थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र, भारत, आज प्रातः सिंहासन पर बैठने के उपरांत परम पावन दलाई लामा ने घोषणा की, कि उन्होंने सत्वों को दुर्गति से मुक्ति दिलाने वाले अवलोकितेश्वर की अनुज्ञा देने का निश्चय किया है। उन्होंने कहा कि इसके साथ वे प्रव्रजक तथा बोधिसत्व संवर ग्रहण करने का भी एक समारोह आयोजित करेंगे। परन्तु सबसे पहले, जबकि प्रार्थनाएं और सस्वर पाठ किए जा रहे थे, वे आवश्यक तैयारी करेंगे।
सर्वप्रथम थाई भिक्षुओं ने पालि में मङ्गल छंदों का सस्वर पाठ किया। उनके बाद भिक्षुओं, भिक्षुणियों और आम लोगों के मिश्रित समूह ने वियतनामी में 'हृदय सूत्र' का प्रफुल्लित स्वर में पाठ किया। इसके उपरांत पुनः इंडोनेशियाई में 'हृदय सूत्र' का पाठ हुआ और अंत सिंगापुर के एक समूह ने अंग्रेजी में पुनः एक बार उसका पाठ किया।
परम पावन ने दिन के प्रवचन के लिए दिशा निर्देश के रूप में आर्यदेव के 'चतुश्शतक' से उद्धरण दिया।
सर्वप्रथम अपुण्य को रोको,
तत्पश्चात रोको का विचार;
बाद में सभी प्रकार की दृष्टि रोको।
जो भी यह जानता है वह प्रज्ञावान है।
"अपुण्य का संदर्भ अकुशल आचरण से है जिससे बचा जा सकता है। इसके आधार पर सभी विकृत दृष्टियों से छुटकारा पाएं, जिसमें वास्तविक अस्तित्व की ग्राह्यता भी शामिल है। बोधिचित्त जिसके मूल में प्रेम व करुणा है वह सत्वों पर केंद्रित है; प्रज्ञा प्रबुद्धता पर केंद्रित है। बोधिचित्त के अभ्यास को छः पारमिताओं के साथ विकसित कर जिसमें प्रज्ञा शामिल है , शून्यता की अंतर्दृष्टि उत्पन्न करेगा।"
परम पावन ने बुद्ध के तीन या चार कायों को संदर्भित किया, जिसे उचित हेतुओं के विकास से ही प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने समझाया कि सूत्रों में सिखाया गया मार्ग बुद्ध की धर्म काय को जन्म दे सकता है, परन्तु वह मार्ग जिसका परिणाम रूप काय है, मात्र तंत्रों में पाया जाता है।
"वस्तुओं को यथा भूत समझना अज्ञान का प्रतिकारक है। प्रतीत्य समुत्पाद की समझ से शून्यता की समझ आती है और अज्ञान को निर्मूल कर देती है। रूप काय, जो दूसरों की सेवा कर सकती है, शून्यता के भीतर से उभरती है। धर्म काय को प्राप्त किए बिना, आप रूप काय को प्राप्त नहीं कर सकते, अतः सबसे पहले धर्म काय का लक्ष्य बनाएँ।
"अतीत में, ऐसे लोग थे जिन्होंने बल देकर कहा कि प्रज्ञा-पारमिता की शिक्षाएँ बुद्ध द्वारा नहीं दी गईं थीं। इसी प्रकार, दूसरों ने जोर देकर कहा कि पूरी की पूरी संस्कृत परम्परा की शिक्षा बुद्ध की शिक्षा नहीं थी। इन दावों को नागार्जुन की 'रत्नावली' में चुनौती दी गई है, जो बताता है कि कि बोधिचित्त, छह परामिताएँ और शून्यता सीधे बुद्ध द्वारा देशित की गईं थीं।
"चार आर्य सत्य, उनके सोलह आकार तथा ३७ बोध्यांग जो पालि परम्परा की आधारभूत शिक्षाओं में प्रकट हुए और सभी बौद्ध परंपराओं द्वारा आम तौर पर माने गए उन्हें संस्कृत परंपरा में विस्तृत रूप में समझाया गया है। फिर भी, इस तरह की घोषणा करना पर्याप्त नहीं है कि संस्कृत परम्परा का संबंध सीधे बुद्ध से है; असली प्रश्न यह है कि क्या वे कारण और तर्क की कसौटी पर खरे उतरते हैं।
"चूंकि कुछ भारतीय विद्वानों ने सुझाया है कि बुद्ध ने तंत्र की शिक्षा नहीं दी, क्योंकि मिलती जुलती प्रथाएँ जैसे अग्नि अनुष्ठान इत्यादि बौद्ध और अबौद्ध तंत्रों में पाए जाते हैं, मैंने अपने शिक्षक खुनु लामा रिनपोछे से यह समझाने के लिए कहा कि परम्पराओं में किस तरह अंतर किया जा सकता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह नहीं है कि अभ्यासों में नाड़ी, ऊर्जा तथा बिन्दुओं का उपयोग शामिल है जो अंतर करता है। विशिष्ट कारक यह है कि बौद्ध तंत्रों में उन्हें शून्यता की समझ हेतु व्यवहृत किया जाता है।
"मैंने भारतीय साधु के बारे में सुना है, जो पहाड़ों में नग्न रहते हैं, और आंतरिक उष्णता के अभ्यास को विकसित करते हैं। वे चेतना के स्थानांतरण का भी अभ्यास करते हैं। यह मेरी आशा और इच्छा है कि इन अनुभवी अभ्यासियों से मिलकर उनके साथ उनके अनुभवों पर चर्चा करूं।
"नागार्जुन, उनके शिष्य आर्यदेव और चंद्रकीर्ति, प्रत्येक ने शून्यता के विषय पर व्यापक रूप से लिखा, पर साथ ही तंत्र के बारे में भी रचनाएं लिखीं। उन्होंने समझाया कि देव योग शून्यता की समझ पर आधारित है।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि वे नहीं जानते थे कि क्या शांतरक्षित और कमलशील ने तंत्र के बारे में लिखा था, पर बाद में जो तिब्बती अनुवाद भारत आए, उन्होंने किया था। उनमें मरपा लोकचक्षु थे जिन्होंने सिद्ध नरोपा के साथ अध्ययन और प्रशिक्षिण लिया। वह पहले नालंदा विश्वविद्यालय में एक विद्वान थे जहां वे उत्तरी द्वार के द्वारपाल थे।
जैसे उन्होंने सर्वदुर्गति परिशोधन अवलोकितेश्वर, जो सत्वों को दुर्गति से मुक्त करते हैं, की अनुज्ञा देना प्रारंभ किया, परम पावन ने कहा कि यह अभ्यास मित्रयोगी से आया था, जिसने इसे सीधे तगफू दोर्जे छंग की शुभ प्रतिभास के संग्रह के माध्यम से अवलोकितेश्वर से प्राप्त किया। परम पावन ने श्रोताओं को बताया कि उन्हें यह क्यब्जे ठिजंग दोर्जे छंग से प्राप्त हुआ था और इस संबंध में एकांतवास के दौरान षड़ाक्षरी मंत्र का पाठ ६००,००० बार किया था।
समारोह के दौरान परम पावन ने प्रव्रजक संवर और और बोधिसत्व संवर दिए। जब अनुज्ञा पूरी हो गई तो उन्होंने 'बुद्धपालितवृत्ति' ली और श्रोताओं से यह स्मरण रखने का अनुरोध किया कि वह ग्रंथ के पठन में कहां तक पहुंचे थे।
"आप निराशा का अनुभव कर सकते हैं कि हम इस बार बुद्धपालित के ग्रंथ का पाठ बहुत नहीं हुआ। मैं इसे समाप्त करने के लिए दृढ़ संकल्पित हूं, चाहे मैं ९० वर्ष का क्यों न हो जाऊँ। कल में चित्त शोधन के अष्ट पद समझाऊंगा और आपके प्रश्नों पर चर्चा करने का अवसर होगा।"