रीगा, लातविया, आज प्रातः मौसम खिला हुआ था और रीगा के वृक्ष युक्त उद्यान सूर्य की किरणों की आभा से मंडित थे जब परम पावन दलाई लामा गाड़ी से शिक्षण स्थल- स्कोन्टो सभागार पहुँचे। उनका प्रथम कार्यक्रम मीडिया के सदस्यों से मिलना था।
उन्होंने कहा, "मैं यहाँ आकर खुश हूँ।" "मनुष्य के रूप में हम सब एक समान हैं, और यदि हम अपने बीच के गौण भेदों पर बहुत अधिक ध्यान देंगे तो इसका परिणाम संघर्ष और हिंसा हो सकता है। हमारे चेहरे समान हैं। हम सब की दो आँखें, एक नाक और एक मुंह है। इन चेहरों के पीछे हमारे चित्त और भावनाएँ समान हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि हम सब सुख व शांति चाहते हैं - हिंसा इसे भंग करती है।
"जलवायु परिवर्तन इस अथवा उस देश तक सीमित नहीं है, यह हम सब को प्रभावित करता है। प्रकृति हमें सिखा रही है कि मनुष्यों को एक समुदाय के रूप में मिलकर काम करना चाहिए। मैं इस जागरूकता को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध हूँ, कि हम मनुष्य रूप में हम सभी समान हैं। इसके अतिरिक्त, चूँकि सभी प्रमुख धार्मिक परम्पराएँ प्रेम और करुणा का एक आम संदेश धारण करती हैं, अतः मैं उनके बीच सद्भाव और सम्मान को पोषित करने हेतु प्रतिबद्ध हूँ। आप मीडिया के लोग इसमें भी योगदान दे सकते हैं।"
परम पावन से जो पहला प्रश्न पूछा गया वह सम्प्रति विश्व में संघर्ष के क्षेत्रों से संबंधित था। उन्होंने उत्तर दिया, "अभी २१वीं शताब्दी का प्रारंभ ही है, पर वास्तविकता परिवर्तित हो गई है। परन्तु पुरानी सोच अभी भी प्रचलित है, विशेषकर कुछ नेताओं के चित्त में। वे अभी भी २०वीं सदी के विचारों से चिपके हैं कि बल द्वारा समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है। इस प्रत्युत्पादक, तारीख से बाहर के दृष्टिकोण में परिवर्तन होना आवश्यक है।
"मैं यूरोपीय संघ की भावना का प्रशंसक हूँ जिसने पूरे समुदाय के कल्याण को अधिक महत्व देते हुए कई दशकों तक शांति बना रखी है। समय के साथ साथ इसमें रूस को भी शामिल किया जाना चाहिए। यह मेरा स्वप्न है कि इस तरह की भावना का विकास अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया में भी हो।"
गेशे वंगज्ञल की स्मृतियों के बारे में पूछे जाने पर, परम पावन ने कहा कि जब वह तिब्बत में अल्पावस्था के थे तो ल्हासा में कल्मिकिया, बुर्याशिया और तुवा से लगभग १०० विद्वान थे जिनके बीच गेशे वंगज्ञल भी थे। उन्होंने उल्लेख किया कि वे १७ नालंदा पंडितों की मूर्तियों के एक मंदिर का उद्घाटन करने के लिए पूर्व काल्मिक राष्ट्रपति के निमंत्रण को स्वीकार नहीं कर पाए पाए हैं।
उन्होंने स्पष्ट किया कि वह हाल में लातविया आ रहे हैं क्योंकि रुचि रखने वाले रूसी लोगों ने उनसे शिक्षण के लिए आग्रह किया है, पर जब वे इस समय रूस की यात्रा करने में असमर्थ हैं तो उनमें से कई भारत आने में आर्थिक रूप से समर्थ नहीं हैं - लातविया वह स्थान है जहाँ वे मिल सकते हैं। उन्होंने आगे कहा कि जब आपको कठिनाई का सामना करना पड़ता है, तो वह धैर्य और सहनशीलता जैसे आध्यात्मिक अभ्यास का सर्वश्रेष्ठ समय होता है।
"यदि सब कुछ ठीक है तो आपको किसी उपचार की आवश्यकता नहीं है। दूसरी ओर यदि आप क्रोध के काबू में आने वाले हैं तो आप स्वयं से पूछ सकते हैं कि उससे क्या लाभ होगा और इसे रोक सकते हैं। मैंने लगभग ६० वर्षों से शून्यता की बौद्ध व्याख्या पर चिन्तन किया है - और ४० वर्षों से अधिक गहन रूप से - और इस अनुभव ने वास्तव में मेरे क्लशों को कम करने में सहायता की है। यही कारण है कि मैं सलाह देता हूँ कि यदि बौद्ध धर्म को जीवित रहना है तो यह अध्ययन और अभ्यास के परिणामस्वरूप होगा।"
तत्पश्चात परम पावन बाहर मंच पर आए और लातविया, लिथुआनिया और एस्टोनिया और साथ ही रूस से आए ३८०० से अधिक श्रोताओं का अभिनन्दन किया। कुछ मोटर गाड़ी, कुछ हवाई जहाज़ और कुछ ट्रेन से आए थे। उदाहरण के लिए काल्मिकिया से ६९५ लोग ७४ सीटों की डबल डेकर बसों में २ दिन से अधिक की यात्रा तय करके आए थे। परम पावन को सुनने के लिए, तीर्थयात्रा पर आने वाले प्रमाण के रूप में टिकटों को स्वीकार करते हुए लातवियाई अधिकारी सहायक और सहज रहे हैं।
नालंदा के सत्रह पंडितों के एक विशाल चित्र के समक्ष, अगल बगल में बैठे संघ के सदस्यों के बीच परम पावन ने अपना आसन ग्रहण किया। रूसी भाषा में 'हृदय सूत्र' का सस्वर पाठ हुआ।
"आज, मैं मुख्य रूप से रूस के लोगों के लिए प्रवचन दूँगा," परम पावन ने प्रारंभ किया "जो बौद्ध धर्म को अपनी धार्मिक परम्पराओं में से एक के रूप में पहचानता है। काल्मिकी, बुर्यात और तुवा न केवल पारम्परिक रूप से बौद्ध हैं; उनका तिब्बती बौद्ध धर्म के साथ एक ऐतिहासिक संबंध है।
"पश्चिम में, जहाँ पारम्परिक आस्था बौद्ध नहीं है, मैं सीधे बौद्ध धर्म की शिक्षा देने को लेकर सावधानी बरतता हूँ। जर्मनी और इटली में, जहाँ मैं हाल में था, मैंने दर्शन और मनोविज्ञान पर अधिक चर्चा की। मेरा एक अच्छा ईसाई मित्र था, ब्रदर वेन, जिनके साथ मैं एकाग्रता के विकास और करुणा जनित करने की तकनीकों पर चर्चा करता था। पर जब शून्यता की बात आई तो मैंने उससे कहा कि वह इस बारे में न पूछें। मैं इसको लेकर चिंतित था कि यह समझाते हुए कि किस तरह वस्तुएँ अन्योन्याश्रित हैं और एक भ्रांति की तरह वर्णित की गई हैं उनका अपने ईश्वर पर का विश्वास कम हो सकता था।
२१वीं शताब्दी में धर्म का क्या अर्थ है? क्या यह इतनी तकनीकी और वैज्ञानिक विकास के समक्ष प्रासंगिक है? इन दिनों लोगों को औषधि के उपयोग से तनाव से चैन मिल सकता है, पर उससे उन्हें नकारात्मक भावनाओं को कम करने में सहायता न मिलेगी। ऐसा करने का तरीका चित्त का रूपांतरण है। शिक्षा और धर्म ने अलग-अलग दिशाएँ ले ली हैं। हमारे आंतरिक विश्व की देखरेख धर्म पर छोड़ दी गई है, पर इसके प्रभाव का ह्रास हुआ है।
अतः धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के लिए स्थान है - धर्मनिरपेक्ष का भारतीय अर्थ सभी धर्मों के प्रति निष्पक्ष सम्मान के संदर्भ में। हम देख रहे हैं कि शिक्षा में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को किस प्रकार शामिल किया जाए। उदाहरणार्थ एमोरी विश्वविद्यालय, स्कूलों के लिए एक पाठ्यक्रम प्रकाशित करने की तैयारी कर रहा है और टाटा इंस्टीट्यूट फॉर सोशल साइंसेज ने हाल ही में उच्च शिक्षा के लिए एक कार्यक्रम प्रारंभ किया है।
"मान्यता है कि बुद्धत्व प्राप्त करने के उपरांत, छह वर्षों तक तपस्या करने और विभिन्न गहन ध्यानानुभूतियों के बाद, बुद्ध ने सोचा -
गहन व शांतिमय, प्रपञ्च मुक्त, असंस्कृत प्रभास्वरता
मैंने अमृत मय धर्म प्राप्त किया है
फिर भी यदि मैं इसकी देशना दूँ तो कोई समझ न पाएगा,
अतः मैं अरण्य में मौन रहूँगा।
"तथापि समय के साथ वे सारनाथ में अपने पूर्व पांच सहयोगियों से मिले और उनके अनुरोध पर उन्होंने चार आर्य सत्यों की देशना दी। उन्होंने समझाया कि किस तरह काय के प्रति स्मृति उपस्थान दुःख की समझ को जन्म देता है, वेदनाओं की स्मृति इसके उद्गम की समझ को प्रकट करते हैं, चित्त की स्मृति निरोध की समझ का और धर्म स्मृति मार्ग की समझ स्पष्ट करती है। चार आर्य सत्यों और उनके सोलह आकारों की व्याख्या सभी बौद्ध परम्पराओं में समान है।"
परम पावन ने समझाया कि बुद्ध ने प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन में पुद्गल नैरात्म्य की व्याख्या की। परन्तु केवल द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन में ही उन्होंने प्रकट किया कि पञ्च स्कंध भी 'स्व स्वभाव सत्ता की शून्यता' रखते हैं। यही कारण है कि 'हृदय सूत्र' कहता है कि 'रूप शून्यता है, शून्यता ही रूप है। रूप से पृथक शून्य नहीं है, शून्यता से पृथक रूप नहीं हैं।' इस प्रकार उन्होंने सत्य द्वय को समझाया, सांवृतिक और परमार्थिक। तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन में उन्होंने बुद्ध प्रकृति की व्याख्या की।
परम पावन ने १९वीं शताब्दी के एक तिब्बती लामा का उल्लेख किया जिनके अनुसार बुद्ध की शिक्षाओं के रूप में एक सामान्य संरचना और एक विशिष्ट देशना शामिल है। सूत्र अधिकांश रूप से सामान्य संरचनाओं से युक्त होते हैं, जबकि तन्त्रों को विशेष शिक्षाओं में सम्मिलित किया जाता है, जो विशिष्ट शिष्यों के लिए है। परम पावन यह स्पष्ट करना चाहते थे कि शिक्षाओं की सामान्य संरचना की पृष्ठभूमि के अभाव में तंत्र का प्रभावी ढंग से अभ्यास कठिन है। कमलशील का 'भावनाक्रम' और चोंखापा का 'संक्षिप्त पथ क्रम' दोनों ही सामान्य संरचना से संबंधित हैं।
शांतरक्षित के तिब्बत आने और वहां बौद्ध धर्म के अध्ययन और अभ्यास की स्थापना के उपरांत उन्होंने भविष्यवाणी की कि एक विवाद पैदा होगा जिसके समाधान के लिए उनके शिष्य कमलशील श्रेष्ठ होंगे। परिणामस्वरूप कमलशील ने सम्राट ठिसोंग देचेन के अनुरोध पर 'भावना क्रम' की रचना की। 'संक्षिप्त पथ क्रम' अतीश के 'बोधि पथ प्रदीप’ के स्वरूप का अनुसरण करता है, जिसे उन्होंने ११वीं शताब्दी में जंगछुब-ओ के अनुरोध पर तिब्बतियों के लिए लिखा था। यह स्वरूप कई अन्य ग्रंथों के लिए प्रारूप था जैसे लोंगछेनपा के सुख व सहजता की खोज का ग्रंथ त्रय और गम्पोपा की 'मुक्ति रत्नालंकार'।
परम पावन ने बारी बारी से दोनों ग्रंथों का पाठ किया 'भावना क्रम' में दुःख की प्रकृति की पहचान और 'संक्षिप्त पथ क्रम' में प्रारंभिक स्तर के व्यक्ति के लिए निर्देशों का अनुभाग पूरा किया। प्रातः के अंत में, उन्होंने घोषणा की कि वे कल प्रवचन देते हुए बोधिचित्तोत्पाद का समारोह करेंगे।