लेह, लद्दाख, जम्मू और कश्मीर - २७ जुलाई २०१७, आज प्रातः उन दर्जनों लोगों का अभिनन्दन करने के उपरांत जो वे जहाँ भी जाते हैं उनकी मुस्कुराहट देखने, आश्वासन के उनके शब्दों को सुनने, अथवा उनके शांत स्पर्श का अनुभव करने हेतु एकत्रित होते हैं, परम पावन शिवाछेल फोडंग परिसर के द्वार तक गए। वे प्रवचन मंडप, जो प्रवचन स्थल के अन्य छोर पर है, जाने के लिए गाड़ी में सवार हुए। उनका अभिनन्दन करने हेतु हज़ारों पंक्तिबद्ध होकर खड़े थे। मंडप के निकट सुन्दर पोशाक में सुसज्जित स्थानीय महिलाएँ, ढोलकिए, श्रृंग वाद्य वादक, अपने श्रृंग वाद्य लिए भिक्षु और एक समारोहीय छत्र उनके स्वागत की प्रतीक्षा में थे। भवन में प्रवेश करने से पहले, उन्होंने दीर्घ काल से रुग्ण तिब्बतियों को आश्वस्त करने में कुछ पल बिताए।
मंडप के अंदर जाकर वे बुद्ध की प्रतिमा के समक्ष नतमस्तक हुए और कई पुराने मित्रों को दृष्टिगत पाकर जैसे ही वह सीढ़ियों से मंच के किनारे से होते हुए गुज़रे वहाँ से उन्होंने बीच में बाएँ और दाएँ कोने से उन्होंने अनुमानित ४०,००० वाले जनमानस का अभिनन्दन किया। अपनी दाईं ओर लामा और भिक्षुओं का अभिनन्दन करने के उपरांत उन्होंने आसन ग्रहण किया। लद्दाख पब्लिक स्कूल के बच्चे, जिन्होंने यह प्रदर्शित किया था कि वे शास्त्रार्थ में कितने निपुण थे, बैठ गए। केन्द्रीय बौद्ध विद्या संस्थान के छात्रों ने संस्कृत में 'ह्रदय सूत्र' का एक मधुर पाठ प्रारंभ किया।
"हम इस प्रवचन का प्रारंभ वहां से कर रहे हैं जहाँ हमने पिछले वर्ष छोड़ा था," परम पावन ने समझाया "हमने 'बोधिसत्वचर्यावतार' के प्रथम तीन अध्यायों को समाप्त किया था, अतः हम अब अध्याय ४ से प्रारंभ करेंगे- बोधिचित्तप्रमाद। रचयिता शांतिदेव नालंदा के एक महान आचार्य थे और नागार्जुन के अनुयायी थे। मुझे यह शिक्षा किन्नौरी आचार्य तेनज़िन ज्ञलछेन से प्राप्त हुई, जिन्होंने मुझे विश्वास के साथ सूचित किया ८वीं शताब्दी में इस ग्रंथ की रचना के बाद बोधिचित्तोत्पाद को लेकर कोई अन्य व्याख्या की रचना नहीं हुई है। उन्होंने १९६७ में मुझे इसकी शिक्षा दी और यह मेरे चित्त के लिए बहुत लाभकारी रहा है। उन्होंने मुझसे कहा कि यह अच्छा होगा यदि मैं दूसरों को जितनी बार सिखा सकूँ उतनी बार शिक्षा दूँ।
"यहाँ बहुत से लोग एकत्रित हुए हैं मनोरंजन, व्यापार, या राजनैतिक रैली के लिए नहीं अपितु आध्यात्मिक शिक्षण के लिए। इसका क्या अर्थ है? यहां २१वीं सदी में आज सभी ७ अरब जीवित लोग सुखपूर्वक रहना चाहते हैं और पीड़ित नहीं होना चाहते। इस संबंध में हम सभी समान हैं। कई लोग धर्म में दिलासा खोजते हैं, परन्तु १ अरब लोग घोषित करते हैं कि उनकी इसमें कोई रुचि नहीं है, ये कहते हुए कि धर्म का शोषण करता है और अनावश्यक है। सभी धार्मिक परम्पराएँ प्रेम और करुणा की सराहना करती हैं, जो शांति और खुशी का स्रोत हैं तथा क्रोध व ईर्ष्या जैसे विनाशकारी भावनाओं की त्रुटियों के संबंध में आगाह करती हैं।
"वैज्ञानिकों का कहना है कि उनके पास प्रमाण हैं कि जो लोग प्रेम और करुणा को पोषित करते हैं, उनमें चित्त की शांति अधिक होती है, जबकि निरंतर क्रोध और भय हमें असहज करते हैं और स्वास्थ्य के लिए बुरे हैं। सामान्य ज्ञान भी हमें बताता है कि जो लोग प्रेम और करुणा से द्रवित होते हैं वे शांतिपूर्ण और सुखी हैं। ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा जैसी विनाशकारी भावनाओं से अभिभूत लोगों को लगता है कि समूचा विश्व उनका शत्रु है। यह देखना सरल है कि प्रेम और करुणा लोगों का विश्वास जीतते हैं और विश्वास से मित्र जीते जाते हैं। इसी प्रकार ईमानदारी और सच्चाई न्याय का आधार हैं।
"अकेले आर्थिक विकास हमारे समक्ष आने वाली समस्याओं का समाधान नहीं है और न ही बल प्रयोग है। विश्व में शांति व्यक्तियों, परिवारों और समुदायों द्वारा चित्त की शांति प्राप्त करने पर निर्भर करती है। इसे खरीदा नहीं जा सकता। हमें उन आंतरिक मूल्यों का विकास करने की आवश्यकता है जो हमारी विनाशकारी भावनाओं का प्रतिकार करते हैं।"
यह देखते हुए कि लद्दाख पब्लिक स्कूल के छात्रों को, जिन्होंने पहले शास्त्रार्थ किया था तपती धूप से कोई सुरक्षा न थी, परम पावन ने उन्हें सिंहासन के तले की छाया में बैठने के लिए बुलाया। उन्होंने टिप्पणी की कि यदि कुछ किया जा सकता है तो हम दूसरों के साथ क्या हो रहा है इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि इन दिनों शिक्षित लोग शीघ्र जान पा रहे हैं कि दूसरों के दुःख की प्रयासहीन उपेक्षा नैतिकता की कमी को प्रतिबिम्बित करती है।
"तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना के १००० वर्षों से भी अधिक समय से," परम पावन ने घोषणा की, "हमने अपनी प्राप्त परम्पराओं को जीवंत रखा है। आज, मैं भारतीय मित्रों और बुद्धिजीवियों को बताता हूँ कि चित्त और भावनाओं के प्राचीन भारतीय ज्ञान को पुनर्जीवित करना प्रासंगिक और मूल्यवान दोनों होगा।
"मैं आज यहाँ बौद्ध प्रवचन देने के आया हूँ। बुद्ध ने स्पष्ट रूप से कहा था कि चित्त को शिक्षित किया जा सकता है और जब इसे शिक्षित किया जाता है तो यह सुख के अनुकूल है। यह भी कहा जाता है कि बुद्ध पाप को जल से धोते नहीं, न ही जगत के दुःखों को अपने हाथों से हटाते हैं। न ही अपने अधिगम को दूसरों में स्थान्तरण करते हैं। वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्त कराते हैं।"
'बोधिसत्वचर्यावतार' को उठाते हुए, परम पावन ने अध्याय ४ का अपना पाठ जारी रखा, जो बोधिचित्तप्रमाद से संबंधित है कि एक बार जब आप कुछ करने का निर्णय लें तो आपको इसे पूरा करना चाहिए। उन्होंने उन श्लोकों की ओर ध्यानाकर्षित किया जो एक अनमोल मानव जीवन, जो स्वतंत्रता और भाग्य से भरा है, के मूल्य को संदर्भित करते हैं और किस तरह चूँकि वस्तुएँ अनित्य होती हैं, उन्हें सरलता से खोया जा सकता है। इसके अतिरिक्त ग्रंथ में प्रश्न उठाया गया है - मैं नकारात्मक भावनाओं का दास कैसे बन गया? नकारात्मक और विनाशकारी भावनाओं की तुलना हस्तक्षेप करने वाली आत्माओं से की गई है जिस संबंध में परम पावन ने टिप्पणी की कि इसको इस तरह के हस्तक्षेपों को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय उनके लिए करुणा जनित करना है।
उन्होंने सलाह दी कि जब श्लोक में आता है -
अपने क्लेशों को दूर करने से
मुझे कभी भी पीछे न हटना चाहिए
और ऐसा करना मेरा एकमात्र उन्माद होगा
उनके विरोध में एक प्रबल वैर रखते हुए मैं उनसे युद्ध क्षेत्र में मिलूँगा।
मेरे लिए जलाया जाना बेहतर होगा,
मेरा सिर काटकर और मुझे मारना
इसके बजाय कि मैं नतमस्तक हूँ
उन सदैव स्थित क्लेशों के समक्ष।
- यह एक प्रतिज्ञा की तरह है जिसे हमें अपनाना चाहिए।
अध्याय ४ के अंत तक पहुंचने पर, परम पावन ने मध्याह्न के भोजन के लिए रोक दिया, और कल पाठ जारी रखने का वादा किया।