थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत, युवा तिब्बतियों के लिए तीन दिनों के प्रवचनों के बाद, परम पावन दलाई लामा आज प्रातः अपने निवास के निकट मुख्य तिब्बती मंदिर के प्रांगण में अनुमानित १२०० लोगों से मिले। इनमें भारत और विदेशों के लगभग १००० आगंतुक, साथ ही २०० तिब्बती थे। सबसे पहले उन्होंने भौगोलिक स्थिति द्वारा व्यवस्थित लोगों के छोटे समूहों के साथ तस्वीरों के लिए पोज़ किया जिसके बाद वे मंदिर के नीचे एक कुर्सी पर बैठे।
परम पावन ने यह कहते हुए प्रारंभ किया कि चूँकि उन्होंने अभी अभी तीन दिनों का प्रवचन दिया था जिसमें उनके समक्ष बैठे हुए कई लोग संभवतः सम्मिलित हुए थे, उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ नहीं था। फिर भी, उन्होंने श्रोताओं की ओर से प्रश्न आमंत्रित करने से पहले कुछ टिप्पणियाँ की।
"नालंदा परम्परा, जिसका तिब्बती बौद्ध धर्म बहुत बड़ा अंग है, ने तर्क और कारण का पूर्ण उपयोग किया। इसमें बुद्ध ने क्या कहा और क्यों कहा, इसका परीक्षण करना शामिल है। ऐसे परीक्षण का परिणाम एक स्पष्ट और दृढ़ समझ है। बुद्ध की देशनाओं के अपने परीक्षण के परिणामस्वरूप नागार्जुन और चंद्रकीर्ति जैसे नालंदा आचार्य ने घोषणा की कि उनमें से कुछ को शब्दशः स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि वे तर्क के विपरीत हैं।
"महान दार्शनिक और तर्कज्ञ शांतरक्षित द्वारा ८वीं शताब्दी में तिब्बत में बौद्ध धर्म की प्रारंभ के बाद हम तिब्बतियों ने इसी तरह का एक श्रमसाध्य दृष्टिकोण अपनाया। चूंकि शास्त्रीय भाषा भोट शायद संस्कृत के निकटतम है, यह बौद्ध विचारों को व्यक्त करने के लिए आज हमारे पास सबसे सटीक साधन है। यद्यपि नालंदा परंपरा को भारत में कुछ सीमा तक उपेक्षित किया गया है, पर इसे तिब्बत में जीवित रखा गया।"
श्रोताओं की ओर से पहला प्रश्न मनोविज्ञान और इसे किस तरह बौद्ध करुणा के विकास के लिए बौद्ध उपायों से जोड़ा जा सकता है, से संबंधित था। परम पावन ने उत्तर दिया कि प्राचीन भारत की चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य का ज्ञान समृद्ध और गहन है। उन्होंने पुष्टि की कि वह इसके महत्व को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि भारत में यह उपेक्षित हो गया है। उन्होंने अक्या योंगज़िन के 'ज्ञान समुच्चय' को पढ़ने का सुझाव दिया।
एक अन्य प्रश्नकर्ता ने पूछा कि समानता को किस तरह सशक्त किया जाए और परम पावन ने सूचित किया कि वैज्ञानिक बल देकर कहते हैं कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है और इसकी पुष्टि उससे हो जाती है जिस तरह बच्चे व्यवहार करते हैं। जब तक उनके साथी मुस्कुराते हैं और मैत्री भावना से व्यवहार करते हैं, तो वे इस बात की चिन्ता नहीं करते कि उनकी राष्ट्रीयता, जाति या पारिवारिक आस्था क्या है।
उन्होंने कहा, "जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं और शिक्षा ग्रहण करते हैं, हम अपने आधारभूत मानव मूल्यों की अवहेलना करने लगते हैं। इसके स्थान हम गौण भेदों पर अनुपयुक्त ध्यान देते हैं, जिसमें यहाँ भारत में जाति भेद और क्या लोग धनवान हैं या निर्धन शामिल है । ये बातें बहुत सारी समस्याओं को जन्म देती हैं, विशेषकर इस तथ्य के प्रकाश में कि अनिवार्य रूप से मनुष्य शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से समान हैं। साथ ही, मैं इस बात का बड़ा प्रशंसक हूँ कि किस तरह भारत अभी भी विविधता में एकता खोज पा रहा है। और तो और इसके पड़ोसियों की तुलना में भारत अनूठे रूप से स्थिर है।
"इसी तरह यूरोपीय संघ के प्रमुख सदस्यों फ्रांस और जर्मनी के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है, उदाहरण के लिए, यह तय किया कि आम हित राष्ट्रीय संप्रभुता से अधिक महत्वपूर्ण था। जहाँ वे दीर्घ काल से ऐतिहासिक शत्रु थे पर अब दृष्टिकोण पूरी तरह से परिवर्तित हो गया है और विगत ७० वर्षों से ईयू के सदस्यों के बीच शांति बनी हुई है।"
परम पावन ने उल्लेख किया कि आधुनिक शिक्षा में जिसे वे आंतरिक मूल्य के रूप में संदर्भित करते हैं और चित्त व भावनाओं के प्रकार्य के लिए नहीं के बराबर समय है। उन्होंने टिप्पणी की कि जैसे ही हम अपने स्वास्थ्य को संरक्षित करने के लिए शारीरिक स्वच्छता का ध्यान रखते हैं, हमें चित्त की शांति बनाए रखने के लिए भावनात्मक स्वच्छता के विकस की भी आवश्यकता है। उन्होंने टिप्पणी की, कि यदि हमारे जीवन क्रोध से भरे हुए हों तो हमें जीवित रहना कठिन लगेगा।
"शिक्षा और प्रशिक्षण के माध्यम से हम अपनी मूल मानव प्रकृति का विस्तार कर सकते हैं। यह आत्मविश्वास लाता है, जो महत्वपूर्ण है और हमें अधिक पारदर्शी होने की अनुमति देता है, जो विश्वास की ओर ले जाता है, जो दृढ़ मैत्री का आधार है। यह कहना सच होगा कि मैत्री भावना जन्म से लेकर मृत्यु तक मूल्यवान है।"
यह पूछे जाने पर कि विज्ञान और धर्म के बीच कैसे ताल मेल बिठाया जा सकता है, परम पावन ने भारतीय स्रोतों को संदर्भित किया जो दृश्य और यथार्थ के बीच के अंतर केंद्रित हैं। यथार्थ को समझने के लिए परीक्षण की आवश्यकता होती है, न कि मात्र वस्तुएँ जिस रूप में प्रकट होती हैं उसको स्वीकार करना। आत्म, जो स्वतंत्र रूप से अस्तित्व रखता हुआ प्रतीत हो सकता है, बौद्ध उसे मात्र शरीर व चित्त के आधार पर ज्ञापित करते हैं।
एक आठ वर्षीय लड़की ने परम पावन से पूछा कि जब वे उसकी आयु के थे तो स्वयं के लिए उनकी क्या सलाह रही होगी। उन्होंने उसे बताया कि वे एक शरारती लड़के थे जिसकी पढ़ाई में कोई रूचि न थी। वह बस खेलना और यहाँ वहाँ दौड़ना चाहते थे। वह इतने लापरवाह थे कि उनके शिक्षक उनके जूतों को चिथड़ी अवस्था में देखकर चौंक गए। उन्होंने स्मरण किया कि बाद में उन्होंने अध्ययन के मूल्य को समझा और उसमें अपने को लगा दिया।
उन्होंने कहा, "मेरा संबंध २०वीं शताब्दी की पीढ़ी से संबंधित है" और मेरा समय जा चुका है, पर हम अभी भी २१वीं शताब्दी के प्रारंभ के निकट हैं, जब हम गंभीरता से सोच सकते हैं कि क्या हम उसे दोहराना चाहेंगे जो पहले लोगों के पीड़ित होने और हिंसा के कारण मरने का हुआ। अभी भी करुणा और अहिंसा की भारतीय परम्पराओं का पालन करने की आवश्यकता है, अहिंसक रूप से अभिव्यक्त एक करुणाशील प्रेरणा।"
एक युवा, जो ध्यान का पाठ्यक्रम कर रहा है, ने सभी सत्वों के कल्याण के लिए बौद्ध प्रार्थना के संदर्भ में शाकाहारिता के बारे में पूछा। परम पावन ने पहले संकेत दिया कि यद्यपि तिब्बती ईमानदारी से ऐसी प्रार्थना करते हैं पर जब वे तिब्बत में थे तो वहाँ सब्जियां कम और मांसाहारी भोजन अधिक था। परन्तु भारत में निर्वासन में रहते हुए उनके पास कई अन्य विकल्प थे। उन्होंने समझाया कि पुनर्स्थापित विहारों के मुख्य रसोइयों में मात्र केवल शाकाहारी भोजन तैयार किया जाता है। साथ ही तिब्बती आवासों में मुर्गी और सूअर पालने से बचने के प्रयास किए गए थे।
फिर, परम पावन ने वार्तालाप की दिशा बदल दी।
"हमें शस्त्र व्यापार को कम करने के लिए भी प्रयास करना है। हमें एक विसैन्यीकृत विश्व बनाने की आवश्यकता है। कुछ समस्याओं का समाधान बल प्रयोग से हो सकता है, पर साधारणतया यह केवल समस्याओं को बढ़ाता है। हिंसा अंतहीन चक्र के रूप में प्रतिहिंसा को जन्म देती है।
"मैं अमेरिका से प्यार करता हूँ, जिसे मैं मुक्त विश्व के एक महत्वपूर्ण नेता के रूप में मानता हूँ, और मेरी जॉर्ज डब्ल्यू बुश के साथ अच्छी मैत्री है। ९/११ के एक दिन के बाद मैंने अपनी गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए लिखा पर साथ ही यह आशा कि हमले की प्रतिक्रिया में और हिंसा न होगी। अंततः इराक पर हमला हुआ और बाद में जब हम मिले तो मैंने उनसे उनके प्रति अपने स्नेह के बारे में बताया, पर साथ ही उनकी कुछ नीतियों के बारे में अपने विचार भी बताए। इराक में लोकतंत्र लाने का इरादा सराहनीय था; बल का उपयोग नहीं था।
"मानव समस्याओं को हल करने का एकमात्र उपाय मिलकर संवाद में संलग्न होना है। संवाद पर निर्भरता के लिए तैयार हैं तो हम एक और शांतिपूर्ण विश्व बनाने में सक्षम होंगे।"
जब श्रोतागण विदा देने के लिए अञ्जलिबद्ध होकर मुस्कुराते हुए उनके समक्ष खड़े हुए तो परम पावन ने उन्हें देखने हेतु आने के लिए धन्यवाद किया। वह मंदिर के प्रांगण से अपने आवास के सभागार गए जहाँ ८८ थाई भिक्षुओं, १३ भिक्षुणियाँ, ४८ साधारण लोग तथा ८ विदेशी समर्थक मध्याह्न भोजन के लिए उनके साथ सम्मिलित हो रहे थे।
प्रारंभ में एक वरिष्ठ थाई थेरो ने परम पावन की दयालुता और आतिथ्य के लिए समूह की ओर से आभार व्यक्त किया। परम पावन ने उत्तर दिया कि मध्याह्न का भोजन साझा करना उनके लिए बहुत बड़ा सम्मान था।
"पचास वर्ष पूर्व जब थाईलैंड चीन के साथ राजनयिक संबंधों में जुड़े, मैंने आपके देश की दो या तीन बार यात्रा की और दिवंगत महामहिम राजा के दर्शन किए। मैं भिक्षाटन के लिए स्थानीय भिक्षुओं के साथ गया और मुझे स्मरण है कि बैंकाक की सड़कें गर्म थीं, अतः यद्यपि मैं वहाँ खुश और प्रसन्न था, मेरे नंगे पैरों को पीड़ा झेलना पड़ी।
"जैसे मैंने देखा मैं थाई बौद्ध जीवन का बहुत प्रशंसक हूँ। आज, आप यहाँ से लेह तक की पुनः विश्व शांति के लिए अपनी तीसरी धम्म पद यात्रा पर निकल रहे हैं, और आपका स्वागत करने और आपको मध्याह्न का भोजन देते हुए मुझे प्रसन्नता है।
"मैं यह कहने में बहुत अनिच्छुक हूं कि एक धर्म दूसरे से बेहतर है, ठीक उसी तरह जिस तरह हम दावा नहीं कर सकते कि एक दवा सभी के लिए श्रेष्ठ है। परन्तु मेरा विश्वास है कि शील, समाधि और प्रज्ञा की त्रिशिक्षा का पालन करते हुए हम अपनी भावनाओं से निपट सकते हैं तथा अपने चित्त को परिवर्तित कर सकते हैं जिससे हम अन्य लोगों की अधिक सहायता कर सकें। उस दृष्टिकोण से बौद्ध धर्म में हमारे सामान्य कल्याण में योगदान करने के लिए कुछ सार्वभौमिक है। हम इसे दूसरों के साथ मुक्ति या निर्वाण के बारे में बात किए बिना एक धर्मनिरपेक्ष रूप से साझा कर सकते हैं, तथा अपने आप को अधिक शांतिपूर्ण समुदायों में अधिक सुखी मनुष्य बनकर ही कर सकते हैं।"
भोजन प्रस्तुत करने के लिए पालि और भोट भाषा में प्रार्थनाओं का पाठ हुआ। भोजन के अंत में परम पावन ने अपने सभी अतिथियों, जो तीर्थ यात्रा के लिए प्रस्थान करने वाले थे, को शुभेच्छाएँ दीं।