लेह, लद्दाख, जम्मू और कश्मीर - २५ जुलाई २०१७, आज प्रातः एक छोटी सी ड्राइव के बाद परम पावन दलाई लामा शिवाछेल फोडंग से एसओएस टिब्बटेन चिल्डर्न्स विलेज विद्यालय गए। विद्यालय के निदेशक और प्रधानाचार्य ने उनका आगमन पर उनका स्वागत किया, जबकि बच्चों ने एक पारंपरिक स्वागत प्रस्तुत किया जिसमें एक पारम्परिक समर्पण 'छेमा छंगफू' और टाशी शोपा नृत्य शामिल था। जैसे ही वह विद्यालय प्रांगण के ऊपर स्थित मंच पर पहुँचे, परम पावन कई वयोवृद्ध तथा अपंग लोगों का अभिनन्दन करते हुए उन तक पहुँचे, जो बड़ी आशा लिए उनके दर्शन की प्रतीक्षा कर रहे थे।
एक सारांश रिपोर्ट में, विद्यालय के निदेशक छिमे ल्हुन्डुब ने बताया कि विद्यालय की स्थापना १९७५ में हुई थी और इस समय १६५३ छात्र तथा २४६ कर्मचारी हैं। उन्होंने घोषणा की कि छात्र शास्त्रार्थ प्रस्तुत करेंगे।चुनौतिकर्ताओं ने धर्मकीर्ति की 'प्रमाणवर्तिका' की पंक्तियों से प्रारंभ किया तथा रंग के पहलुओं पर चर्चा जारी रखी।
लद्दाख में तिब्बती समुदाय के बारे में एक रिपोर्ट में, तिब्बती आवास अधिकारी ने स्मरण किया कि शुरू में लद्दाख में केवल ५०० तिब्बती बंजारे थे। १९७० के दशक में और ४००० तिब्बती आये और इस समय जनसंख्या ७००० तक पहुँच गई है। उन्होंने प्रशासन में लोकतंत्र के प्रारंभ के लिए लोकप्रिय प्रशंसा व्यक्त की। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि, यद्यपि प्रारंभ में तिब्बतियों को खेती करने के लिए भूमि देने की योजना थी, पर इससे कुछ न निकला अतः उनमें से अधिकतर व्यवसाय की ओर मुड़े। उन्होंने टिप्पणी की कि समुदाय के सदस्य परम पावन के जन्मदिन और नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित होने की सालगिरह जैसे विशेष अवसरों का समारोह मनाने के लिए एक साथ मिलते हैं, तथा वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि वे केवल शाकाहारी भोजन पकाएँ।
तत्पश्चात सोनमलिंग आवास के वयस्कों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रदर्शन किया गया, जिन्होंने नृत्य किया और गीत गाया। गीत का विषय था कि उन्हें सर्वज्ञों के प्रत्यक्ष की आशा न थी और अब वे यहाँ सिंहासन पर विराजमान थे - समृद्धि और खुशी रहे।
स्थानीय गणमान्य व्यक्तियों जैसे मुख्य कार्यकारी पार्षद, जिला उपायुक्त और लद्दाख बौद्ध एसोसिएशन के अध्यक्ष को कृतज्ञता के प्रतीक प्रस्तुत करने के पश्चात परम पावन ने सभा को संबोधित किया।
"लद्दाख में तिब्बती लगभग ५० वर्षों से निर्वासन में हैं और यद्यपि एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी आ रही है पर तिब्बती भावना प्रबल बनी हुई है। मैं आज आप सभी और हमारे अतिथियों को देख कर बहुत प्रसन्न हूँ।
"हम तिब्बती जो निर्वासन में स्वतंत्र रूप से जी रहे हैं, हमें तिब्बत में अपने घर के ६ लाख तिब्बतियों की ओर से बोलने की आवश्यकता है, जो अपने लिए बोलने में असमर्थ हैं। साधारणतया चीनी लोगों की आलोचना करने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। ७वीं शताब्दी में सोंगचेन गमपो के समय से हमने चीन के साथ अपने संबंध बनाए रखे हैं। वे हमारी तुलना में अधिक समय से बौद्ध धर्म की नालंदा परम्परा का अनुपालन करते आ रहे हैं। हमारे साथ जो हुआ उसे लेकर मुझे चीनी लोगों के प्रति कोई नाराजगी नहीं है, परन्तु कट्टरपंथी चीनी अधिकारियों में से कई सक्त और संकीर्ण दिमाग वाले हैं।
"ऐतिहासिक रूप से चीनी, मंगोलियाई और तिब्बती साम्राज्य अलग-अलग खड़े थे। पर अब कट्टरपंथी तिब्बतियों पर हावी हो गए हैं जिसे वे शांतिपूर्ण मुक्ति का अंग कहकर संदर्भित करते हैं। और जो उन्होंने १९५१ से तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र के रूप में संदर्भित किया है वह उस क्षेत्र का एक हिस्सा मात्र है जो गदेन फोडंग सरकार की ओर देखा करती थी।
"तिब्बतियों को अधीन करने हेतु सभी प्रकार के उपायों का उपयोग करते हुए, चीनी अधिकारियों ने तिब्बती अस्मिता को समाप्त करने का प्रयास किया। परन्तु जहाँ भौतिक नियंत्रण लोगों की शारीरिक गतिविधियों को कम व सीमित कर सकता है, वे उनके चित्त को नियंत्रित नहीं कर सकते। जब वे लोगों को पीड़ित करते हैं, तो वे सकारात्मक प्रतिक्रिया की प्राप्ति की आशा कैसे कर सकते हैं? इस संघर्ष के दौरान सैकड़ों हजारों तिब्बतियों ने अपने प्राण खोए हैं।
"ऐसी पीड़ा के समक्ष यह हमारा उत्तरदायित्व बनता है कि हम उनके अधिकारों और स्वतंत्रता के बारे में बात करें, इस बात का स्पष्ट ज्ञान रखते हुए कि हम केवल शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से परिवर्तन प्राप्त कर सकेंगे, बल प्रयोग द्वारा नहीं।
"तिब्बतियों की भावना के बल की निरंतरता को सुनिश्चित करने वाले कारकों में से एक हमारी संस्कृति और धर्म के आधार की आम भाषा है। हमारे कांग्यूर तथा तेंग्यूर संग्रह में बुद्ध की देशनाओं की पूरी प्रस्तुति है - और यह हमारी भोट भाषा में है। हमें संस्कृत अथवा किसी अन्य भाषा की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता नहीं है, हम उन्हें अपनी भाषा में पढ़ सकते हैं।"
परम पावन ने आगे बतलाया कि यद्यपि चीनी नालंदा परंपरा के पहलुओं का पालन करते हैं पर उन्होंने कारण व तर्क के प्रयोग को नहीं अपनाया। उन्होंने कहा कि विश्व में १ अरब बौद्ध हो सकते हैं, पर जो दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के कठोर तर्क का प्रयोग करते हैं, वे कम ही हैं। उन्होंने कहा कि तिब्बती परम्परा में नकारात्मक भावनाओं से निपटने का जो संरक्षित ज्ञान है वह आज भी प्रासंगिकता रखता है।
श्रोताओं में वयोवृद्धों की ओर संकेत करते हुए, परम पावन ने सुझाया कि जैसे जैसे मृत्यु दिन-ब-दिन निकट आती है, तो त्रिरत्न की शरण लेना, सौहार्दता का विकास करना तथा 'मणि' और 'तारा' मंत्रों पाठ करना अच्छा होता है।
जिस तरह से युवा छात्रों ने शास्त्रार्थ किया उसकी सराहना करते हुए परम पावन ने स्मरण किया कि ८वीं शताब्दी में शांतरक्षित ने तिब्बत में दर्शन, तर्क और शास्त्रार्थ के अध्ययन का प्रारंभ किया था। इसे बाद में संगफू के उपाध्याय छापा छोक्यी सेंगे (११०९ - ६९) ने इसे और आगे विकसित किया। उन्होंने टिप्पणी की कि एक परीक्षण तकनीक के रूप में शास्त्रार्थ को अन्य विषयों पर भी लागू किया जा सकता है, यही कारण है कि वह आधुनिक छात्रों को इसके उपयोग के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। तर्क और शास्त्रार्थ का तिब्बती उपयोग कुछ ऐसा है जिसकी प्रशंसा वैज्ञानिक भी करते हैं।
परम पावन ने कहा कि "यद्यपि ९वीं शताब्दी के बाद तिब्बती राज्य खंडित हुआ, पर हमारी आम भाषा कुछ ऐसी है जिसने हमें जोड़े रखा है। और आज वह लद्दाख, हिमालयी क्षेत्र और मंगोलियाई क्षेत्रों में भी सच है। आज, हमारे पास अपनी परम्पराओं को जीवंत रखने का न केवल अवसर है, पर जो जानते हैं उसे व्यापक विश्व के साथ साझा भी कर सकते हैं। यह कुछ ऐसा है जिसे करने का युवा पीढ़ी के पास अवसर है, अतः यह महत्वपूर्ण है कि आप अपनी अध्ययन में शिथिलता न लाएँ।
"चीन परिवर्तित होगा। विगत २० वर्षों में एक ही शासन के अंतर्गत भी परिवर्तन हुए हैं। सत्य हमारे पक्ष में है और उसमें परिवर्तन नहीं होगा। तिब्बती होने में अपना गौरव व आत्मविश्वास न खोएँ।
"निर्वासन के हमारे प्रारंभिक वर्षों में हमने संयुक्त राष्ट्र के पास संपर्क किया यद्यपि नेहरू ने स्पष्ट किया था कि हमें चीन से सीधा निपटना होगा। उन्होंने मुझे बताया कि तिब्बत के मुद्दे पर न तो संयुक्त राष्ट्र और न ही संयुक्त राज्य अमेरिका चीन के साथ युद्ध करेगा। परिणामस्वरूप १९७४ में हमने स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य न बनाने का निर्णय लिया। हम अलग तरह के लोग हैं जिनकी अपनी भाषा है और हमें हमारे अधिकार मिलने चाहिए। पर हमें लगा कि जो चीनी संविधान में लिखा हुआ है उसके माध्यम से हम उन्हें प्राप्त कर सकते हैं। अपनी भाषा और अस्मिता रखने का यह अर्थ नहीं है कि हम चीन से अलग हों। यही कारण है कि हमने एक मध्य मार्ग दृष्टिकोण अपनाया है।
"कई चीनी बुद्धिजीवी इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं। दिवंगत ल्यू ज़ियाओबो ने इसका समर्थन किया। २००८ के उपरांत चीनियों द्वारा लिखित लेख अपने सरकार की नीतियों की आलोचना करते हैं, हमारे मध्यम मार्ग दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं और इसे समस्या के समाधान का सर्वश्रेष्ठ उपाय मानते हैं।"
परम पावन ने न केवल राजनैतिक अधिकार से सेवा मुक्त होने पर साथ ही भविष्य की दलाई लामा को उस भूमिका के अंत करने के अपने २०११ के निर्णय को दोहराया। उन्होंने स्पष्टतया लोकप्रिय रूप से निर्वाचित सिक्योंग को अपने अधिकार समर्पित करने में अपनी खुशी स्पष्ट की। उन्होंने कहा, तिब्बती के रूप में उनके पास अभी भी उत्तरदायित्व हैं, पर राजनैतिक विषयों पर सिक्योंग को निर्णय लेने का अधिकार है। उन्होंने समापन करते हुए कहा,
"हम एक गहन परंपरा वाले लोग हैं - हमें खुश होना चाहिए।" धन्यवाद के शब्दों को व्यक्त करते हुए, विद्यालय के निदेशक ने विद्यालय और सोनमलिंग आवास के लोगों से बात करने उनके आने के लिए परम पावन के प्रति आभार व्यक्त किया। उन्होंने समर्थन के लिए भारत सरकार और लोगों के प्रति आभार व्यक्त किया और अनुरोध किया कि यह बना रहे। अंत में, उन्होंने यह शुभकामना व्यक्त की कि परम पावन दीर्घायु हों और तिब्बती समस्या का समाधान शीघ्र हो।