थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा चुगलगखंग में अपने निवास से पैदल मुख्य तिब्बती मंदिर आए तो वर्षा ऋतु के उपरांत के निर्मल नभ की पृष्ठभूमि में भव्य धौलाधर पर्वत दृढ़ रूप से खड़ा प्रतीत हो रहा था। मंदिर का प्रांगण चेहरों पर मुस्कान लिए और अञ्जलि बद्ध लोगों से भरा हुआ था, जो उन्हें देखने के लिए उत्सुक थे। मंदिर के अंदर परम पावन ने लोगों की ओर देख अभिनन्दन में हाथ हिलाया, सिंहासन के चारों ओर आसीन लामाओं का अभिनन्दन किया तथा अपना आसन ग्रहण किया।
उपस्थिति ६५०० लोगों में १००० ताइवानी थे, उनमें से अधिकांश १८ सांस्कृतिक संगठनों से संबंधित हैं, जो ताइवान के तिब्बती बौद्ध धर्म के अंतर्राष्ट्रीय संघ में सम्मिलित हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त , ५०० भारतीय, विदेश के ६६ देशों के १८०० लोग और ३२०० तिब्बती थे।
थाईलैंड के भिक्षुओं ने कार्यवाही का शुभारंभ पालि में मंङ्गल सुत्त के सस्वर पाठ से किया। तत्पश्चात ताइवान शिष्यों ने फिर चीनी में हृदय सूत्र का पाठ किया। परम पावन ने 'अभिसमयालंकार' और नागार्जुन की 'मूलमध्यमकारिका' से बुद्ध वन्दना के छंदों को पढ़कर प्रारंभिक औपचारिकताओं को पूर्ण किया। उन्होंने श्रोताओं में से सभी का स्वागत किया:
"ताइवान से आप में से कई लोग जो अब कई वर्षों से आ रहे हैं और आज कई अन्य स्थानों के लोग भी हैं - मैं आप सब का अभिनन्दन करता हूँ। मैं बुद्ध की शिक्षाओं के परिचय के साथ आरंभ करने जा रहा हूं। आप में से कई इससे परिचित हो सकते हैं, पर कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जिन्होंने इसे पहले न सुना हो।
"निम्नलिखित छंद बुद्ध की सलाह को संक्षेपित करता है:
"सभी पाप न करें,
कुशल सम्पादित करें,
अपने चित्त को पूरी तरह से काबू में लाएं,
यह बुद्ध की शिक्षा है।"
"सभी धर्म हमें अहित न करने अपितु एक दयालु हृदय वाला होने की शिक्षा देते हैं। ईश्वरवादी परम्पराएं हैं, जो एक सृजनकर्ता ईश्वर और अनीश्वरवादी परम्पराएं हैं, जो कर्म के बारे में सिखाती हैं। वे सभी हमें दूसरों की सहायता करने और उनका अहित न करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
"आप अपने चित्त को किस तरह वश में करते हैं? बुद्ध अकुशल कर्मों को जल से नहीं धोते, न ही सत्वों के दुःख को अपने हाथों से हटाते हैं और न ही अपने अधिगम दूसरों में स्थान्तरण करते हैं। वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्त करते हैं।
"बुद्ध काल में भारत में दर्शन और मनोविज्ञान की एक समृद्ध परंपरा पहले से ही मौजूद थी। विगत तथा आगामी जीवन को लेकर एक सामान्य विश्वास उन व्यक्तियों की सूचनाओं द्वारा समर्थित थी, जिन्हें अपने विगत जीवन की स्मृतियां थीं। चूंकि शरीर एक जीवन से दूसरे जीवन में यात्रा नहीं करता, प्रश्न यह था कि फिर क्या करता है? कई विचारधारओं ने चित्त/शरीर संयोजन से अलग आत्म को स्थापित किया जिसे उन्होंने आत्मा कहा। चित्त प्रशिक्षण शील व ध्यान के प्रशिक्षण के आधार पर निर्भर था जिसके आधार पर प्रज्ञा विकसित की जा सकती थी।
"कई भारतीय आध्यात्मिक अभ्यासियों ने काम लोक और उससे संबंधित मोह से परे जाने की इच्छा व्यक्त की, जिसे वे समस्याओं से भरा हुआ मानते थे। ध्यान द्वारा वे अरूप लोक के अधिक सूक्ष्म तथा अधिक शांतिपूर्ण लोकों तक पहुंचना चाहते थे।
"एक राजसी परिवार में जन्मे बुद्ध ने अपने सुख भरे जीवन के रूप को त्याग दिया जब उन्होंने जन्म, रोग, जरा और मृत्यु के दुःख को अनुभूत किया। इसके स्थान पर उन्होंने तपस्वी के गृहहीन जीवन में प्रवेश किया। नैतिकता और एकाग्रता के विकास के परिणामस्वरूप उन्होंने जाना कि एकल, स्वायत्त, स्थायी आत्म होने के स्थान पर आत्म मात्र ज्ञापित है। उन्होंने आगे स्वीकार किया कि एक एकल, स्वायत्त, स्थायी आत्मा में विश्वास इसकी ग्राह्यता को समर्थित करता है। एक ऐसे आत्मा की धारणा है जो चित्त/शरीर संयोजन के अन्य पहलुओं पर एक स्वामी की तरह कार्य करता है, जो उसके सेवकों की तरह कार्य करता है। अतः आत्मा को चित्त/शरीर संयोजन से अलग माना जाता है।
"अपनी प्रबुद्धता में बुद्ध ने एक नैरात्म्य की भावना का अनुभव किया जो एक अकेले, स्वतंत्र, नित्य आत्मा के विचार के ठीक विपरीत है। अतः ऐसा माना जाता है कि उन्होंने 'गहन व शांतिमय, प्रपञ्च मुक्त, असंस्कृत प्रभास्वरता - मैंने अमृत मय धर्म प्राप्त किया है, फिर भी यदि मैं इसकी देशना दूँ तो कोई समझ न पाएगा, अतः मैं अरण्य में मौन रहूँगा।'
परम पावन ने समझाया कि जब समय रहते बुद्ध ने वाराणसी के बाहर मृग दाव में अपने पांच पूर्व साथियों को देखा तो उन्हें उनके स्वरूप में कुछ परिवर्तन दिखा और उनसे कहा कि उन्होंने जो भी अनुभव किया था वे उसकी शिक्षा दें। परिणामस्वरूप बुद्ध ने उन्हें चार आर्य सत्य - दुःख सत्य, समुदय सत्य, निरोध सत्य और मार्ग सत्य की शिक्षा दी। इस संदर्भ में कि उन्हें क्या करना चाहिए, उन्होंने समझाया कि दुःख को जानना चाहिए; इसके समुदय को दूर किया जाना चाहिए; इसके निरोध को प्राप्त करना चाहिए और इसके मार्ग को विकसित करना चाहिए।
परन्तु परिणाम के संदर्भ में, उन्होंने स्पष्ट किया कि यद्यपि दुःख को जानना चाहिए पर जानने के लिए कुछ भी नहीं है। यद्यपि इसके समुदय को दूर किया जाना चाहिए पर दूर करने के लिए कुछ भी नहीं है। जहां निरोध को प्राप्त करना चाहिए, पर प्राप्ति के लिए कुछ भी नहीं है और मार्ग को विकसित करने की आवश्यकता के बावजूद, विकसित करने के लिए कुछ भी नहीं है।
परम पावन ने कहा कि बुद्ध ने चार आर्य सत्यों से संबंधित १६ आकारों की पहचान की। दुःख सत्य के चार आकार हैं कि वे अनित्य, दुःख की प्रकृति रखते हुए, शून्य तथा नैरात्म्य हैं। परम पावन ने स्पष्ट किया कि एक स्तर पर हम अनित्यता को समझ सकते हैं कि जीवन मृत्यु पर समाप्त होता है। एक सूक्ष्म स्तर पर इसका अर्थ है कि वस्तुओं का जन्म होता है, वे रहती हैं, उनका क्षय होता है और अंत में विनाश में समाप्ति होती है। इससे सूक्ष्मतर समझ यह है कि वस्तुओं का विघटन इसके कारण से ही लाया जाता है। इस तरह, हमारे मनोविज्ञान- शारीरिक स्कंधों में परिवर्तन, हमारे चित्त/शरीर के संयोजन, अपने कारणों से निकलते हैं जो कर्म और क्लेश हैं।
परम पावन ने आगे कहा, यह जानना महत्वपूर्ण है कि दुःख अज्ञानता में निहित है। हम इस पर तब तक काबू नहीं पा सकते जब तक हम अज्ञानता, जो यथार्थ का विकृत दृष्टिकोण है, को दूर नहीं करते। हम उस अज्ञान का विषय तब तक बने रहते हैं जब तक हम मैं को एक स्वतंत्र आत्मा के रूप में देखते हैं। पर जब हम ऐसे आत्म की खोज करते हैं जो चित्त/शरीर संयोजन से स्वतंत्र हो तो हमें कुछ भी नहीं मिलता। हम पांच मनो-भौतिक स्कंधों के बीच ऐसा आत्म नहीं पा सकते जो चित्त/शरीर के संयोजन को बनाते हैं, न ही इसे चेतना के साथ पहचाना जा सकता है।
"जैसे ही गाड़ी को उसके भागों के आधार पर नामित किया जाता है, उसी तरह व्यक्ति को मनो-भौतिक योग के आधार पर नामित किया जाता है। नागार्जुन समझाते हैं कि कर्म और क्लेशों के क्षय में निरोध है। कर्म और क्लेश विकल्प से आते हैं, जो मानसिक प्रपञ्च से आते हैं।
शून्यता की समझ से प्रपञ्च का अंत होता है। यदि हम निरंतर प्रयास करते रहें तो हम शून्यता की समझ प्राप्त कर सकते हैं। यदि हम नागार्जुन और उनके अनुयायियों की रचनाओं को देखें तो हम पाते हैं कि वे किस तरह स्पष्ट रूप से समझाते हैं कि कोई स्वतंत्र आत्मा नहीं है।
"यथार्थ के विकृत दृष्टिकोण से संबंधित चैतसिक क्लेश, चित्त की अंतर्निहित प्रकृति नहीं है क्योंकि चित्त की प्रकृति स्पष्टता और जागरूकता है। निरोध चित्त की वह स्थिति है जिसमें क्लेशों को वश में कर लिया गया है। अतः मुक्ति चित्त को पूर्ण रूप से शुद्ध कर प्राप्त की जाती है।"
श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर देते हुए परम पावन ने चर्चा की, कि किसकी अनुभूति पहले की जाती है पुद्गल नैरात्म्य या धर्म नैरात्म्य। उन्होंने नागार्जुन की 'रत्नावली' को उद्धृत किया कि जब तक मनो - भौतिक स्कंधों को लेकर ग्राह्यता है, तब तक पुद्गल आत्म के लिए ग्राह्य भाव होता है। परन्तु जे चोंखापा के मध्यम और महान पथ क्रम की प्रस्तुति में जे चोंखापा पहले पुद्गल नैरात्म्य को प्रस्तुत करते हैं और बाद में धर्म नैरात्म्य को। परम पावन ने टिप्पणी की, कि चूंकि बुद्ध की शिक्षाएं सम्पूर्ण थीं अतः हमें अपने अध्ययन में सम्पूर्ण होना चाहिए।
"मैंने ७० वर्ष पूर्व पहली बार शून्यता के बारे में सुना, पर मैं ६० वर्षों से इसके बारे में सोच रहा हूं," परम पावन ने स्मरण किया। "उत्सुक होना अच्छा है। बाल्यावस्था में जब मैं विभिन्न कीड़ों मकोड़ों को देखता था तो मैं जानना चाहता था कि वे कहां से आए थे। मैं यह भी जानना चाहता था कि इतने सारे प्रकार के फूल क्यों हैं। विगत ५० वर्षों से, मैंने बोधिचित्तोत्पाद पर भी गहन चिन्तन किया है। आज, मैंने एक रिपोर्ट सुनी कि वृद्ध लोग एकाकीपन का अनुभव कर रहे हैं, जिसने मुझे स्मरण कराया कि यदि आप करुणा और बोधिचित्त जनित करते हैं तो आप कभी भी एकाकीपन का अनुभव नहीं करेंगे।"
परम पावन ने समाप्त करते हुए कहा कि चित्त को पूरी तरह से वश करने की आवश्यकता के अतिरिक्त शरीर को बनाए रखना भी आवश्यक है और मध्याह्न भोजन का समय हो चुका है। वे कल प्रातः अपने प्रवचन जारी रखेंगे।