थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत, आज प्रातः चुगलगखंग में अपने निवास से चलने से पूर्व परम पावन दलाई लामा ने तिब्बती भिक्षुणी परियोजना, जो अपनी ३०वीं वर्षगांठ मना रहा है, के सदस्यों से भेंट की। समूह में कर्मचारी, बोर्ड के सदस्य, दान कर्ता और लगभग सभी २० भिक्षुणियाँ सम्मिलित थीं, जो विगत शीत काल में गेशे-मा बनीं थीं। उन्होंने उनसे कहा कि बुद्ध की शिक्षाएँ तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशील जैसे शिक्षा के महान केन्द्रों में फली फूलीं। यह मात्र आस्था पर आधारित एक परम्परा नहीं थी, अपितु इसके मूल में कारण व तर्क का प्रयोग निहित था और जिसमें चित्त को रूपांतरित करने के निर्देश शामिल थे।
"यहां २१वीं शताब्दी में, आधुनिक वैज्ञानिकों में जिनके साथ ३० वर्षों या उससे अधिक चर्चा के बाद मैंने पाया है, कि नालंदा विश्वविद्यालय की परम्परा जिसे हमने तिब्बत में बनाए रखा, इसके प्रति उनमें रुचि जागी है। वे तर्क के उपयोग तथा नालंदा आचार्यों के चित्त के प्रकार्य की गहरी समझ से आकर्षित हैं।
"धर्म सम्राट ठिसोंग देचेन और सिद्ध पद्मसंभव के सहयोग से शांतरक्षित ने तिब्बत में बौद्ध धर्म स्थापित किया। प्रारंभ से ही उन्होंने गहन व तर्कसंगत अध्ययन को प्रोत्साहित किया। इसी प्रारूप का पालन भिक्षुओं ने किया। परन्तु चूंकि बुद्ध ने अपनी सौतेली माता, महाप्रजापति गोतमी को दीक्षित किया था और स्वीकार किया था कि अध्ययन और अभ्यास में भिक्षुणियों की योग्यता भिक्षुओं के समान थी, मुझे अनुभूत हुआ कि भिक्षुणियों को भी समान स्तर पर अध्ययन करने का अवसर प्रदान करना उचित है।
"मुझे स्मरण है कि कई वर्ष पूर्व मैंने भंडारा तिब्बती आवास की यात्रा की थी और चूंकि मैं विद्यालय के बच्चों के शास्त्रार्थ प्रदर्शन से प्रभावित हुआ था, मैंने पूछा कि उन्हें किसने शिक्षित किया था। मुझे यह जान कर प्रसन्नता हुई कि इसे यहां उपस्थित इस भिक्षुणी ने किया था जिन्होंने मुझे बताया कि वह डोलमा लिंग भिक्षुणी विहार में प्रशिक्षित थीं।"
परम पावन ने उल्लेख किया कि जिस तरह भिक्षुओं को गेशे उपाधि के विभिन्न स्तरों से सम्मानित किया जाता है, उन्होंने सुझाया है कि एक पूर्ण गेशे-मा उपाधि की इच्छुक भिक्षुणी एक ऐसे के लिए लक्ष्य रख सकती हैं, जो विशेष रूप से मध्यम मार्ग के दर्शन पर अथवा प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाओं पर केंद्रित है। उन्होंने भिक्षुणियों को तेरह शास्त्रीय ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि आपने जो कुछ सीखा और उस पर शास्त्रार्थ किया वह गेलुगपा तक ही सीमित नहीं है, परन्तु तिब्बती बौद्ध धर्म की सभी परम्पराओं में पाया जा सकता है।
परम पावन ने पुनः उसे दोहराया जिसे उन्होंने प्रायः कहीं और कहा है कि बुद्ध की शिक्षाओं के अस्तित्व को सुनिश्चित करने का उपाय उनका अध्ययन और अभ्यास करना है। हँसते हुए उन्होंने कहा कि वे प्रथम दलाई लामा हैं जिन्होंने भिक्षुणियों की शिक्षा में इस तरह के सुधारों को प्रोत्साहित किया है।
उन्होंने आगे कहा, "आप सभी ने जो उपलब्ध किया है वह समूचे तिब्बती लोगों के लिए गौरव की बात है।"
जिस तरह कल हुआ था उसी तरह मंदिर में प्रवचन सत्र पालि में मंगल सुत्त तथा चीनी भाषा में 'हृदय सूत्र' के सस्वर पाठ के साथ हुआ। इस अवसर पर परम पावन के सिंहासन के दाएँ में बैठे गोसोग रिनपोछे ङवंग सुंगरब, जो हाल ही में जंगचे छोजे की पदानुक्रमित स्थिति में पदोन्नत हुए हैं। यह गदेन ठिपा के उच्च पद में हाल के पदाधिकारियों की पदोन्नति के फलस्वरूप है। गोसोग रिनपोछे पहले सेरा-मे महाविहार और ग्युमे तांत्रिक महाविहार के उपाध्याय के रूप में सेवारत रह चुके हैं।
"आज, हम एक धर्म प्रवचन के लिए एकत्रित हुए हैं," परम पावन ने प्रारंभ किया, "पर किसी भी कार्य की तरह, यह सकारात्मक होता है अथवा नकारात्मक, यह हमारी प्रेरणा पर निर्भर करता है। हम जिस ग्रंथ का अध्ययन कर रहे हैं वो बोधिसत्वयान से संबंधित है, अतः इसे केवल स्वार्थी कारणों से सुनना अच्छा उद्देश्य नहीं है। इसी तरह, यदि शिक्षक भौतिक लाभ या ख्याति की कामना से प्रेरित है तो सत्र एक व्यापारिक लेनदेन की तरह होगा।
"आप चीनी भाषा में हृदय सूत्र के पाठ के बाद एक अतिरिक्त छंद शामिल करते हैं:
हम तीन विषों को दूर करें (क्रोध, मोह व अज्ञान),
प्रज्ञा ज्योति प्रकाशित हो
हम सभी बाधाएँ दूर करें
और बोधिसत्व अभ्यासों में प्रविष्ट हों।
"नकारात्मक भावनाएँ अज्ञान, भ्रांत धारणाओं पर आधारित है, जो ज्ञान के विकास से दूर हो सकता है - वस्तुओं के परम स्वरूप की अंतर्दृष्टि। जे चोंखापा ने कहा कि यदि हम दूसरों के चित्त का शमन करने की कामना रखते हैं तो सर्वप्रथम हमें अपने चित्त का शमन करना होगा। हमें बुद्ध की संपूर्ण देशनाओं की समझ की आवश्यकता है।
"मेरे अपने अभ्यास में मैंने उपाय और प्रज्ञा को विकसित करने का प्रयास किया है। चूंकि मैं आप सब लोगों की तरह ही एक मनुष्य हूँ, अतः संभवतः मैंने जो लाभकारी पाया है वह आपके लिए भी सहायक हो सकता है।
"बुद्ध पाप को जल से धोते नहीं, न ही जगत के दुःखों को अपने हाथों से हटाते हैं;
न ही अपने अधिगम को दूसरों में स्थान्तरण करते हैं; वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्त कराते हैं। यही कारण है कि बुद्ध ने सलाह दी कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं के लिए काम करने की आवश्यकता है। जब उन्होंने तपस्या में छह वर्ष लगाए तो वह एक उदाहरण स्थापित कर रहे थे।"
परम पावन ने बताया कि किस तरह प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन के दौरान, बुद्ध ने सिखाया कि हेतुओं से दुःख उत्पन्न होता है, पर उनका निवारण किया जा सकता है। राजगीर में द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन में उन्होंने नकारात्मक भावनाओं को समाप्त करने में निरोध की प्रकृति को व्याख्यायित किया। वैशाली में तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन के दौरान, उन्होंने चित्त की प्रभास्वरता को स्पष्ट किया, जिसे यदा कदा बुद्ध प्रकृति के रूप में संदर्भित किया जाता है।
परम पावन ने 'मध्यमकावतार' के प्रथम अध्याय का पुनर्पाठ प्रारंभ किया, जो करुणा के प्रति श्रद्धार्पण से प्रारंभ होता है और प्रथम बोधिसत्व भूमि के गुणों की चर्चा करता है। उन्होंने मध्याह्न के भोजन तक अध्याय पूरा कर लिया। प्रवचन कल जारी रहेगा।