नई दिल्ली, भारत - परम पावन दलाई लामा को आज राजेंद्र माथुर स्मारक व्याख्यान देने हेतु एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के पूर्व निवास, तीन मूर्ति भवन में आमंत्रित किया गया था। कोषाध्यक्ष कल्याणी शंकर ने औपचारिक रूप से उपस्थित ३५० श्रोताओं का स्वागत किया। तत्पश्चात अध्यक्ष राज चेंगप्पा ने कार्यक्रम का परिचय दिया।
उन्होंने कहा कि आज जब भारत स्वतंत्रता के ७० वर्ष साल मनाने के लिए तैयारी कर रहा है, उसके पास अभी भी एक सशक्त मीडिया है। उन्होंने सूचित किया कि एडिटर्स गिल्ड की स्थापना १९७७ में हुई थी और जनसंख्या की स्वतंत्रता को प्रतिबिम्बित करती प्रेस की स्वतंत्रता भारतीय लोकतंत्र का अभिन्न अंग है। उन्होंने समझाया कि गिल्ड २००२ से विशिष्ट संपादक और पत्रकार राजेंद्र माथुर की स्मृति में एक वार्षिक व्याख्यान आयोजित करता रहा है। विगत वर्ष अमर्त्य सेन ने असहिष्णुता के लिए कोई सहिष्णुता नहीं पर बात की थी। इस वर्ष गिल्ड परम पावन का स्वागत करते हुए हर्ष का अनुभव कर रहा है जिनके लिए उन्होंने कहा कि वे शांति और आध्यात्मिकता के प्रकाश स्तंभ हैं।
"इस अवसर पर आपके साथ बात करना मेरे लिए वास्तव में एक महान सम्मान है," परम पावन ने प्रारंभ किया। "यह विश्व ७ अरब मनुष्यों का है जो आज जीवित हैं। प्रत्येक देश उनके लोगों का होता है न कि उनके राजाओं या रानियों, निर्वाचित नेताओं, आध्यात्मिक नेताओं या तानाशाहों का। और लोगों को अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी होने के लिए लोकतंत्र सर्वोत्तम व्यवस्था है।
"जब मैं तिब्बत में एक बालक था तो मैंने अनुभव किया कि हमारी पुरानी सरकारी व्यवस्था में कई कमियाँ थीं - बहुत कम हाथों में बहुत अधिक सत्ता। कलिम्पोंग में प्रकाशित 'तिब्बत मिरर’, जो यदा- कदा हम तक पहुँचता था, के अतिरिक्त हमारे यहाँ कोई समाचार पत्र नहीं था। मेरी जानकारी के स्रोत राजभवन के सफाई कर्मचारी थे।
"१९५० - ५१ में तिब्बत के मामलों का उत्तरदायित्व लेने के बाद मैंने एक सुधार समिति स्थापित की। यह बहुत सफल नहीं हुआ क्योंकि चीनी यह सुनिश्चित कर रहे थे कि यदि सुधार हों तो वे उनके अनुसार किए जाएँ।१९५४ में मैंने बीजिंग की यात्रा की और १९५६ में मैं भारत आया। मैंने १९५४ में बीजिंग में प्रथम बार पंडित नेहरू से भेंट की, पर १९५६ में उन्हें और अधिक जान पाया। १९५९ में हम संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत का मुद्दा उठाना चाहते थे। उन्होंने इसके विपरीत सलाह दी, पर फिर भी हम गए। बाद में मैं उसे लेकर किंचित आशंकित था कि वे क्या कहेंगे पर मुझे एक सुखद आश्चर्य हुआ जब उन्होंने कुछ न कहा। यह एक प्रारंभिक सबक था कि विचारों की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है।"
परम पावन ने समझाया कि तिब्बतियों ने अपनी संस्कृति और परम्पराओं को जीवित रखने के लिए विभिन्न परियोजनाएँ की हैं। मसूरी में अपने प्रथम वर्ष में लोकतंत्र को प्रारंभ करने की योजना रखी गई थी। तिब्बती प्रशासन के नेता के निर्वाचन के बाद, परम पावन राजनीतिक गतिविधियों से सेवानिवृत्त हुए और भविष्य के दलाई लामाओं में से किसी के द्वारा भी ऐसी भूमिका निभाने का अंत किया।
"लोकतंत्र के प्रशंसक के रूप में मैं इसके लिए प्रतिबद्ध हूँ। अब तक हमारी जो भी प्राप्ति है उस पर हमें गर्व है। इस संबंध में हमारा छोटा समुदाय हमारे महान पड़ोसी चीन की तुलना में अधिक उन्नत है। अंततः संभवतः वह हमारा अनुसरण कर सकती है। भारत विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला लोकतंत्र है और परिणामस्वरूप, उसके पड़ोसी राष्ट्रों की तुलना में यह अधिक स्थिर और शांतिपूर्ण है। 'अहिंसा' की स्थायी परंपरा का यह भी अर्थ हुआ है कि भारत एकमात्र ऐसा देश है जहाँ विश्व के सभी प्रमुख धर्म शांतिपूर्वक एक साथ रहते हैं।
"चूंकि लोगों का अंतिम उत्तरदायित्व बनता है, अतः उन्हें पूरी तरह से सूचित करना होगा कि वास्तव में क्या हो रहा है। अतः मीडिया को ईमानदार, सच्चा और निष्पक्ष होना चाहिए। परन्तु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मीडिया नकारात्मक कहानियों को उठाती जान पड़ती है और पाठकों को आकर्षित करने के लिए उन्हें सनसनीखेज बनाती है। जब लोगों को मात्र नकारात्मक समाचार मिलते हैं तो वे निराश हो जाते हैं और चिंतित हो जाते हैं कि भविष्य अंधकारमय है।
"परिणामस्वरूप, मैं मानता हूँ कि मीड़िया पर सकारात्मक कहानियों पर ध्यानाकर्षित करने का भी उत्तरदायित्व है, जैसे कि वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है। लोगों को आशा प्रदान करना आवश्यक है। चूँकि हम सामाजिक प्राणी हैं, जो प्रेम और स्नेह के मूल्य को समझते हुए बड़े हुए हैं, अतः एक अधिक करुणाशील मानव समाज बनाने का प्रयास करना महत्वपूर्ण है।
"इसका एक और अंग यह है कि परीक्षण किया जाए कि क्या वर्तमान शिक्षा व्यवस्था वास्तव में पर्याप्त है अथवा नहीं। चूंकि हम जिन कई समस्याओं का सामना करते हैं, मानव निर्मित हैं और उनमें से कई जो इन्हें जन्म देते हैं, शिक्षित हैं तो जिस तरह की शिक्षा हम प्रदान कर रहे हैं, उसकी पुनः जांच करना उचित है। अधिकांश रूप से शिक्षा की मुख्यधारा भौतिक लक्ष्यों पर केंद्रित है, जो आधारभूत मानव मूल्यों पर कम केन्द्रित है।
"कई लोग इस तरह के मूल्यों के लिए धर्मोन्मुख होते हैं, पर आज जीवित ७ अरब लोगों में १ अरब लोग बहुत कम रुचि अथवा आस्था रखते हैं। शेष ६ अरब लोगों में प्रतिबद्धता के विभिन्न स्तर हैं। सभी धर्मों में बेहतर मानव निर्मित करने की समान क्षमता है, और जहाँ कुछ 'एक सत्य, एक धर्म' के संदर्भ में बोलते हैं, पर हर भारतीय बच्चा यह जानते हुए बड़ा होता है कि विभिन्न धर्म हैं और सत्य़ के कई पहलू हैं। भारत जो स्पष्ट रूप से दिखाता है, वह यह कि प्रमुख धार्मिक परम्पराएँ साथ साथ रह सकती हैं। यह 'अहिंसा' पर आधारित कार्रवाई का परिणाम है और 'करुणा' से प्रेरित है।
परम पावन ने समझाया कि मानवता की एकता के विषय में जागरूकता बढ़ाने, धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने और तिब्बती संस्कृति को संरक्षित करने, जो मूल रूप से नालंदा परंपरा में निहित है, के अतिरिक्त वे इस देश में चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य के प्राचीन भारतीय ज्ञान को पुनर्जीवित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
उन्होंने बल देते हुए कहा कि लगभग सभी तिब्बतियों का ज्ञान भारत से आया है इसी कारण १४वीं - १५वीं शताब्दी के तिब्बती आचार्य ने कहा कि जब तक भारत का प्रकाश तिब्बत नहीं लाया गया, तब तक हिम भूमि होने के बावजूद वह अंधकार में था।
परम पावन ने सिफारिश की कि मीडिया के सदस्यों को इस बात पर गंभीरता पूर्वक सोचें कि वे लोगों को जागरूक करें कि जहाँ भौतिक लक्ष्य शारीरिक आराम दे सकते हैं, चित्त की शांति को पाने में बहुत कुछ है। उन्होंने कहा कि यह मात्र प्रार्थना या मंत्र का पाठ करने की बात नहीं है; यह हमारी भावनाओं को रूपांतरित करने के विषय में है। उन्होंने १०,००० भिक्षुओं तथा १००० से अधिक भिक्षुणियों का उल्लेख किया, जिन्हें नालंदा परम्परा में प्रशिक्षित किया गया है। कई अंग्रेजी, हिंदी और चीनी का भी अच्छा ज्ञान रखते हैं और साथ ही साथ विज्ञान से भी परिचित हैं।
"आधुनिक भारत पाश्चात्य उदाहरणों का पालन करने के लिए उत्सुक है, पर मैं अपने भारतीय मित्रों को गंभीर रूप से यह देखने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ कि किस तरह चित्त का प्राचीन भारतीय ज्ञान उपयोगी तथा प्रासंगिक है। यही मैं आपके साथ साझा करना चाहता था - अब मैं आपके प्रश्नों को सुनना चाहूँगा।"
गिल्ड अध्यक्ष चेंगप्पा ने डोगलम में भारतीय-चीनी गतिरोध के बारे में परम पावन की सलाह और युद्ध की वर्तमान चर्चा के बारे में पूछते हुए प्रारंभ किया। उन्होंने कहा कि यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, पर भारत और चीन ऐतिहासिक रूप से पड़ोसी रहे हैं। उन्हें एक साथ रहना होगा। और यद्यपि कटु शब्दों का आदान-प्रदान संभव है, वे नहीं सोचते कि यह और अधिक गंभीर होगा।
उन्होंने सलाह दी कि चीनी अधिकारियों और चीनी लोगों के बीच भेद किया जाना चाहिए तथा सिफारिश की कि भारत सरकार चीनी बौद्ध तीर्थयात्रियों को बोधगया, सांची, राजगीर इत्यादि आने के लिए सुविधाओं को बेहतर करें। यह एक विश्वास निर्माण उपाय के रूप में काम कर सकता है। उन्होंने कहा कि चीन को बदलने की आवश्यकता है पर यह कि विगत ३० वर्षों में बड़े परिवर्तन हुए हैं।
यह पूछे जाने पर कि क्या वे तिब्बत लौटने की आशा रखते हैं, परम पावन ने उत्तर दिया कि वह स्वयं को 'भारत पुत्र' के रूप में भी संदर्भित करते हैं और जिस स्वतंत्रता का आनन्द वे यहाँ लेते हैं वे उसे छोड़ना नहीं चाहेंगे। यह एक ऐसी स्वतंत्रता है जो उन्हें दूसरों के साथ अपने विचार साझा करने की अनुमति देती है। इस बात को स्वीकार करते हुए कि वह एक देशहीन शरणार्थी हैं, वे प्राचीन भारतीय ज्ञान के दूत के रूप में कार्य करते हैं, जो उन्हें लगता है कि उनके जीवन को सार्थक बनाता है।
इस आम प्रश्न के उत्तर में कि पन्द्रहवें दलाई लामा होगें अथवा नहीं, उन्होंने अपनी स्थिति को दोहराया कि १९६९ में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि यह तिब्बत, हिमालयी क्षेत्र और मंगोलिया के लोगों की इच्छा पर निर्भर होगा। उन्होंने सहमति व्यक्त की कि यदि यह उपयोगी हो तो भविष्य में दलाई लामा एक महिला हो सकतीं हैं।
महिलाओं तथा शिक्षा के विषय में एक अनुवर्ती प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने बताया कि किस तरह अतीत में मानव नेतृत्व की कसौटी शारीरिक बल होता था, जिसने पुरुष प्रभुत्व को जन्म दिया। तब से, शिक्षा ने कुछ सीमा तक समानता को बहाल किया है। उन्होंने बल देते हुए कहा कि ऐसे समय में जब हमें सौहार्दता जैसे आंतरिक मूल्यों को अपनाने के लिए प्रोत्साहन की आवश्यकता है तो अधिक व्यापक महिला नेतृत्व आवश्यक है। उन्होंने शिक्षकों के महत्व पर भी बात की और चूँकि वे दूर-दूर तक के परिवर्तन को प्रभावित कर सकते हैं उनकी करुणा डॉक्टरों और नर्सों की तुलना में बड़ी मानी जा सकती है।
समापन की टिप्पणी में गिल्ड अध्यक्ष चेंगप्पा ने पूछा कि बुद्ध की किस सलाह ने परम पावन को सबसे अधिक प्रभावित किया है। उन्होंने उस छंद का उल्लेख किया जिसमें बुद्ध ने सलाह दी है,
ओ भिक्षुओं और विद्वानों,
जिस तरह स्वर्ण का जलाकर, काटकर और रगड़कर परीक्षण किया जाता है,
मेरे शब्द भली भांति जांचें
और तभी उन्हें स्वीकार करें, मात्र मेरे प्रति सम्मान के कारण नहीं।
सभागार सौहार्दपूर्ण करतल ध्वनि से पूरित हो गई जब महासचिव प्रकाश दुबे ने धन्यवाद ज्ञापित किया। कई लोग आगे आकर उनसे कुछ कहना चाहते थे, हाथ हिलाना चाहते थे या उनका चरण स्पर्श करना चाहते थे अतः परम पावन के प्रस्थान में विलम्ब हुआ। वह मध्याह्न भोजन के लिए अपने होटल में लौटे।