बायलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत, परम पावन दलाई लामा ने आज प्रातः हाल ही में तिब्बत से आए तिब्बती तीर्थयात्रियों तथा धर्मनिरपेक्ष नैतिकता पर एक कार्यशाला के लिए एकत्रित शिक्षकों को संबोधित करते हुए घोषित किया,
"तिब्बती तिब्बत देश के वास्तविक स्वामी हैं। असीम कठिनाइयों का सामना करने के बावजूद आपने अपना हौसला बनाये रखा है। १९५९ में सम्पूर्ण तिब्बत में उथलपुथल मची थी। कहा जाता है कि ल्हासा में बमबारी के बाद, माओ जेदोंग ने पूछा कि दलाई लामा का क्या हुआ। जब उन्होंने सुना कि मैं भारत पलायन कर गया था तो उन्होंने कहा, 'तब तो हम हार गए।'
"चीनी अधिकारियों का सोचना था कि तिब्बत का मुद्दा बस समाप्त हो जाएगा पर ५८ वर्षों के बाद भी ऐसा नहीं हुआ है। १९५९ में, कई देशों को तिब्बत की कोई जानकारी नहीं थी; अब उन्हें है।
"हम ५८ वर्षों से निर्वासन में हैं। हमने आवासों का निर्माण किया है, अपने शिक्षण केंद्रों की पुर्नस्थापना की है। यह सब कुछ सख्त चीनी अधिकारियों की आशाओं से परे। तिब्बत में सशक्त भावना के कारण, हम निर्वासन में जीवित रहने में सक्षम रहे हैं।
"सांस्कृतिक क्रांति के दौरान चीन और तिब्बत दोनों में धार्मिक संस्थानों का बहुत विनाश हुआ था। परन्तु देंग जियाओपिंग द्वारा प्रतिबंधों को दूर करने के बाद व्यापक रूप से रुचि का पुनरुद्धार हुआ। कहा जाता है कि चीन में ४०० लाख बौद्ध हैं और शी जिनपिंग ने पेरिस और दिल्ली में कहा कि चीनी संस्कृति में बौद्ध धर्म की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। नैराश्य में डूबने या हताश न होने के अच्छे कारण हैं।"
परम पावन ने प्रधान मंत्री नेहरू के साथ अपने संबंधों तथा उनके द्वारा दी गई व्यावहारिक सलाह और समर्थन का उल्लेख किया। उन्होंने उल्लेख किया कि किस तरह समर्थन के लिए संयुक्त राष्ट्र को की गई अपील की विफलता के बाद १९७४ में यह निर्णय लिया गया था कि चीन के साथ वार्ता के दौरान तिब्बत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता पर ज़ोर न दिया जाए। परम पावन ने इसे यूरोप के राष्ट्रों के निर्णय के साथ तुलना की जिन्होंने आम अच्छे के हित में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय संघ बनाया था। उन्होंने उसकी तुलना उस संघ के साथ भी की जो भारत है, जिसमें राज्यों की भाषाओं और संस्कृतियों की बहुलता को बनाए रखा गया है।
"जो महत्वपूर्ण है," उन्होंने बल देते हुए कहा कि "तिब्बत के सभी तीन प्रांत एकजुट रहें, एकजुटता में साथ खड़े हों।"
श्रोताओं में शिक्षकों की ओर मुड़ते हुए, परम पावन ने उन्हें स्मरण कराया कि नेहरू ने सलाह दी थी कि तिब्बत मुद्दे को गायब होने से रोकने का व्यावहारिक उपाय तिब्बती बच्चों को शिक्षित करना था। उन्होंने कहा कि विहारीय संस्थानों में नालंदा परम्परा को जीवित रखते हुए, स्कूल के बच्चों को इसके बारे में एक धार्मिक तरीके के बजाय सीधा शैक्षणिक रूप में सिखाया जा सकता है।
"विश्व की कई समस्याएँ, जिनके बारे में हम सुनते हैं और समाचारों में पाते हैं, जन्म लेते हैं क्योंकि लोग क्लेशों से अभिभूत हो जाते हैं। हम बच्चों को यह समझने में सहायता कर सकते हैं कि दया जैसे नैतिक सिद्धांत का पालन करना अतीत और तथा आगामी जीवन के बारे में नहीं है, अपितु यहाँ और अभी चित्त की शांति प्राप्त करने के विषय में है। हम इस विचार से भी परिचय करा सकते हैं कि जब हमारे चित्त में शांति हो तो हम अपनी बुद्धि का पूर्ण उपयोग करने की बेहतर स्थिति में हैं।
"आधुनिक शिक्षा प्राथमिक रूप से भौतिक विकास पर केंद्रित है। प्राचीन भारतीय परम्परा ने चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य को समझने की उपयोगिता को स्वीकार किया, जो मुझे लगता है कि आज प्रासंगिक और प्रबल होगा। तिब्बती बच्चों के लिए यह अनुकूल है कि वे इस बारे में अपनी भाषा में सीख सकते हैं क्योंकि भारतीय साहित्य, जो इनका वर्णन करता है, का भोट भाषा में अनुवाद हुआ था। निस्सन्देह मैं मात्र इन बातों के बारे में बात करता हूँ पर यह आपके जैसे शिक्षकों के लिए होगा कि आप देखें कि इसे किस तरह कार्यान्वित किया जाए।"
सेरा लाची से, परम पावन गाड़ी द्वारा टाशी ल्हुन्पो विहार गए जहाँ उपाध्याय कछेन लोबसंग छेतेन ने उनका स्वागत किया, जिन्होंने अंदर उनका अनुरक्षण किया। मंदिर के अंदर अपने सम्मान व्यक्त करने के दौरान, परम पावन तारा कक्ष और ल्हामो कक्ष गए जिसके उपरांत उन्होंने सामने सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण किया। मंत्राचार्य ने ज्ञलवा गेदुन डुब, प्रथम दलाई लामा और विहार के संस्थापक की स्तुति पाठ में भिक्षुओं का नेतृत्व किया।
चाय तथा समारोहीय मीठे चावल परोसे गए और भिक्षुओं ने शास्त्रार्थ प्रदर्शन किया, जो तत्वसंग्रह शीर्षक के शांतरक्षित के दार्शनिक विचारों के सर्वेक्षणों पर केंद्रित था। परम पावन ने टिप्पणी की कि यह ग्रंथ शांतरक्षित की विद्वत्ता की व्यापकता को इंगित करता है, ऐसे गुण जो वे बौद्ध परंपरा में लेकर आए थे, जिसकी स्थापना उन्होंने तिब्बत में की थी।
परम पावन ने यह भी स्मरण कि पिछली यात्रा के दौरान उन्होंने धर्मकीर्ति की 'प्रमाणवर्तिका' पर गेदुन डुब की व्याख्या की शिक्षा प्रारंभ की थी। उन्होंने अपनी आशा तथा इच्छा को पुन: व्यक्त किया कि वे जो संचरण उन्होंने प्रारंभ किया था उसे पूरा करने में सक्षम हों। उन्होंने गेदुन डुब द्वारा आर्य तारा की स्तुति की एक पंक्ति को उद्धृत किया, "मैं दूसरों को स्वयं से अधिक महत्वपूर्ण रूप में सोच सकूँ, मैं अपने स्वार्थी उद्देश्य त्याग दूँ।" उन्होंने हास्य में कहा कि पिछले दलाई लामा विद्वान व अनुभूति से भरे थे, जिनमें से कइयों को कई अनुभूतियाँ हुईं थीं। यद्यपि उनके पास कोई अनुभूति नहीं थी पर उन्होंने कहा, वह उन सभी में सबसे विख्यात बन गए हैं।
"हम निर्वासन में बस रहे शरणार्थी हैं, पर फिर भी हम अपने धर्म और संस्कृति को नालंदा परम्परा के मूल में रखते हुए, जीवित रखे हुए हैं।"
अगले कार्यक्रम में परम पावन निकट के नमडोललिंग के सातवें दीक्षांत समारोह के मुख्य अतिथि थे। उनके आगमन पर उपाध्याय ज्ञ्यंगखंग रिनपोछे उनसे मिले तथा विशाल मंदिर में उनके साथ गए जहाँ आसन ग्रहण करने से पूर्व उन्होंने दीप प्रज्ज्वलित किया।
लोबपोन तेनज़िन कुनक्यप द्वारा परिचय से स्पष्ट हो गया कि इस अवसर का केन्द्र ३०० से अधिक स्नातकों को परम पावन से व्यक्तिगत रूप में अपनी उपाधि का प्रमाण पत्र प्राप्त करना था। तदुपरांत वे उनके समक्ष एक साथ धर्म की सेवा करने की प्रतिज्ञा लेना चाहते थे। जिन छात्रों को स्नातक उपाधि मिली थी उनमें भिक्षु व भिक्षुणियाँ शामिल थीं, जिनमें से कुछ ने २०११ में ही अपनी शिक्षा समाप्त कर ली थी। प्रत्येक ने नौ वर्षों तक अध्ययन किया था, छः वर्ष १३ शास्त्रीय ग्रंथों का अध्ययन और तीन वर्ष तंत्र का अध्ययन।
विशेष अतिथि, मैसूर के पुलिस महानिरीक्षक विपुल कुमार ने सर्वप्रथम सभा को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि उथल-पुथल हो रहे विश्व में, एकमात्र संदेश जो शांति लाएगा, वह प्रेम तथा करुणा का है। उन्होंने बताया कि उनका जन्म बिहार में हुआ था, वे बोधगया से नहीं थे और बचपन से ही बुद्ध के बारे में सुना था। उन्होंने जातिगत भेदभाव को नकारा और सुझाया कि विश्व के नागरिक के लिए मानव होते हुए हम सब एक हैं।
अपनी टिप्पणी में, खेनपो सोनम तेनफेल ने कहा कि चाहे वे भिक्षु हों या भिक्षुणियाँ सभी स्नातकों के लिए उन्होंने जो ध्यान में सीखा है उसे अभ्यास में व्यवहृत करना महत्वपूर्ण है। उन्होंने चिंतन तथा भावना द्वारा अध्ययन को सशक्त करने की आवश्यकता पर बल दिया।
सिक्योंग डॉ लोबसंग संगे ने स्मरण किया कि पेनोर रिनपोछे ने पहली बार १९६३ में विहार की स्थापना की थी। अब यह व्यापक रूप से स्वर्ण मंदिर के नाम से जाना जाता है और दूर-दूर से आगंतुकों को आकर्षित करता है। उन्होंने भोट साहित्य की व्यापक प्रकृति के लिए अपने एक हार्वर्ड प्रोफेसर की प्रशंसा के बारे में बताया, जिसकी सामग्री अब वैज्ञानिकों के लिए रुचि का विषय है। उन्होंने सरकार और भारत के लोगों, साथ ही साथ विभिन्न राज्य सरकारों को निर्वासन में तिब्बतियों के प्रति अनुकूल समर्थन के लिए धन्यवाद किया। उन्होंने एक इच्छा के साथ समाप्त किया कि परम पावन दीर्घायु हों और तिब्बत में स्वतंत्रता शीघ्र ही सूर्योदय के समान हो।
"दिवंगत पेनोर रिनपोछे कठोर परिश्रम करते थे," परम पावन ने घोषित किया "वे इस तरह के व्यक्ति थे जिसने एक बार कुछ प्रारंभ कर दिया तो उसे पूरा करके ही छोड़ते थे। शिक्षण का यह केंद्र, ङग्युर ञिंगमा संस्थान, उनकी धरोहर का अंग है। हमारे लिए उनके कर्म और भावना एक प्रेरणा रहे हैं। धर्म का फलना फूलना अध्ययन और अभ्यास करने वाले लोगों पर निर्भर करता है, उनके द्वारा मंदिरों व मूर्तियों के निर्माण में नहीं। बोधगया में बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा है और छो पेमा (रिवालसर) में गुरु रिनपोछे की एक बड़ी प्रतिमा है। वे प्रेरणा प्रदान करते हैं, पर उनमें से कोई भी बोलेगा नहीं। दूसरी ओर यदि बुद्ध आज जीवित होते तो वे जो करते वह शिक्षा देना होता।
"यह महाविहार ञिंगमा शिक्षा केंद्रों में सबसे बड़े विहारों में से एक है और यद्यपि पेनोर रिनपोछे यहाँ शास्त्रार्थ के कौशल को प्रोत्साहित करने को लेकर उत्साहित थे, उन्होंने मुझे बताया कि उनके सभी ञिंगमा साथी आचार्य इस तरह उत्साहित नहीं थे।"
अध्ययन और अभ्यास के लिए एक गैर-सांप्रदायिक दृष्टिकोण को अपनाने के महत्व पर बल देने के बाद, परम पावन ने ठुलशिग रिनपोछे और दिलगो खेनचे रिनपोछे से प्राप्त शिक्षाओं का उल्लेख किया।
लोंगछेनपा के 'परमार्थ निधि' के संप्रेषण के संचरण का अनुरोध किए जाने पर परम पावन ने प्रथम अध्याय का पाठ किया। भोजनोपरांत वे दिवंगत पेनोर रिनपोछे के स्मारक चैत्य का विशुद्धीकरण करने सटे हुए ज़ंगदोग पलरी मंदिर गए। तत्पश्चात वे निकट के सोज्ञल शेडुबलिंग भिक्षुणी विहार एक अन्य चैत्य का विशुद्धीकरण करने गए। उनके स्वागत के लिए ७०० आवासी भिक्षुणियाँ भिक्षुणी विहार के मार्ग पर पंक्तिबद्ध थीं।
परम पावन सेरा लाची महाविहार लौट आए तथा विश्राम के लिए दिनांत किया। कल वह तड़के ही गाड़ी से बेंगलुरु के लिए प्रस्थान करेंगे।