आज प्रातः ८ बजे से धर्मशाला गर्म था। जब परम पावन दलाई लामा अपने आवास से बाहर आए तो वेष भूषा में सुसज्जित टीसीवी के गायकों ने उनसे भेंट की और मुख्य तिब्बती मन्दिर में उनका अनुरक्षण किया। मंदिर और इसके आसपास के बरामदे युवा छात्रों से भरे हुए थे। भिक्षु, जो सामान्य रूप से वहाँ बैठते हैं वे नीचे प्रांगण के एक ओर एकत्रित थे।
परम पावन द्वारा सिंहासन ग्रहण करने के उपरांत कक्षा ३ से ऊपर के टीसीवी के छात्रों के एक दल ने उनके समक्ष खड़े होकर अक्या योंगजिन के 'जानने के तरीके के संकलन' का कंठस्थ पाठ किया। उन्होंने परम पावन की दीर्घायु के लिए एक पद की प्रार्थना के साथ समाप्त किया। परम पावन ने मुस्कराकर कहा:
"जब मैं दस वर्ष का था तो मैंने स्वयं भी इस पाठ को कंठस्थ किया था, अतः अभी मैं आपके साथ इसका पाठ कर सका। यह जानना बहुत आवश्यक है कि चित्त किस तरह कार्य करता है। चित्त की शांति कुछ ऐसी नहीं जिसे बाहर से निर्देशित किया जा सके। इसे भीतर से संपर्क करने की आवश्यकता है। इसका कारण यह है कि चूँकि हमारे चित्त अनियंत्रित होते हैं कि हम विश्व में ऐसी समस्याएँ देखते हैं जो घट रही हैं, जैसे कि दिल दहला देने वाली हत्याएं और अमीर और गरीबों के बीच बढ़ती खाई। ऐसी समस्याओं से निपटने के लिए हमें एक शांत, अनुशासित चित्त की आवश्यकता है।
"धार्मिक लोग शांति के लिए प्रार्थना करते हैं, पर मात्र प्रार्थना पर्याप्त नहीं है, विश्व में जिससे शांति आएगी, वह लोगों द्वारा चित्त की शांति पैदा करना है। जैसा कहा गया है,
'बुद्ध पाप को जल से धोते नहीं,
न ही जगत के दुःखों को अपने हाथों से हटाते हैं;
न ही अपने अधिगम को दूसरों में स्थान्तरण करते हैं;
वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्त कराते हैं।'
बुद्ध हमें सत्य को प्रकट कर सहायता करते हैं।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि यह आवश्यक नहीं कि शिक्षाओं का सारांश किसी धार्मिक संदर्भ तक ही सीमित हो, क्योंकि उसके मूल्य का दिन-प्रतिदिन अनुभव किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि वे इच्छुक हैं कि भविष्य की पीढ़ियों के प्रशिक्षण को प्रभावित करने के लिए विद्यालयों में आंतरिक मूल्यों की भावना की शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्होंने उल्लेख किया कि चित्त और भावनाओं के कार्य की समझ, प्राचीन भारतीय परम्पराओं का अभिन्न अंग हैं जो शमथ और विपश्यना से संबंधित है।
"आज की चर्चा मुख्य रूप से युवा छात्रों की ओर निर्देशित है," उन्होंने समझाया। "धर्मशाला के चारों ओर विभिन्न कॉलेजों के लगभग ७०० साथ ही दिल्ली, बेंगलुरु और चेन्नई से, इसके अतिरिक्त कुछ अमरीका और नीदरलैंड्स के भी छात्र हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ १५०० स्कूल के छात्र हैं, धर्मशाला बौद्ध धर्म परिचय संघ के सदस्य और अपने उपाध्याय के साथ थाईलैंड से भिक्षुओं का एक समूह, जो एक शांति पद यात्रा निकालेंगे। मैं आप सभी का अभिनन्दन करना चाहूँगा।"
परम पावन वे बुद्ध की सलाह का उल्लेख किया कि जो कुछ भी उन्होंने सिखाया उसे विश्वास के कारण जस का तस न लें अपितु उसका विश्लेषण करें - अपने अनुयायियों को उनकी शिक्षाओं का परीक्षण करने की सलाह दी जिस तरह एक स्वर्णकार सोने की जांच करता है। उन्होंने इस शंकाकुल दृष्टिकोण की प्रशंसा की और बताया कि विगत ३० वर्षों में वैज्ञानिकों के साथ उनकी चर्चाओं में यह कितना महत्वपूर्ण रहा है। उन्होंने यह भी बल देते हुए कहा कि यह सलाह कि वस्तुएँ जिस रूप में प्रतीत होती हैं वे उस रूप में अस्तित्व नहीं रखतीं, सहायक है क्योंकि यह यथार्थ के विषय में भ्रांत धारणाओं के प्रतिकार में सहायक होता है, जैसे कि आत्म- तुष्टि व्यवहार से निपटना और परोपकार का विकास करना।
परम पावन ने तिब्बत में बौद्ध धर्म के उद्गम के विषय में बताया। उन्होंने १९५५ में जिनिंग में एक मंदिर में एक रिक्त स्थान को देखने का स्मरण किया जहाँ कभी ल्हासा जोवो विराजमान थे। इस और चीन के अन्य संबंधों के बावजूद, सम्राट ठिसोंग देचेन ने भारत के महान आचार्य शांतरक्षित को हिम भूमि में आमंत्रित किया जहाँ उन्होंने नालंदा परम्परा स्थापित की। तिब्बतियों ने इस परम्परा को जीवित रखने के लिए शताब्दियों से श्रमसाध्य परिश्रम किया है, परम पावन ने कहा कि यह कुछ ऐसा है जिस पर सभी तिब्बतियों को गर्व होना चाहिए।
"आप युवाओं को इस परम्परा को जीवित रखना है," उन्होंने आग्रह किया "क्योंकि चित्त की समझ जो हमारी बौद्ध परम्पराओं का अभिन्न अंग है वह भविष्य की पीढ़ियों के लिए महत्वपूर्ण ढंग से लाभदायी हो सकता है।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि चित्त तथा भावनाओं के कार्य के प्राचीन भारतीय ज्ञान की तुलना में, आधुनिक मनोविज्ञान काफी स्थूल है। परन्तु उन्होंने यह स्वीकार किया कि जबकि वैज्ञानिक चित्त को दिमाग के एक प्रकार्य से अधिक कुछ न समझते थे, अब उनके पास प्रमाण हैं कि दीर्घकाल ध्यान के कारण मस्तिष्क में मापने योग्य परिवर्तन होता है। उन्होंने कुछ वैज्ञानिकों द्वारा 'थुगदम' के मामलों में रुचि का भी संदर्भ दिया जिस के अनुसार नैदानिक मृत्यु होती है पर फिर भी उसके बाद शरीर कुछ समय तक ताजा बना रहता है।
यह देखते हुए कि सभी धार्मिक परंपराओं में तीन पहलुओं की प्रतीति होती है, परम पावन ने प्रेम व करुणा, धैर्य और सहिष्णुता साथ ही संतोष तथा आत्मानुशासन के अभ्यास के विषय में बताया जो सभी में हैं। उन्होंने उनके दार्शनिक अंतरों पर चर्चा की कि जहाँ कई धर्म एक निर्माता ईश्वर पर विश्वास करते हैं, प्रारंभिक सांख्य, जैन और बौद्धों में कार्य कारण नियम को अधिक महत्वपूर्ण मानते हुए ऐसी कोई आस्था नहीं है। जो भी हो उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि दार्शनिक मतभेद झगड़ों का आधार नहीं हैं, चूँकि बौद्ध धर्म के अंदर ही व्यापक विभिन्न दृष्टिकोण हैं।
सभी धार्मिक परंपराओं द्वारा साझा किया गया तीसरा पक्ष सांस्कृतिक है, जो सामाजिक रीति-रिवाजों से संबंधित है, जिनमें से कुछ आज की तारीख से बाहर हैं और जिनमें परिवर्तन की आवश्यकता है। उन्होंने राजनीतिक नेताओं के रूप में दलाई लामा की भूमिका का उदाहरण दिया, जिनमें कुछ परिवर्तन की आवश्यकता है जो उन्होंने २०११ में सेवानिवृत्त होने के दौरान किया था। उन्होंने सांस्कृतिक परंपराओं के उदाहरण के रूप में भारतीय जाति व्यवस्था और शरिया कानून के पालन का भी उल्लेख किया जिसमें बदलाव का समय आ गया है।
श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर में परम पावन ने समझाया कि त्रिरत्न में शरण गमन दृष्टि अथवा कार्य के आधार पर किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि जो भी कोई चार धर्मपदों को स्वीकार करता है:
सभी संस्कार अनित्य हैं।
सभी सास्रव दुख हैं।
सभी धर्म शून्य तथा नैरात्म्य हैं
निर्वाण वास्तविक शांति है,
वह उस दृष्टि से शरण ग्रहण करता है। अन्यथा आप बुद्ध को शास्ता मानकर, धर्म को निरोध के रूप में वास्तविक शरण मानकर और संघ को सहायक मित्र मानकर शरणागत होते हैं। उन्होंने दोहराया कि महत्वपूर्ण बात एक २१वीं शताब्दी के बौद्ध होने और समझ के आधार पर शरण लेने की है।
वैज्ञानिकों के साथ उनकी वार्तालापों के संबंध में, परम पावन ने घोषणा की कि वे कभी भी विगत और भविष्य के जीवन या निर्वाण जैसे विषय नहीं उठाते। उन्होंने कहा कि वे वैज्ञानिकों की व्यापक विचारधारा और उनकी अपनी समझ को बदलने और सुधारने की इच्छा की सराहना करते हैं।
यह पूछे जाने पर कि वह किस तरह प्रत्येक दिन प्रसन्न रहते हैं, परम पावन का प्रथम उत्तर था कि वे आज जीवित सभी ७ अरब मनुष्यों को उनके भाई-बहनों के रूप में देखते हैं, एक ऐसा चिंतन जिसे वे सहायक और शक्तिशाली पाते हैं। क्लेशों के संदर्भ में जो मिथ्या धारणा पर आधारित है, एक ऐसी भावना से चिपके रहना कि वस्तुएँ जिस रूप में दृश्य होती हैं उसी तरह अस्तित्व रखती हैं, वे संज्ञानात्मक चिकित्सक हारून बेक के अवलोकन, कि हमारे क्रोध या मोह की भावना ९०% मानसिक प्रक्षेपण है, को न केवल सहायक पाते हैं, अपितु नागार्जुन की सलाह के साथ में भी मेल खाता पाते हैं।
कर्म और क्लेशों के क्षय में निर्वाण है;
कर्म और क्लेश विकल्प से आते हैं,
विकल्प मानसिक प्रपञ्च से आते हैं,
शून्यता में प्रपञ्च का अंत होता है।
उन्होंने समाप्त करते हुए कहा कि अधिक समग्र दृष्टिकोण तथा सौहार्दता का विकास सुख का एक अच्छा स्रोत है।
तिब्बती युवाओं के लिए प्रवचन कल प्रातः जारी रहेगा।