बोधगया, बिहार, आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा कालचक्र मैदान पहुँचे तो हजारों मुस्कुराते हुए चेहरों और अंजलिबद्ध करों ने सदैव की तरह उनका स्वागत किया। उन्होंने मुस्कुराते उसका प्रत्युत्तर दिया तथा कुछ पुराने मित्रों का अभिनन्दन किया। मंच के किनारे से उन्होंने कई दूर बैठे श्रोताओं का हाथ हिलाकर अभिनन्दन किया और श्रोताओं ने भी उत्तर में हाथ हिलाया, कुछ लोग हर्षातिरेक से उछलने लगे। मंच पर लामाओं के बीच पुराने मित्रों को अभिनन्दन के उपरांत, परम पावन ने सिंहासन पर स्थान ग्रहण किया। चीनी भाषा में 'हृदय सूत्र' का सस्वर पाठ हुआ।
"आज, मैं 'वज्रच्छेदिक सूत्र' प्राथमिक रूप से चीनी छात्रों के लिए व्याख्यायित कर रहा हूँ जैसा कि मैंने एक बार पहले किया है," परम पावन ने घोषणा की। "मैं ‘हृदय सूत्र' को समझाने की भी सोच रहा हूँ। मैं साधारणतया धर्मशाला में चीनियों को हर वर्ष प्रवचन देता हूँ, पर इस अवसर पर हम यहाँ इस पवित्र स्थान पर एकत्रित हुए हैं। प्रवचनों की इस श्रृंखला के प्रारंभ में मैंने भारतीय बौद्धों के एक समूह के लिए प्रवचन दिया और स्मरण किया समूचे एशिया में फैलने से पहले बौद्ध धर्म का जन्म भारत में हुआ था।
"अपनी अनुकरणीय विनय परम्परा ली हुई पालि परम्परा श्रीलंका, बर्मा और थाइलैंड जैसे देशों में फैली। संस्कृत परम्परा का अनुपालन जिस तरह नालंदा में किया जाता था, उसका प्रसार चीन और वहाँ से कोरिया, जापान और वियतनाम तक हुआ। बाद में यह तिब्बत और वहाँ से मंगोलिया तक पहुँचा। अतः पहले के देशों में चीन ऐसा था जहाँ बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। आजकल, विश्व में जहाँ भी चीनी हैं, वहाँ उन्होंने एक बौद्ध मंदिर स्थापित किया, जो बताता है कि बौद्ध धर्म चीनियों के हृदय के कितने निकट है।
"१९५४ में मैंने बीजिंग और चीन के अन्य भागों की यात्रा की जहाँ मुझे कई बौद्ध मंदिर दिखाए गए। विशेष रूप से मुझे बीजिंग में एक स्तूप का स्मरण है, जो तिब्बती बौद्ध आचार्यों और चीनी सम्राटों के बीच के संबंधों को दर्शाता है, जिसमें वज्रभैरव की प्रतिमा थी। बाद में सांस्कृतिक क्रांति के दौरान सभी धर्मों को अंधविश्वास का रूप माना गया तथा उन्हें नष्ट करने के प्रयास किए गए। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि दीर्घ काल की दृढ़ आस्था को उखाड़ फेंकने के लिए इससे कुछ अधिक की आवश्यकता होती है और बाद में देंग जिओ पिंग द्वारा प्रतिबंधों पर ढील दिए जाने के बाद बौद्ध धर्म पुनर्जीवित हुआ है। कुछ वर्ष पूर्व एक विश्वविद्यालय सर्वेक्षण में चीन में ३०० अरब बौद्ध होने के प्रमाण पाए गए, जो मेरे मित्र बताते हैं कि अब ४०० अरब हो गए हैं। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पेरिस और दिल्ली में कहा कि चीनी संस्कृति में बौद्ध धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका है।"
परम पावन ने इस तथ्य की प्रशंसा व्यक्त की कि भारत में विश्व के सभी प्रमुख धर्म फलते फूलते हैं । और तो और ये विभिन्न धार्मिक परम्पराएँ, स्वदेशी और अन्य देशों से आई हुईं, ईश्वरवादी और गैर-ईश्वरवादी सम्मानपूर्ण सद्भाव में साथ साथ रहती हैं।
उन्होंने कहा, "मैं एक बौद्ध भिक्षु हूँ, पर मैं सभी धार्मिक परम्पराओं का सम्मान करता हूँ। महत्वपूर्ण बात यह है कि आप ईमानदार हों और आपकी जिसमें आस्था हो उसे व्यवहार में लाएँ। ये सभी विभिन्न परम्पराएँ प्रेम, करुणा और सहिष्णुता की शिक्षा देती हैं, फिर भले ही वे अलग-अलग दार्शनिक विचार रखते हों। जहाँ मैं बौद्ध दार्शनिक विचारों के प्रति बहुत सम्मान रखता हूँ पर मैं कभी यह नहीं कहता कि बौद्ध धर्म सर्वश्रेष्ठ परम्परा है। ऐसा करना उतना ही अनुचित होगा जैसा कि यह कहना कि एक विशिष्ट दवा सभी परिस्थितियों में सभी के लिए सर्वोत्तम है।
"बुद्ध ने अपने अनुयायियों से शंका रखने हेतु और तर्क के प्रकाश में उन्होंने जो कुछ कहा उसका परीक्षण करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने कहा,
ओ भिक्षुओं और विद्वानों,
जिस तरह स्वर्ण को जलाकर, काटकर और रगड़कर परखा जाता है,
मेरे शब्दों को भली भांति जांचें
और तभी उन्हें स्वीकार करें, मात्र मेरे प्रति गौरव की भावना के कारण नहीं।"
परम पावन ने अपने बाल्यकाल में यांत्रिक खिलौनों में अपनी रुचि पर चर्चा की और कैसे जब उन्होंने १९५४ में चीन की यात्रा की तो उन्होंने कारखानों और बिजली संयंत्रों का दौरा किया और वे इस जिज्ञासा से व्याकुल थे कि वे कैसे काम करते हैं। माओ ज़ेदोंग ने कहा कि उनका चित्त एक वैज्ञानिक का था। निर्वासन में उन्होंने वैज्ञानिकों के साथ चर्चा करने का विचार किया। जब उन्हें सचेत किया गया कि विज्ञान धर्म का हत्यारा है तो उन्होंने नालंदा परम्परा में तर्क और तर्क की भूमिका पर विचार किया और निर्णय लिया कि किसी तरह का कोई संकट नहीं है। तथ्य यह है कि संवाद से पारस्परिक लाभ हुआ और एक परिणाम यह है कि विज्ञान अब कई तिब्बती विहारों के संस्थानों में मानक पाठ्यक्रम का अंग है। वैज्ञानिक ज्ञान ने बौद्ध समझ को विकसित किया है।
"महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि हमें अध्ययन करना है। अमिताभ की वंदना करने और मात्र सूत्रों का पाठ पर्याप्त नहीं है। मैंने सुना है कि चीन में कई मंदिर और विहार हैं। अच्छा होगा कि वे शिक्षण केंद्र बनें। तिब्बतियों के बीच अध्ययन के अवसरों को बढ़ाने के हमारे प्रयासों के परिणामस्वरूप, अब २० वर्षों के श्रमसाध्य अध्ययन के उपरांत गेशे मा की योग्यता रखती भिक्षुणियाँ हैं। इसके लिए दृष्टि में परिवर्तन की आवश्यकता है। मुझे १९६५ या १९६६ के सिंगापुर की यात्रा का स्मरण है जब चीनी भाषा में 'हृदय सूत्र' के सस्वर पाठ ने मेरे मर्म को छू लिया था। परन्तु भिक्षु जो मेरे अभिषेक तथा अनुज्ञा देने के समय सतर्क थे, वे ऊंघने लगे जब मैंने अधिक सामान्य शिक्षाओं को व्याख्यायित किया। पश्चिमी लोग, जो पारम्परिक रूप से बौद्ध नहीं हैं, जब वे प्रवचनों में आते हैं तो कई टिप्पणियाँ बनाते हैं।"
जब उन्होंने 'वज्रच्छेदिक सूत्र' प्रारंभ किया तो परम पावन ने बताया कि किस तरह प्रबुद्धता प्राप्त करने के बाद बुद्ध ने घोषित किया 'गहन व शांतिमय, प्रपञ्च मुक्त, असंस्कृत प्रभास्वरता मैंने अमृत मय धर्म प्राप्त किया है, फिर भी यदि मैं इसकी देशना दूँ तो कोई समझ न पाएगा, अतः मैं अरण्य में मौन रहूँगा।'' परन्तु जब वे कौण्डिन्य और उनके पूर्व साथियों से पुनः मिले तो उन्होंने उनसे शिक्षा का अनुरोध किया। उन्होंने चार आर्य सत्यों को प्रत्येक सत्य की चार विशेषताओं के संदर्भ में तथा ३७ बोध्यांगों के रूप में समझाया। ये स्पष्ट रूप से पालि परम्परा के तीन पिटकों में दर्ज हैं। पालि राजगीर की पहली संगीति की भाषा थी, जिस दौरान विनय संकलित हुआ।
बाद में, बुद्ध ने गृद्धकूट पर प्रज्ञा पारमिता की देशना दी, जो संस्कृत में दर्ज की गई। परम पावन ने स्पष्ट किया कि पालि परम्परा में पाई जाने वाली शिक्षाएँ वे थीं जो सार्वजनिक रूप से दी गईं थीं, जबकि संस्कृत परम्परा की शिक्षा कुछ गिने चुने लोगों की सभा के समक्ष दी गई थीं। जहाँ पालि परम्परा की शिक्षाएँ बौद्ध धर्म की नींव हैं, प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ बुद्ध के सर्वोच्च निर्देश हैं।
'वज्रच्छेदिक सूत्र' के संबंध में, परम पावन ने उल्लेख किया कि पूर्व गदेन पीठ धर रिजोंग रेनपोछे ने उन्हें यह प्रदान किया था, यद्यपि कोई 'व्याख्यात्मक संचरण' नहीं है। कांग्यूर और तेंग्युर संग्रह में अन्य रचनाओं की तरह, इसका संस्कृत शीर्षक 'वज्रच्छेदिक प्रज्ञापारमिता सूत्र' यह दिखाने के लिए दिया गया है कि यह भोट भाषा में नहीं लिखा गया। इस सूत्र का संबंध प्रज्ञा से है और यह जिसे काटता है, वह अज्ञान है। यह श्रद्धेय सुभूति द्वारा बुद्ध से निम्नलिखित प्रश्न पूछे जाने से प्रारंभ होता है, "भगवन् , यदि कोई कुलपुत्र या कुलपुत्री उच्चतम बोधिसत्व को जन्म देना चाहें तो वे किस पर निर्भर हों और चित्त पर काबू पाने हेतु क्या करना चाहिए?"
यह समझाते हुए कि उच्चतम माध्यमक दृष्टिकोण यह है कि वस्तुएँ मात्र ज्ञापित होकर अस्तित्व रखती हैं, परम पावन ने नागार्जुन के अवलोकन को उद्धृत करते हुए कहा, कि सर्वज्ञता के इच्छुक बोधिसत्व पूर्ण गुणवत्ता नहीं प्राप्त कर सकते यदि वे स्वतंत्र वस्तुनिष्ठ अस्तित्व के विचार से चिपके रहें। वे आगे टिप्पणी करने के लिए प्रेरित हुए कि नागार्जुन की प्रमुख रचना 'मूलमध्यमकारिका’ बहुत ही मूल्यवान है और चीनी में उपलब्ध है। उन्होंने कहा, "मैं उसके छंदों को प्रतिदिन पढ़ता हूँ, दोहराता हूँ और उन पर चिन्तन करता हूँ।"
उन्होंने समझाया कि 'मूलमध्यमकारिका' के २७ अध्यायों में यदि आप अध्याय २६, १८, २४ और २२ पढ़ें, तो आप समझेंगे कि हम किस तरह भव चक्र में फंसते हैं, किस तरह कोई स्वतंत्र अस्तित्व लिए आत्म नहीं होता, और किस तरह वस्तुओं का कोई वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं होता , पर वे अन्योन्याश्रित होती हैं। उन्होंने अपने चीनी श्रोताओं को सुझाया कि वे आर्यदेव के 'चतुश्शतक', 'बुद्धपालित' और चंद्रकीर्ति के 'मध्यमकावतार' और ‘प्रसन्नपद’ के चीनी अनुवादों से स्वयं को अवगत कराएं।
परम पावन ने टिप्पणी की, कि प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन के दौरान, बुद्ध ने स्पष्ट किया कि कोई नित्य, एकल, स्वायत्त स्व नहीं है। द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन के दौरान उन्होंने इस को विस्तार से स्पष्ट किया और स्पष्ट किया कि उदाहरणार्थ रूप, आकार और रंग का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है - अतः 'हृदय सूत्र' की प्रसिद्ध उक्ति है, "रूप शून्यता है, शून्यता रूप है"। सत्य द्वय में से, सांवृतिक सत्य वैश्विक मान्यता से ज्ञापित होता है। न केवल व्यक्ति मात्र ज्ञापित है, जिसमें निहित सत्ता का अभाव है, परन्तु मनो-भौतिक स्कंध जो ज्ञापित करने के आधार हैं, वे स्वतंत्र सत्ता से रहित हैं।
यह स्मरण करते हुए कि उन्होंने जो अपने अनुभव के विषय में कहा था कि थाईलैंड में जिस तरह से विनय का अनुपालन किया जाता है, परम पावन ने टिप्पणी की कि एक भिक्षु को मध्याह्न से पूर्व भोजन कर लेना चाहिए। उन्होंने कल जारी रखने की आशा रखते हुए सत्रांत किया। जब परम पावन मंच से निकले तो श्रोताओं ने मुस्कुराते, करतल ध्वनि और हाथों को हिलाते हुए अपना उत्साह व्यक्त किया।