्यक्तिगत रूप से दलाई लामा को फहराने की अनुमति दी थी।
धन्यवाद के शब्दों कहते हुए दोनडुब छेरिंग ने परम पावन को बताया कि उनकी दया का बदला नहीं चुकाया जा सकता, पर आवास तथा बंजारों के क्षेत्र के तिब्बतियों की ओर से उन्होंने प्रार्थना की कि परम पावन दीर्घायु हों और उनकी कामना पूरी हो।