जम्मू, जम्मू और कश्मीर, भारत, परम पावन दलाई लामा सड़क मार्ग द्वारा कल जम्मू पहुँचे। आज प्रातः अपने होटल से निकलने से पूर्व उन्होंने लद्दाख और ज़ांस्कर के लोगों के साथ भेंट की। उन्होंने उन्हें पुराने मित्रों के रूप में अभिनन्दन किया और स्मरण किया कि अतीत में कई तिब्बती विद्वान और अनुवादकों ने इस मार्ग से होते हुए भारत की यात्रा की थी। बाद में, रिनछेन संगपो के जीवन काल में, दीपंकर अतीश यहां से गुज़रे थे, जब वे थोलिंग में राजा के अनुरोध पर तिब्बत आए थे।
"यद्यपि आपने हमारे १००० वर्षों से अधिक प्राचीन बौद्ध परम्पराओं को जीवित रखा है, पर अब आपको २१वीं सदी के बौद्ध होने की आवश्यकता है। इसका अर्थ है कि आपको समझना चाहिए कि बुद्ध ने क्या देशना दी, जिसके लिए आपको अध्ययन करना होगा। मंत्र और प्रार्थना का उच्चारण पर्याप्त नहीं है। बुद्ध ने अपने अनुयायियों से कहा कि वे बिना परीक्षण व जाँच के कुछ भी न मान लें, यहाँ तक कि उन्होंने भी जो कहा हो।
"हमारी सभी विभिन्न धार्मिक परम्पराएँ प्रेरणा का स्रोत हैं, यदि आप गंभीरता से उन शिक्षाओं का अनुपालन करें। यही कारण है कि मैं उनका सम्मान करता हूँ और उनकी सराहना करता हूँ। भारत एक जीवित उदाहरण है कि हमारी धार्मिक परम्पराओं के बीच सामंजस्य काफी व्यवहार्य है, वास्तव में यह एक परम्परा है जिसे आपने यहाँ जम्मू-कश्मीर में जीवित रखा है और मैं आपसे इसे बनाए रखने का आग्रह करता हूँ।"
जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय की दूरी कम थी जहाँ परम पावन विश्वविद्यालय के प्रथम दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि थे। आगमन पर कुलपति प्रोफेसर अशोक ऐमा द्वारा उनका जनरल जोरावर सिंह सभागार में स्वागत किया गया। तत्पश्चात उनका अनुरक्षण वहाँ किया गया जहाँ संकाय और अतिथि दीक्षांत समारोह सभागार की शोभायात्रा में भाग लेने हेतु अकादमिक चोगे पहन रहे थे। कार्यवाही राष्ट्रीय गान, छात्रों द्वारा गाई गई एक प्रार्थना तथा रजिस्ट्रार के दीक्षांत समारोह की प्रारंभ होने की घोषणा से प्रारंभ हुई। जब से अगस्त २०११ में इसका प्रारंभ हुआ तब से अब तक कुलपति ने विश्वविद्यालय की उपलब्धियों की एक रिपोर्ट पढ़ी।
जिन उम्मीदवारों ने पीएचडी, एमफिल और स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की थी वे उन्हें ग्रहण करने हेतु मंच पर आए, जिसके बाद विभिन्न विभागों के उपाधि प्राप्तकर्ताओं ने अपनी उपाधि प्राप्त की।
पहला मानद कौसा उपाधि डॉ जितेंद्र सिंह को प्रदान की गई, एक राजनेता जिनका जम्मू के साथ सशक्ति संबंध है जहाँ उनका जन्म हुआ था, जो कि इस समय उत्तर पूर्वी क्षेत्र के विकास, प्रधान मंत्री कार्यालय, कार्मिक, लोक शिकायत और पेन्शन विभाग, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष विभाग के राज्य मंत्री हैं। अपने सौजन्यपूर्व स्वीकृति संबोधन में उन्होंने कहा कि जब अतीत में उन्हें ऐसी मानद उपाधि प्रदान की गई थी तो उन्होंने उन्हें अस्वीकार कर दिया था, लेकिन इस अवसर पर जम्मू के प्रति स्नेह और विश्वविद्यालय के प्रबल संबंधों के कारण स्वीकार किया। उन्होंने उल्लेख किया कि चूँकि विशिष्ट अवसर प्रदान करना एक विश्वविद्यालय को सशक्त बनाता है, उन्होंने सिफारिश की थी कि जम्मू का केंद्रीय विश्वविद्यालय अंतरिक्ष का एक विभाग स्थापित करे।
दूसरी मानद कौसा उपाधि पूर्व थलसेना प्रमुख जनरल निर्मल चंद्र विज को दी गई। स्वीकृति के विनम्र शब्दों में जनरल ने सभागार में छात्रों को सलाम किया, जिनके हाथों में भारत का भविष्य है और घोषित किया कि वह जम्मू के हैं और इसमें गर्व अनुभव करते हैं।
परम पावन द्वारा स्वर्ण पदक और योग्यता प्रमाण पत्र प्रदान करने के उपरांत उन्हें दीक्षांत समारोह के संबोधन हेतु आमंत्रित किया गया। उन्होंने मंच की अपेक्षा अपने स्थान से बोलने के लिए अनुमति लेते हुए प्रारंभ किया कि यद्यपि वे मानसिक रूप से प्रखर व और सचेत हैं पर शारीरिक रूप से वे थकान का अनुभव करते हैं।
"भाइयों और बहनों, युवा छात्रों जिन्होंने अपनी उपाधि प्राप्त की है। आप विश्व का भविष्य और भारत का भविष्य हैं। मैं साधारणतया २०वीं सदी की पीढ़ी, जिसका मैं हूँ और आपकी २१वीं सदी की पीढ़ी के बीच अंतर करता हूँ। २०वीं शताब्दी हिंसा और युद्ध द्वारा खराब हुई थी। प्रश्न जो पूछा जा सकता है कि क्या हिंसा और यहाँ तक कि परमाणु शस्त्रों के उपयोग ने एक बेहतर विश्व को जन्म दिया और मेरे विचार से उत्तर है, 'नहीं'। कुछ आंकड़ों के अनुसार २०० लाख लोग, हिंसक रूप से मारे गए। जो हम देख सकते हैं वह यह कि आपकी प्रेरणा कितनी ही अच्छी अथवा आपके लक्ष्य कितने ही महान क्यों न हों, एक बार आपने हिंसा तथा बल प्रयोग का मार्ग अपनाया तो परिणाम अप्रत्याशित होते हैं।
"इस २१वीं शताब्दी में, भारत को इसे शांति का युग बनाने में योगदान करना चाहिए, मात्र प्रार्थना द्वारा नहीं अपितु कार्य कर। इस शताब्दी को संवाद का युग होना चाहिए। हम अपने बीच सदैव मतभेद पाएँगे पर बल प्रयोग द्वारा ऐसी समस्याओं के समाधान करने का प्रयास करना सिर्फ हिंसा और प्रतिहिंसा की श्रृंखला प्रारंभ करता है। हम इसे इराक संकट में देख सकते हैं। मैं राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को एक सौहार्दपूण व्यक्ति के रूप में जानता हूँ जिनके प्रति मेरे मन में स्नेह है। ११ सितंबर की त्रासदी के बाद मैंने उन्हें अपनी संवेदना व्यक्त करने और आशा व्यक्त करने के लिए कि कोई भी प्रतिक्रिया अहिंसक होगी, लिखा था। अंततः, अच्छी सद्प्रेरणा से इराक में लोकतंत्र लाने की इच्छा से, उसने उस देश के साथ युद्ध प्रारंभ कर दिया जिसका पूरे अरब क्षेत्र में दूर-दूर तक नकारात्मक परिणाम हुआ।
"शांतिपूर्ण विश्व बनाने का एकमात्र उपाय समस्याओं का समाधान है जो संवाद पर आधारित हो और जिसमें एक दूसरों के अधिकारों और विचारों का सम्मान हो। यदि हम बल का उपयोग और परमाणु हथियारों के विकास को सीमित नहीं करते तो २१वीं सदी आपदा की सदी बन जाएगी।
"आज जीवित सभी ७ अरब मनुष्य खुश रहना चाहते हैं। उनमें से कोई भी पीड़ित नहीं होना चाहता और न अपना जीवन संकट में डालना चाहता है। यदि हम पूछें कि, आधारभूत मानव प्रकृति क्या है? आज वैज्ञानिक ऐसे हैं जो कहते हैं कि यह करुणाशील है। वे दिखाते हैं कि इससे पहले कि वे बोल सकें, शिशु बाधा डालने वालों की बजाय सहायकों की ओर प्राथमिकता दिखाते हैं। अनुभव एक और वैज्ञानिक खोज को पुष्ट करता है कि निरंतर क्रोध और भय हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को समाप्त कर देता है, जबकि एक शांत चित्त और सौहार्दता हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छी है। सभी मानव अपनी मां की प्रेम- दया के पोषण से अपना जीवन प्रारंभ करते हैं- यहाँ तक कि वे व्यक्ति भी जो बाद मुसीबतें खड़ी करते हैं। यह कि हमारी आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है आशा का संकेत है।
"हमारी वर्तमान आधुनिक शिक्षा प्रणाली में अधिकतर भौतिक लक्ष्य हैं जिसमें मानवीय मूल्य अल्प हैं। अतीत में, मूल्य धार्मिक संस्थानों के क्षेत्र थे। अब समय आ गया है कि शैक्षणिक संस्थानों का, कि वे न केवल मस्तिष्क को विकसित करें बल्कि बल्कि सौहार्दता को भी प्रोत्साहित करें। भारत में धर्मनिरपेक्षता की एक दीर्घकालीन परम्परा है, सभी धर्मों के प्रति सम्मान; वास्तव में भारत का एक धर्मनिरपेक्ष संविधान है। हम इसे यहाँ जम्मू और कश्मीर में भी देख सकते हैं जहाँ हिंदु, मुसलमान, ईसाई और बौद्ध एक साथ रहते हैं। करुणा द्वारा प्रेरित अहिंसा की भारत की हजार वर्षीय परम्परा, इस धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण का समर्थन करती है - यह केवल भारत में अनूठा है। विश्व में जहाँ ७ अरब लोगों में १ अरब लोगों की कोई आस्था नहीं है, भारत की धर्मनिरपेक्ष समझ आज बहुत प्रासंगिक है।
"मैं स्वयं को प्राचीन भारतीय विचारधारा का एक छात्र मानता हूँ क्योंकि ८वीं सदी में तिब्बती सम्राट ने नालंदा विश्वविद्यालय के प्रमुख आचार्य शांतरक्षित को तिब्बत में बौद्ध धर्म स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया था। सच्चे विश्लेषण तथा तर्क के उपयोग से उन्होंने हमें सिखाया है कि श्रमसाध्य अध्ययन से हम प्रखर चित्त विकसित करते हैं। यहाँ तक कि बुद्ध ने एक शंकाकुल दृष्टिकोण प्रोत्साहित किया। मुझे कोई आधुनिक शिक्षा नहीं मिली और मेरी टूटी फूटी अंग्रेज़ी काफी सीमा तक स्व शिक्षित है पर आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ अपने संवाद और चर्चाओं में मुझे लगता है कि मैं अपनी पक्ष का बचाव कर सकता हूँ और उनके कहने में विरोधाभास पाता हूँ।
"आधुनिक शिक्षा अत्यधिक विकसित है, पर हिंसा को कम करने और शांति लाने के लिए यह स्वयं में पर्याप्त नहीं है। इसके भौतिक लक्ष्य पर्याप्त नहीं हैं। प्रतिस्पर्धा और क्रोध शांति नहीं लाते और हमें अपने हृदय में शांति की आवश्यकता है। मेरा विश्वास है कि यदि हम आधुनिक शिक्षा में चित्त तथा भावनाओं के कार्य की प्राचीन भारतीय समझ को शामिल करें तो वह सहायक हो सकती है। जिस तरह हम अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए शारीरिक स्वच्छता को अपनाना सीखते हैं, हमें भावनात्मक स्वच्छता की भावना भी अपनाना चाहिए। शमथ और विपश्यना एकाग्रता और अंतर्दृष्टि के प्राचीन अभ्यासियों ने सीखा कि किस तरह भावनाओं से निपटा जाए।
"यदि आप जो २१वीं सदी से संबंधित हैं, प्रयास करें और प्राचीन भारतीय ज्ञान के तत्वों को आधुनिक शिक्षा के साथ जोड़ सकें तो आप बेहतर विश्व बनाने में एक वास्तविक योगदान दे सकते हैं।