सारनाथ, उ.प्र., भारत, १९ मार्च २०१८ आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा ने वाराणसी जाने हेतु उड़ान भरने के लिए प्रस्थान किया तो दिल्ली में अंधेरा था। जब तक हवाई ज़हाज़ ने उड़ान भरी सूरज निकल आया था। लाल बहादुर शास्त्री अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे आगमन पर केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान के कुलपति गेशे ङवंग समतेन ने उनका स्वागत किया जहाँ से उन्होंने गाड़ी से सारनाथ संस्थान के लिए प्रस्थान किया। प्रवेश द्वार से उनके निवास स्थल तक मुस्कुराते छात्र श्वेत स्कार्फ, पुष्प तथा अगरबत्ती लिए मार्ग में पंक्ति बद्ध थे। टाशी शोपा नर्तकों ने उनके स्वागतार्थ गीत व नृत्य प्रस्तुत किया। जैसे ही वे अपनी गाड़ी से उतरे एक दम्पति ने अपने नवजात शिशु को आशीर्वाद के लिए उनके समक्ष रखा। युवा और युवतियों ने तिब्बती वेशभूषा में पारम्परिक छेमा छंगफू प्रस्तुत किया।
ठीक दस बजने से पूर्व भारतीय विश्वविद्यालय संघ (एआईयू) के अध्यक्ष प्रो. पी. बी. शर्मा ने और महासचिव फुरक़न क़मर, गेशे ङवंग समतेन के साथ, परम पावन का पास के सम्मेलन सभागार में अनुरक्षण किया। एक बार जब सभी बैठ गए थे तो छात्रों के मिश्रित समूह ने संस्थान के कुलगीत प्रस्तुत किया। तत्पश्चात श्रमणेरियों सहित महिला छात्राओं के एक समूह ने संस्कृत में मंगलाचरण प्रस्तुत किया। उनके सस्वर पाठ के बाद भिक्षुओं के एक समूह ने उसी प्रार्थना को भोट भाषा में प्रस्तुत किया जिसमें परम पावन भी शामिल हुए।
अपने स्वागतीय भाषण में, केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान विश्वविद्यालय के प्रत्येक सदस्य की ओर से, गेशे ङवंग समतेन ने उनके निमंत्रण को स्वीकार करने के लिए परम पावन के प्रति गहरा आभार व्यक्त किया। उन्होंने उन सभी लोगों का स्वागत किया जो बैठक में शामिल होने के लिए आए थे और ध्यानाकर्षित किया यह पहली बार है कि एक भारतीय विश्वविद्यालय संघ की सभा वाराणसी में हुई है, जो भारत के प्राचीनतम शहर के रूप में प्रतिष्ठित है। उन्होंने सब को यह भी स्मरण कराया कि सारनाथ ही वह स्थान था जहाँ बुद्धत्व प्राप्त होने के उपरांत बुद्ध ने अपनी प्रथम शिक्षा दी और आशा व्यक्त की कि आगामी तीन दिनों में होने वाली चर्चाओं से रूपांतरण करने वाली अंतर्दृष्टि उभरेगी।
भारतीय विश्वविद्यालय संघ के महासचिव प्रोफेसर फुरक़न क़मर ने अपनी प्रारंभिक टिप्पणी में केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान और उसके कुलपति को बैठक की मेजबानी के लिए धन्यवाद दिया और घोषित किया कि इसमें सम्मिलित होने वाले सब के लिए परम पावन की उपस्थिति में होना एक सम्मान है। उन्होंने टिप्पणी की कि इस वर्ष का विषय, 'मौलिकता, उद्यमिता और विघटनकारी तकनीक के युग में उच्च शिक्षा, व्यवधान के युग में मानव मूल्यों पर केन्द्रित' प्रतिभागियों पर भारी पड़ सकता है, पर सुझाया कि इससे बेहतर वातावरण न ही बातचीत का मार्गदर्शन करने हेतु एक बेहतर व्यक्ति हो सकता है।
अपनी टिप्पणी में, विश्व बैंक के लीड तृतीयक शिक्षा विशेषज्ञ प्रोफेसर फ्रांसिस्को मर्मोलेजो ने टिप्प्णी की कि यह भारत के लिए एक अनूठा क्षण है, जब वह स्वयं को विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी के साथ पाएगा। उन्होंने कहा कि यह भारत और विश्व के हित में है कि भारत सफल होता है और यदि ऐसा न हुआ तो विश्व असफल होगा। इसके लिए उच्च शिक्षा आवश्यक है और साथ ही मानव गरिमा। न केवल अधिक शिक्षा की आवश्यकता है, अपितु बेहतर शिक्षा की भी है।
अपने विस्तृत अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रोफेसर पी. बी. शर्मा ने इसी तरह के विषय उठाए। उन्होंने कहा कि गुणवत्ता, प्रासंगिकता और उत्कृष्टता पर केन्द्रित होने की आवश्यकता है, यह टिप्पणी करते हुए कि मूल्यों में कमी ने लोभ और विघटन को जन्म दिया गया है। उन्होंने भारतीय विश्वविद्यालय संघ के पूर्व अध्यक्ष और भारत के राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को उद्धृत करते हुए कहा, "शिक्षा का अंत उत्पाद एक स्वतंत्र रचनात्मक व्यक्ति होना चाहिए, जो ऐतिहासिक परिस्थितियों और प्रकृति की प्रतिकूल परिस्थितियों के विरुद्ध लड़ सके।" प्रोफेसर शर्मा ने अपने साथी कुलपतियों से आग्रह किया कि वे जागृत भारत के शिक्षा मंदिरों में मूल्यों और शिक्षा को बढ़ावा देने का निश्चय लें। उन्होंने आग्रह किया कि, "अतः हमें भारत को उसके वैश्विक गौरव तक पुनरुत्थान के समर्थन के लिए हमारी प्राचीन प्रज्ञा को मानव सभ्यता की आधुनिकता के साथ प्रभावशाली ढंग से मिश्रित करना चाहिए।"
परम पावन से भारतीय विश्वविद्यालय संघ की वार्षिक रिपोर्ट साथ ही कुछ लेखन का विमोचन करने हेतु आमंत्रित किया गया। फिर, मुख्य अतिथि के रूप में, उनसे उद्घाटन संबोधन देने का अनुरोध किया गया। यद्यपि कल, थकान के कारण उन्होंने अपनी कुर्सी से बात करने की अनुमति माँगी थी, पर आज वे मंच पर खड़े हुए।
"आदरणीय भाइयों और बहनों, मैं इसी तरह से प्रारंभ करना पसंद करता हूँ क्योंकि मुझे वास्तव में लगता है कि यदि हमने आज सात अरब मनुष्यों को अपने हृदयों में जीवित रखा तो हमारी कई समस्याएँ दूर हो जाएँगीं। इसके बजाय हम 'हम' और 'उन' के संदर्भ में सोचते हैं, जो मात्र कठिनाइयों की ओर ले जाता है। विश्व छोटा तथा अधिक अन्योन्याश्रित होता जा रहा है। वैश्विक अर्थव्यवस्था की कोई सीमा नहीं है। जलवायु परिवर्तन पूरे विश्व को प्रभावित करता है। हमारा जीवन जल पर निर्भर करता है, पर फिर भी यह तेजी से दुर्लभ हो रहा है। इस नई वास्तविकता में हमें सोचने और कार्य करने के नए उपायों को खोजना होगा। हिंसा और युद्ध, पुराना व्यवहार, बंद होना चाहिए।
"जब अतीत में आदमी तलवारों, भालों या पुरानी बंदूकों के साथ युद्ध करते थे तो यह बहुत गंभीर नहीं था, वे बहुत अधिक नुकसान नहीं पहुँचा सकते थे, पर आज कई हजारों परमाणु हथियार उपयोग के लिए तैयार हैं।
मैंने हिरोशिमा और नागासाकी दोनों की यात्रा की है, दो स्थान जहाँ परमाणु शस्त्र मनुष्यों के विरूद्ध उपयोग किए गए थे और मैंने उस एक घड़ी को जिसे मैंने देखा, कभी नहीं भूलूंगा, जिसके हाथ ठीक हमले के समय बंद हो गए थे, गर्मी की तीव्रता से आधा पिघल गया था।
"कई वर्ष पूर्व रोम में नोबेल शांति पुरस्कार विजेताओं की एक बैठक में हमने सुना कि परमाणु आदान-प्रदान के व्यावहारिक परिणाम दूरंगामी थे और जो क्षति वे पहुँचाएंगे वह अत्यंत भयानक था। मैंने सुझाव दिया कि इस तरह के शस्त्रों के ढेर को जमा करने को कम करने और उस कार्य को खत्म करने के लिए एक स्पष्ट समय-सारणी निर्धारित करने का एक प्रस्ताव रखा जाए। पर कुछ नहीं हुआ।
"हमें इस विरोधाभास पर चिन्तन करना चाहिए कि अगर एक व्यक्ति दूसरे को हत्या करता है तो वह जेल जाता है, पर जब एक व्यक्ति युद्ध में सैकड़ों की मृत्यु के लिए उत्तरदायी होता है तो उसे एक नायक के तौर पर माना जाता है। हिंसा क्रोध और भय का परिणाम है। हमें इन्हें कम करना होगा।
"तिब्बत में एक युवा भिक्षु के रूप में मैंने अनिच्छा से अध्ययन किया जब तक कि मैं यह पहचानने लगा कि ८वीं शताब्दी में शांतरक्षित हमारे देश में जो ज्ञान लेकर आए थे वह कितना मूल्यवान था। उस समय से हमारे द्वारा जीवंत रखे नालंदा परंपरा में जो कि अमूल्य था, कि उसने आंतरिक शक्ति का निर्माण करने तथा चित्त की शांति प्राप्त करने के अनूठे अवसर उपलब्ध कराए, जो बाह्य कारकों पर निर्भर नहीं होता।
"जैसा कि मैंने पहले ही उल्लेख किया २०वीं शताब्दी ने कई क्षेत्रों में महान विकास को देखा पर हिंसा के कारण दोषपूर्ण भी था। आज, पुरानी सोच के तत्त्व जिन्होंने इन्हें जन्म दिया, अब भी बने हुए हैं - बल प्रयोग द्वारा समस्याओं का समाधान करने की प्रवृत्ति। यह बिलकुल तारीख से बाहर है। यदि इसका परिणाम सामान्य लाभ होता तो यह स्वीकार्य हो सकता था, पर ऐसा कभी नहीं हुआ है। यही कारण है कि इस सदी को संवाद का युग होना चाहिए, एक समय जब हम दूसरों को 'हम' के अंग के रूप में सोचते हैं और हमारे बीच संघर्ष के लिए न्यायसंगत समाधान चाहते हैं।
"इस में शिक्षा की भूमिका है। हमारे चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य के प्राचीन भारतीय ज्ञान का व्यावहारिक योगदान है। जिस तरह हम बच्चों को अपने स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए शारीरिक स्वच्छता के अनुशासन का पालन करना सिखाते हैं, इसी तरह हमें भावनात्मक स्वच्छता की एक समान भावना स्थापित करने की आवश्यकता है।
परम पावन ने समझाया कि प्राचीन भारत में शमथ और विपश्यना के सामान्य अभ्यासों ने चित्त की गहन समझ को जन्म दिया। और यद्यपि इसका उल्लेख धार्मिक ग्रंथों में किया गया है, पर यह कोई कारण नहीं है कि आज इसका अध्ययन शैक्षणिक दृष्टिकोण से नहीं किया जा सकता। मन और भावनाओं की इस सराहना में तर्क और कारण - एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संपूर्ण उपयोग शामिल है।
परम पावन ने आज अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता की भारत की पुरानी परंपराओं की प्रासंगिकता का उदाहरण दिया। भारत एक ऐसा देश है जहाँ सभी विश्व के प्रमुख धर्म साथ साथ रहते हैं।
उन्होंने आगे कहा कि, "बुद्ध प्राचीन भारत का उत्पाद थे हमारे लिए गौरव की बात है। आज, हमें आधुनिक शिक्षा को चित्त व भावनाओं के प्रकार्य की प्राचीन भारतीय समझ से जोड़ना चाहिए। हमें सामान्य ज्ञान और वैज्ञानिक निष्कर्षों पर निर्भर होने की आवश्यकता है। ३० से अधिक वर्षों तक मैंने वैज्ञानिकों के साथ विचार-विमर्श किया है जो पारस्परिक रूप से लाभप्रद रहा है। राजा रामण्णा ने मुझे बताया था कि यद्यपि क्वांटम भौतिकी के निष्कर्ष आज नए लगते हैं, उन्होंने कई शताब्दियों पूर्व के नागार्जुन के लेखन में इस से मेल खाती अंतर्दृष्टि को पहचाना था।
"इसी प्रकार, जब हम प्राचीन भारतीय और आधुनिक मनोविज्ञान की तुलना करते हैं तो आधुनिक परम्परा अभी भी विकास के प्रारंभिक चरण में जान पड़ती है। चित्त की शांति न केवल विश्व शांति का उचित आधार है, यह हमें अपनी बुद्धि का पूरा उपयोग करने के लिए भी सक्षम करती है।
"मुझे विश्वास है कि आप यहां गंभीर और उपयोगी चर्चाएं करेंगे - और मैं आपको धन्यवाद देता हूं।"
केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान के कुलसचिव डॉ. आर. के. उपाध्याय ने धन्यवाद शब्द प्रस्तुत किए। हर कोई राष्ट्रीय गान के लिए खड़ा हुआ। तत्पश्चात सभी कुलपति, कालचक्र मैदान में मंच के नीचे एकत्रित हुए जहाँ परम पावन के साथ एक सामूहिक तस्वीर लिया गया, जिसके बाद उन्होंने लाइब्रेरी की घास पर एक शानदार भोजन का आनंद लिया। परम पावन कल प्रातः की बैठक के एक और सत्र में भाग लेंगे।