मुंबई, महाराष्ट्र, भारत, आज जब परम पावन दलाई लामा विद्यालोक शिष्यों के साथ वार्तालाप के दूसरे दिन सोमैय्या विद्याविहार परिसर गाड़ी से गए तो नभ धुंधला था, परन्तु मुंबई की सड़कों अपेक्षाकृत खाली थी। सभागार में पहुँचने पर उन्होंने ३५० युवा श्रोताओं का अभिनन्दन किया जिन्होंने उनका सौहार्दपूर्ण और मुस्कुराते हुए स्वागत किया।
उन्होंने उनसे कहा, "आज, हम इस ग्रंथ के आवश्यक बिंदु देखेंगे। चूँकि मेरी अंग्रेजी अपर्याप्त है, अतः जो मुझे कहना है मैं उसे भोट भाषा में कहूँगा।"
उन्होंने अपनी कल कही बात दोहराई कि प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन का संबंध बुद्ध द्वारा चार आर्य सत्यों का प्रकटीकरण था। उन्होंने इन सत्यों के १६ आकारों का उल्लेख किया और स्पष्ट किया कि दुख सत्य के चार आकार अनित्यता, दुःख, शून्यता तथा अनात्म हैं। उन्होंने अनित्यता के विभिन्न पक्षों पर चर्चा की, न केवल किस तरह वस्तुओं का उदय, भव, क्षय और विघटन होता है, पर साथ ही वे किस तरह क्षण क्षण परिवर्तन के अधीन हैं। उन्होंने कहा कि क्योंकि यह कर्म और विनाशकारी भावनाओं के अधीन है, हमारा अस्तित्व दुख की प्रकृति है।
दुःख चित्त - काय संयोजन से अलग अस्तित्व के कारण शून्य है। इसके नैरात्म्य का संदर्भ आत्म निर्भर, स्वभाव सत्ता रखते आत्म से अधिक सूक्ष्म अनुपस्थिति से है। इसका विस्तृत विवरण द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन में दिया गया जब बुद्ध ने प्रज्ञा पारमिता की व्याख्या की। यह 'हृदय सूत्र' में संदर्भित जहाँ पञ्च मनोवैज्ञानिक-भौतिक स्कंधों को किसी स्वभाव सत्ता का अभाव रखते हुए के रूप में वर्णित किया गया है। पञ्च स्कंधों पर आधारित व्यक्ति स्वभाव सत्ता से शून्य है, पर साथ ही स्कंध भी शून्य हैं।
चित्त मात्र परम्परा तथा मध्यमक परम्परा दोनों ही धर्म नैरात्म्य पर बल देते हैं। अपनी रत्नावली में नागार्जुन कहते हैं,
जब तक स्कंधों के लिए ग्राह्यता है
जब तक आत्म के प्रति ग्राह्यता है
इसके अतिरिक्त जब आत्म के प्रति ग्राह्यता है
वहाँ कर्म है और उससे जन्म भी है।
"लगभग चालीस वर्षों पूर्व मुझमें नैरात्म्य को लेकर कुछ अंतर्दृष्टि थी," परम पावन ने बताया, "पर जब मैंने इसका अधिक ध्यान से परीक्षण किया तो मुझे अनुभूति हुई कि पुद्गल नैरात्म्य के विषय में सोचना एक बात है, पर इसे धर्म में व्यवहृत करना अधिक कठिन है। मेरी समझ स्थूल थी। धर्म तथा पुद्गल नैरात्म्य की अनुभूति आवश्यक है।
"प्रासंगिक माध्यमिक स्वतंत्र सत्ता का एक कण भी स्वीकार नहीं करता और न ही वह पुद्गल नैरात्म्य और धर्म नैरात्म्य के बीच सूक्ष्मता में अंतर को स्वीकार करता है, मात्र केवल वस्तु का एक अंतर होता है। भूमि, मार्ग और फल की कोई आंतरिक सत्ता नहीं होती, वे केवल नाम के रूप में अस्तित्व रखते हैं। किसी की भी कोई ठोस इकाई नहीं होती, यद्यपि दृश्य रूप में वस्तुएँ इस तरह का अस्तित्व लिए प्रतीत होती हैं। इस की समझ हम जिस तरह वस्तु को बढ़ा चढ़ा कर देखते हैं उसे कम करने में सहायता करता है।"
शांतिदेव के 'बोधिसत्वचर्यावतार' के नवें अध्याय प्रज्ञा- पारमिता को खोलते हुए परम पावन ने प्रथम दो श्लोकों को पढ़ाः 'सिद्धांत के इन सभी परिकरों को प्रबुद्ध मुनि ने प्रज्ञा को व्याख्ययित करने के लिए किया। अतः वे लोग जो दुःख से निवृत्ति की आकांक्षा रखते हैं उन्हें प्रज्ञा का उत्पाद करना चाहिए। जो सत्य द्वय घोषित किए गए हैं वे सांवृतिक और परमार्थिक हैं, परन्तु परमार्थिक सत्य बुद्धि की पहुँच से परे है, क्योंकि बुद्धि को सांवृतिक माना जाता है।'
परम पावन ने नागार्जुन के 'मूलमध्यमकारिका' से दो श्लोकों को पढ़कर समाप्त कियाः
जो प्रतीत्य समुत्पाद है,
वह शून्यता के रूप में व्याख्यायित होता है।
वह आश्रित होकर ज्ञापित है,
वह मध्यमा प्रतिपत् है।।
ऐसे कोई धर्म अस्तित्व नहीं रखता
जो प्रतीत्य समुत्पादित न हो
अतः ऐसा कोई धर्म नहीं
जो शून्यता न हो।
चाय के अंतराल के दौरान, गेशे व अन्य योग्य शिक्षक, जो मध्याह्न के समीक्षा सत्र की अगुवाई कर रहे थे, परम पावन के निकट एकत्रित हुए ताकि वे भारत में प्राचीन भारतीय ज्ञान को किस तरह पुनर्जीवित किया जाए, पर उनके विचार सुन सकें। उन्होंने उन्हें विशेष रूप से तर्क तथा मीमांसा की प्राचीन भारतीय परम्पराओं, साथ ही साथ चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य की ओर ध्यान देने के लिए कहा। परम पावन का मानना है कि यही है जो आज के लोगों की आवश्यकता के लिए प्रासंगिक है।
श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर देते हुए परम पावन ने स्पष्ट किया कि शून्यता का अर्थ कुछ न होना नहीं है। इसका संदर्भ स्वतंत्र सत्ता का अभाव है। उन्होंने प्रश्नकर्ता को स्वयं से पूछने के लिए प्रोत्साहित किया कि प्रश्न किसने पूछा? क्या आत्म शरीर है, शरीर का एक अंग है या शरीर का स्वामी? उन्होंने जे चोंखापा के 'प्रतीत्य समुत्पाद स्तुति' को उद्धृत किया।
इस संसार में जितने भी दुर्गतियां हैं,
इन सब की जड़ अज्ञान है;
आपने देशना दी कि यह प्रतीत्य समुत्पाद है
जिसे देखकर यह अज्ञान दूर हो जाएगा।
एक मनोवैज्ञानिक ने अधिकारियों की ओर से विरोध की स्थिति में बच्चों के लिए करुणा की शिक्षा के विषय में पूछा। परम पावन ने उन्हें वैज्ञानिक निष्कर्ष, सामान्य ज्ञान और आम अनुभव पर निर्भर एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। एक और प्रश्नकर्ता ने विश्व की बढ़ती जनसंख्या का विषय उठाया। परम पावन ने सहमति व्यक्त की कि प्राकृतिक संसाधनों में कमी के साथ- साथ यह एक गंभीर समस्या है। यद्यपि जन्म नियंत्रण एक समाधान प्रदान करता है, उन्होंने विनोदपूर्वक सुझाव दिया कि इसे अहिंसक रूप से लागू किया जा सकता है यदि अधिक लोग भिक्षु व भिक्षुणियाँ बन जाएँ।
इस बात को व्याख्यायित करने के लिए कि विनाशकारी भावनाओं से किस तरह निपटा जाए, परम पावन ने उनके विरोधी शक्तियों के साथ परिचित होने की सलाह दी। इसमें कमियों पर चिंतन भी शामिल है। उदाहरणार्थ क्रोध सदैव नकारात्मक होता है। यह हमारे चित्त की शांति नष्ट करता है। जब हम क्रोध में होते हैं तो हमें अपने परम मित्र से मिलने में भी कोई रुचि नहीं होती। उन्होंने कहा कि 'बोधिसत्वचर्यावतार' के अध्याय छह का संबंध क्षांति से है - जो क्रोध का विपक्ष है। क्रोध प्रायः आत्म-केंद्रितता के एक सशक्त भावना के साथ होता है। उसी ग्रंथ के आठवें अध्याय में आत्म पोषण की हानि और दूसरों के प्रति सोच के लाभ को विस्तृत रूप से समझाया गया है।
इस लोक में जो भी आनन्द है
वे सब अन्य लोगों की सुख की इच्छा से आते हैं,
और इस लोक में जो भी दुख है
वे सब स्व - सुख की इच्छा से आते हैं।
सत्रांत पहुँचने पर, परम पावन ने आशा व्यक्त की कि श्रोताओं ने जो कुछ सुना उसमें उन्हें प्रेरणा के रूप में कुछ प्राप्त हुआ होगा। उन्होंने वीर सिंह को उनके विचार साझा करने का अवसर प्रदान करने के लिए धन्यवाद किया। एक सामूहिक चित्र लिया गया जिसके उपरांत सब साथ मिलकर मध्याह्न भोजन हेतु चाणक्य भवन गए।
कल, परम पावन एक समसामयिक विश्व में भारतीय ज्ञान को पुनर्जीवित करने पर एक सार्वजनिक व्याख्यान देंगे।