लेह, लद्दाख, जम्मू और कश्मीर, ६ जुलाई २०१७ - पावन दलाई लामा के ८२वें जन्मदिवस समारोह का प्रारंभ स्थापित प्रथानुसार उनके कर्मचारियों और परिचारकों के सदस्यों के उनके निवास पर उनके साथ विशेष प्रार्थनाओं के लिए एकत्रित होने के साथ हुआ। वहाँ से वे पैदल शिवाछेल स्थल पर प्रवचन मंडप गए।
द्वार पर उनकी भेंट एकत्रित यूरोपीय और भारतीयों के समूहों से हुई, जिन्होंने उन्हें जन्मदिन की शुभकामनाएँ दीं। वे उनसे अपने क्लेशों को वश में करते हुए एक अधिक सुखी और शांतिपूर्ण विश्व की ओर कार्य करने की आवश्यकता पर बातचीत करने के लिए रुके। उन्होंने उन्हें बताया कि एक स्पष्ट समझ कि इसे किस तरह करना है प्राचीन भारत के ज्ञान में पाया जा सकता है और उसे पुनर्जीवित करने का समय अब आ गया है।
प्रवचन मंडप के मंच पर पहुँचने पर, परम पावन ने बढ़ती संख्या के जनमानस का अभिनन्दन किया और उन्हें बताया कि विश्व के विभिन्न भागों में कई मित्र उनका जन्मदिन मना रहे थे। "उस मैत्री की भावना में मैं आज यहाँ एकत्रित सभी लोगों को धन्यवाद देना चाहता हूँ।" सिंहासन से उन्होंने समझाया कि दीर्घायु समर्पण श्वेत तारा चिन्तामणि चक्र अनुष्ठान के अनुसार हो रहा था और अपनी ओर से वह भी दीर्घ काल तक जीवित रहने के लिए प्रार्थना करेंगे।
जैसे ही प्रार्थना आगे बढ़ी गई, ठिकसे रिनपोछे द्वारा मंडल समर्पण हुआ जबकि गदेन ठिसूर रिज़ोंग रिनपोछे ने दोर्जे लोबपोन की भूमिका निभाई। अंत में जब समर्पणों की शोभा यात्रा निकल रही थी, दर्शकों के बीच एक मंच पर, ङरिवा वेशभूषा में तिब्बतियों ने एक तोपा गीत गाया, जिसका अर्थ था, "हिम भूमि का बौद्ध धर्म उस समय तक पतनोन्मुख नहीं है जब तक हमारे बीच परम पावन दलाई लामा हैं", जिसके बाद मंगल छंद हुए।
एक छोटे से अंतराल के उपरांत समारोह पुनः प्रारंभ हुआ। परम पावन श्रोताओं का अभिनन्दन करने हेतु नीचे उतरकर मंच के समक्ष आए और एक हाथ वाली कुर्सी पर बैठे। सभी तिब्बती और भारतीय राष्ट्रगान के लिए खड़े हुए।
लद्दाख बौद्ध एसोसिएशन के अध्यक्ष ठिनले छेवंग ने, परम पावन का स्वागत किया, आने के लिए उन्हें धन्यवाद दिया, इस अवसर को चिह्नित करने के लिए उन्हें एक उपहार दिया और उन्हें आश्वासन दिया कि सभी उपस्थित लोगों ने प्रार्थना की कि वह दीर्घायु हों। एक बड़ा आइसिंग वाला केक काटा गया और अतिथियों में वितरित किया गया।
निर्वासन में तिब्बती संसद के अध्यक्ष, खेनपो सोनम तेनफेल ने परम पावन, लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद् के अध्यक्ष, गदेन ठिसूर और अन्य अतिथियों के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया। यह सूचित करते हुए कि परम पावन का जन्म १९३५ को ५वीं तिब्बती महीने के ५वें दिन हुआ था, उन्होंने समझाया कि क्यों परम पावन की कृपा चुकाया नहीं जा सकती। उन्होंने स्मरण किया कि किस तरह महान पञ्चम दलाई लामा द्वारा स्थापित परम्परानुसार १६ वर्ष की आयु में, परम पावन ने तिब्बत के लौकिक और आध्यात्मिक मामलों का उत्तरदायित्व ग्रहण किया था। फिर, १९५९ में निर्वासन में आने के बाद, उन्होंने तिब्बती समुदाय के लिए लोकतंत्र का प्रारंभ किया। उन्होंने सभी तिब्बतियों की ओर से उन्हें धन्यवाद दिया और उन्हें आश्वस्त किया कि वे उनकी सलाह का अनुपालन बनाए रखेंगे।
अध्यक्ष ने कहा कि तिब्बत में चीनी नीतियाँ कठोर हैं और कई तिब्बतियों ने स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर दिए हैं। उन्होंने कहा, "मैं विश्व समुदाय से अपील करता हूँ कि चीन पर उनके उत्पीड़न को कम करने और अनियंत्रित खनन गतिविधियों के कारण जो तिब्बत का प्राकृतिक वातावरण बिगड़ रहा है, उसे रोकने के लिए दबाव डालें। यूरोपीय संसद ने चीनी अधिकारियों से परम पावन के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत प्रारंभ करने का आग्रह किया है। हम ५८ वर्षों से निर्वासन में हैं। परम पावन मैं आपकी दया के लिए आपका धन्यवाद करना चाहूँगा और प्रार्थना करता हूँ कि आप दीर्घ काल तक जिएँ।"
एक सांस्कृतिक अंतराल के दौरान, लेह टीसीवी के छात्रों और लद्दाखी लड़कियों के एक समूह ने गायन और नृत्य का एक शानदार प्रदर्शन दिया।
इसके बाद लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद् के मुख्य कार्यकारी पार्षद डॉ सोनम दावा ने संबोधित किया। परिषद की ओर से उन्होंने परम पावन को एक अलंकृत तांबे की चायदानी प्रस्तुत की और यह कामना अभिव्यक्त की कि परम पावन भव चक्र के अंत तक जीवित रहें। उन्होंने पुष्टि की कि जब भी परम पावन लद्दाख आते हैं तो लोग उनकी सलाह सुनते हैं और हर संभव रूप में दूसरों की सेवा करने की प्रतिज्ञा करते हैं।
गायन और नृत्य प्रस्तुत करने वालों में प्रथम परंपरागत वेश भूषा में ज़ंस्कार की महिलाएँ थीं जिनके बाद तिब्बती महिलाओं का एक समूह था।
अपना संबोधन प्रारंभ करते हुए सिक्योंग डॉ लोबसंग सांगे ने, परम पावन और अन्य प्रतिष्ठित अतिथियों का सम्मानपूर्वक अभिनन्दन किया। उन्होंने भी स्मरण किया कि तिब्बत के तीन प्रांतों के लोगों के अनुरोध पर १६ वर्ष की आयु में तिब्बत के लिए परम पावन ने उत्तरदायित्व संभाला था। २३ वर्ष की आयु में वे निर्वासन में आए, जहाँ उनका प्रथम कार्य तिब्बती बच्चों के लिए स्कूलों की स्थापना थी। इस परियोजना की सफलता का एक संकेत यह है कि ९४% साक्षरता के साथ तिब्बती शिक्षा चीन, भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश के बराबर है।
"जैसा कि दिवंगत पंछेन रिनपोछे ने अपनी ७०,००० शब्दों की याचिका में घोषित किया कि तिब्बत में विहारों और धार्मिक संस्थानों को नष्ट करते हुए चीनी साम्यवादियों ने तिब्बती अस्मिता और उसकी बौद्ध परम्पराओं को समाप्त करने का प्रयास किया। उनकी सोच थी कि विजय उनकी हुई है। पर फिर भी परम पावन के करुणाशील प्रयासों के कारण नालंदा महाविहार की परम्पराएं, जो तिब्बत में संरक्षित थीं, अब भी फल फूल रही हैं। अब विश्व भर के लोग उनसे परिचित हैं; यहाँ तक कि आधुनिक वैज्ञानिक भी इसमें रुचि रखते हैं। यद्यपि हमने अपना देश खो दिया पर परम पावन ने कई अंतर्राष्ट्रीय नेताओं से भेंट की है और उन्हें तिब्बती मुद्दे से अवगत कराया है। आज, हमें न केवल परम पावन का दीर्घायु के लिए प्रार्थना करना है अपितु जो सलाह हमें उन्होंने दी है उसे कार्यान्वित करने की अपनी दृढ़ता को पुष्ट करना है।
"मैं आशा करता हूँ कि चीन की पीपुल्स रिपब्लिक हमारे मध्यम मार्ग दृष्टिकोण की योग्यता पर विचार करेगी, जो तिब्बतियों और चीनियों के लिए पारस्परिक रूप से लाभकर होगा। परम पावन दलाई लामा विश्व के लिए आशा दीप हैं और तिब्बती लोगों के जीवन और आत्मा हैं - मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप दीर्घ समय तक जिएँ।"
इसके पश्चात डुग पेमा करपो विद्यालय के बच्चों ने गीत व नृत्य प्रस्तुत किया। उनके कार्यक्रम का परिचय उत्तम अंग्रेजी में देते हुए एक छात्रा ने कहा कि इस तरह समारोह में भाग लेते हुए वे अत्यंत गौरव का अनुभव कर रहे थे और उनके पैर धरती पर नहीं पड़ रहे थे।
परम पावन की बहुत समय से चली आ रही प्रिय परियोजना की पूरा करने के विकास के रूप में 'भारतीय बौद्ध शास्त्र में विज्ञान और दर्शन' के दो खंडों के चीनी अनुवाद का विमोचन किया गया। परम पावन के कहने पर कांग्यूर और तेंग्यूर से बौद्ध विज्ञान और दर्शन से संबंधित समाग्री को भोट भाषा में एकत्रित और प्रकाशित किया गया है। दो संस्करण का निरंतर अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जा रहा है। चीनी संस्करण का आज का विमोचन एक ऐतिहासिक कार्यक्रम था।
परम पावन अनुमानतः २०,००० से अधिक जनमानस को संबोधित करने के लिए खड़े हुए।
"आज, हम यहाँ मेरे विद्वान गुरु, गदेन ठिसूर रिनपोछे, जिनसे मुझे कई शिक्षाएं मिली हैं, गेशे और सिक्योंग, जो तिब्बती लोगों के लोकतांत्रिक नेता हैं। निर्वासन में हमने एक संसद की स्थापना की और अध्यक्ष यहाँ हैं। मैं लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद् के मुख्य कार्यकारी पार्षद, स्थानीय मुसलमान मित्रों, आम जनता के सदस्यों और इतने सारे स्कूली बच्चों का भी स्वागत करना चाहूँगा। आपके युवा चेहरे मुझमें प्रसन्नता भरते हैं; इससे मुझे भी लगता है कि मैं जवान हूँ।
"समय किसी के लिए नहीं रुकता, यह सदैव गतिशील है। जो अतीत है वह बीत चुका है, हम इसे बदल नहीं सकते। पर जो हम कर सकते हैं वह यह कि हम इससे सीख सकते हैं। भविष्य वर्तमान पर निर्भर है। यह युवा पीढ़ी के हाथों में निर्भर है। आपमें से जो आज युवा हैं, उन्हें अपने जन्मजात अच्छे मानवीय गुणों का बुद्धिमत्ता और सौहार्दता के साथ एक अधिक सुखी विश्व लाने के लिए उपयोग करना चाहिए। यह संभव है, पर इसके लिए प्रयास की आवश्यकता होगी।
"मेरे इस ८२वें जन्मदिन पर, मैं आप सब को आने के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ। आपने अटल विश्वास के साथ दीर्घायु समर्पण प्रस्तुत किया है, जिसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। एक और कार्यक्रम जो आज सार्थक था, वह दो खंडों में 'भारतीय बौद्ध शास्त्र में विज्ञान और दर्शन' के चीनी संस्करण का विमोचन था। कांग्यूर और तेंग्यूर शास्त्रीय संकलन की सामग्री को विज्ञान, दर्शन और धर्म के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। जहाँ धार्मिक विषय मात्र बौद्धों के लिए रुचि रखता है, चित्त विज्ञान और दार्शनिक चर्चाएँ कि वस्तुओं का जो यथार्थ है और उसके विपरीत वस्तुएँ जिस रूप में दृश्य होती हैं, वह ज्ञान जिसका अभ्यास किया जाता है और जो नालंदा परंपरा धारित करती है वह उस किसी के लिए भी शिक्षाप्रद हो सकता है जो उसमें रुचि रखता है।
"यद्यपि चीन परम्परागत रूप से एक बौद्ध देश रहा है, पर बौद्ध धर्म को विनाश का सामना करना पड़ा जैसा तिब्बत में हुआ था, पर तिब्बत में वह लोगों के चित्त में बना रहा। आज चीन में न केवल बौद्ध धर्म में बल्कि ईसाई धर्म और इस्लाम की ओर भी रुचि जागी है। विश्व के लगभग २०० देशों में, चीन जिसमें ४०० लाख स्वयं को बौद्ध घोषित करते हैं, अब बौद्धों की सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश है। इस पुस्तक का प्रकाशन निश्चित रूप से चीनी लोगों के लिए लाभकर होगा। मैं अनुवादक जमयंग रिनछेन, जिसे मैं उस समय से जानता हूँ जब वह एक बालक था, को उसके कठोर परिश्रम के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ।
"आज जो श्रद्धा आपने मेरे प्रति व्यक्त की है मैं उसकी सराहना करता हूँ, तिब्बत में भी कई यही भावना रखते हैं पर उन्हें अपनी भावनाओं को स्वयं तक सीमित रखना पड़ता है। यदि आप मुझे जानते हैं तो आपको यह भी पता होना चाहिए कि मैं किस तरह सोचता हूँ और मैं क्या प्राप्त करने का प्रयास कर रहा हूँ, और यदि यह आपको उचित लगे तो जहाँ आप कर सकें वहाँ इसे व्यवहार में लाने का प्रयास करें।
एक मनुष्य के रूप में मैं अपने आप को आज जीवित सात अरब मनुष्यों में से एक मानता हूँ। उनके जैसे मुझे भी सुख चाहिए। आज वैज्ञानिक बताते हैं कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है, इसलिए अपनी नकारात्मक भावनाओं के वश में आकर नकारात्मक परिणामों को देखते हुए, हमें अपने परिवार, समुदायों और विश्व को अधिक सुखी और अधिक शांतिपूर्ण बनाने के लिए अधिक करुणाशील बनने का प्रयास करना चाहिए। मेरी पहली प्रतिबद्धता एक अधिक करुणाशील विश्व को लाने की है।
"एक बौद्ध अभ्यासी के रूप में मैं देखता हूँ कि कई धार्मिक परम्पराएं हैं, कुछ ईश्वरवादी हैं और कुछ अनीश्वरवादी हैं। अनीश्वरवादियों में कुछ ऐसे हैं जो एक स्वतंत्र आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं और कुछ जो इसे अस्वीकार करते हैं। परन्तु ये सभी परम्पराएं प्रेम, करुणा, सहिष्णुता, संतोष और आत्मानुशासन का एक आम संदेश देती हैं। उनके दार्शनिक मतभेदों के बावजूद वे प्रेम और करुणा को बढ़ावा देने का एक समान लक्ष्य साझा करते हैं।
"तिब्बत में यद्यपि हम एक ही बुद्ध का अनुसरण करते हैं, पर हमारी परम्पराओं के बीच असहमति थी, लेकिन ये सभी नालंदा परम्परा का अनुपालन करते हैं। इस अथवा उस परम्परा के प्रति भेदभाव अज्ञानता का संकेत है। बिना हीनयान के कोई महायान नहीं होगा, यही कारण कि मुझे पालि परम्परा और संस्कृत परम्परा के रूप में संदर्भित करना अच्छा लगता है। अतः मेरी दूसरी प्रतिबद्धता अंतर्धार्मिक सद्भाव को प्रोत्साहित करने हेतु कार्य करना है।"
परम पावन ने आगे कहा कि यद्यपि निर्वासन में १५०,००० तिब्बतियों की संख्या कम है और ६० लाख तिब्बतियों में से अधिकांश तिब्बत में हैं, पर निर्वासन में रह रहे लोगों पर नालंदा परम्परा को जीवित रखने का उत्तरदायित्व है। उन्होंने बल देते हुए कहा कि यह एक परम्परा है जो मात्र शास्त्रीय प्रभुता पर निर्भरता से अधिक कारण और तर्क पर बल देता है। यह विज्ञान की तरह एक अनुभवजन्य दृष्टिकोण रखता है। उन्होंने कहा कि नालंदा विश्वविद्यालय के एक बार नष्ट हो जाने के उपरांत भारत में इसकी परम्पराओं का ह्रास हो गया पर तिब्बत में संरक्षित रहा। इसका एक परिणाम यह है कि आज इस समृद्ध दार्शनिक परम्परा को सटीक रूप से समझाने के लिए सबसे उपयुक्त भाषा भोट भाषा है। परम पावन ने टिप्पणी की कि यह विरासत तिब्बतियों के लिए गौरवशाली है। उन्होंने आगे कहा कि चीन में आज तिब्बती बौद्ध शिक्षा के प्रति सम्मान बढ़ रहा है।
"परन्तु हम पर जो स्वतंत्र रूप से रह रहे हैं जिनमें हमारे लद्दाखी भाई और बहनें शामिल हैं श्रमसाध्य अध्ययन द्वारा अपनी परम्पराओं, विज्ञान और दर्शन, कारण व तर्क की अपनी समझ को बनाए रखने के प्रयास का उत्तरदायित्व है। धन्यवाद।"
लद्दाख बौद्ध एसोसिएशन की ओर से, उनके मुख्य प्रतिनिधि ने धन्यवाद के शब्द ज्ञापित किए। उन्होंने परम पावन को पुनः उनके ८२वें जन्मदिन पर अपनी ओर से बधाई दी, उन्हें वहाँ आने लद्दाख के लोगों के साथ साझा करने के लिए धन्यवाद दिया और एक बार पुनः जो दीर्घायु प्रार्थनाएँ उन्हें समर्पित की गई थीं, उन्हें स्वीकर करने हेतु आभार प्रदर्शित किया। उन्होंने उन सभी लोगों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जिन्होंने दिन के कार्यक्रम को सफल बनाने में योगदान दिया था और इस कामना के साथ समाप्त किया कि परम पावन की महान आकांक्षाएँ तत्काल परिपूरित हों।
परम पावन गाड़ी से शिवाछेल फोडंग लौटे जहाँ आमंत्रित अतिथियों के एक समूह के साथ उन्होंने मध्याह्न के भोजन का आनन्द लिया।