थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत - परम पावन दलाई लामा ने आज अपने निवास स्थल पर एमरी तिब्बती चित्त/शरीर विज्ञान ग्रीष्मकालीन विदेश कार्यक्रम में भाग लेने वाले छात्रों के एक समूह से भेंट की। उन्होंने सौहार्दपूर्ण ढंग से उनका स्वागत किया।
उन्होंने छात्रों से कहा, "भौतिक स्तर पर, भारत विगत ५८ वर्षों से मेरा दूसरा घर रहा है। परन्तु मानसिक स्तर पर, ६ वर्ष की आयु से जब मैंने अध्ययन प्रारंभ किया, तब से मैं प्राचीन भारतीय ज्ञान में निमग्न हूँ। हम राज्यहीन शरणार्थी हैं, पर जो हम जानते हैं उसका स्रोत और घर भारत है। और भारत ने हमें कई विभिन्न लोगों, आध्यात्मिक नेताओं और वैज्ञानिकों से मिलने और उन्हें जानने का अवसर प्रदान किया है।
"बौद्ध धर्म, विशेषकर नालंदा परम्परा ने हमें तर्क का उपयोग करने, प्रयोग करने, विश्लेषण करने और अपनी बुद्धि का प्रयोग करना सिखाया है। जिस अभ्यास का हम पालन करते हैं उसका उद्देश्य सभी सत्वों को दुःखों से मुक्त कर उन्हें सुख देना है। परन्तु हम ब्रह्मांड में कहीं और प्राणियों के लिए सीधे तरह से बहुत कम सहायता कर सकते हैं, और हम इस विश्व के कीड़े, जानवरों और पक्षियों की सहायता भी कम ही कर सकते हैं। जिनकी हम सहायता कर सकते हैं, वे हमारे साथी मनुष्य हैं जिनके साथ हम सम्प्रेषण कर सकते हैं। मनुष्य के पास ऐसी बुद्धि है, पर कितने दुःख की बात है कि यह प्रायः समस्या जनित करने के लिए काम में लाई जाती है।
"आप युवा २१वीं शताब्दी की पीढ़ी से संबद्धित हैं। मेरा विश्वास है कि दृष्टि और दृढ़ संकल्प के साथ आप इसे एक बेहतर विश्व बनाने में योगदान दे सकते हैं।"
परम पावन ने उस विशेष संबंध का उल्लेख किया जो एमरी विश्वविद्यालय और तिब्बतियों के बीच विकसित हुआ है। एक परिणाम यह है कि अब दक्षिण भारत के पुनर्स्थापित महाविहारों में १००० भिक्षु हैं जो विज्ञान और अंग्रेजी में प्रवीण हैं।
परम पावन ने टिप्पणी की, कि तिब्बतियों ने १००० से अधिक वर्षों से तर्क की प्रधानता और चित्त तथा भावनाओं के कार्य की समझ को जीवंत रखा है। यह ज्ञान यहाँ और इस समय एक सुखी जीवन जीने के लिए प्रासंगिक और उपयोगी है। उन्होंने आगे कहा कि यद्यपि इसका स्रोत भारत में था पर आधुनिक भारतीयों ने इसे आधुनिक विकास के पक्ष में बड़े पैमाने पर उपेक्षित किया है। परिणामतः उन्होंने कहा, कि उन्हें लगता है कि आज भारत में इस प्राचीन ज्ञान को पुनर्जीवित करने के लिए काम करना महत्वपूर्ण है।
प्रोफेसर लोबसंग तेनज़िन नेगी ने एमरी के दल - विश्वविद्यालय से २५, दो निकट के कॉलेजों और चार संकाय सदस्यों का परिचय दिया। उन्होंने उल्लेख किया कि यह विशिष्ट ग्रीष्मकालीन विदेश कार्यक्रम २००९ में प्रारंभ हुआ था। यह छह सप्ताह का गहन अनुभव है जो छात्रों को तिब्बती निर्वासन समुदाय के अग्रणी सदस्यों - जिसमें एमरी विशेष अध्यक्ष प्रोफेसर परम पावन दलाई लामा हैं - के साथ पारस्परिक व्यवहार और साथ ही आधुनिक विज्ञान और तिब्बती बौद्ध चिंतन परंपरा के बीच बढ़ते संवाद का अवसर प्रदान करता है।
धर्मशाला में रहते हुए छात्र ध्यान, बौद्ध दर्शन, तिब्बती चिकित्सा और नोर्बुलिंगा संस्थान में तिब्बती बौद्ध संस्कृति, तिब्बती पुस्तकालय व अभिलेखागार, तिब्बती चिकित्सा संस्थान तथा ज्ञूतो तांत्रिक महाविहार में अध्ययन करते हैं।
दक्षिण भारत का डेपुंग लोसेललिंग महाविहार, जो २०१४ से इस से संबद्धित है, छात्र विहारीय समुदाय के साथ जुड़ सकते हैं और एमरी-तिब्बत विज्ञान पहल के साथ, तिब्बती भिक्षुओं के साथ वार्तालाप कर सकते हैं जो न्यूरोसाइंस, जीव विज्ञान और भौतिकी का अध्ययन कर रहे हैं।
छात्रों के प्रश्न लेने से पहले, परम पावन ने कहा कि वे यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि यद्यपि यह बौद्ध ग्रंथों में लिखा हुआ है, वे चित्त और भावनाओं के कार्य जिसकी वे बात करते हैं वह साधारणतया प्राचीन भारतीय ज्ञान से संबंधित हैं। उन्होंने टिप्पणी की कि नालंदा विश्वविद्यालय में शास्त्रार्थ में व्यापक विचारों का आदान-प्रदान हुआ और प्रतिभागियों ने एक-दूसरे से सीखा। उन्होंने कहा कि सभी भारतीय परम्पराएँ जो शमथ और विपश्यना, एकाग्रता और अंतर्दृष्टि के अभ्यासों का अनुपालन करती हैं, वे चित्त के कार्यों से गहन और व्यापक रूप से परिचित हैं।
जिस छात्र ने प्रथम प्रश्न पूछा, वह यह जानना चाहता था कि शांति के युग की स्थापना के लिए विभिन्न चुनौतियों और बाधाओं का सामना किस तरह किया जाए। अपने उत्तर में, छोड़ने के लिए ब्रिटन के संकीर्ण वोट के बावजूद जिसके अनुसार पिछले दुश्मन अपने पारस्परिक लाभ हेतु कार्य करने के लिए साथ हुए हैं, परम पावन ने यूरोपीय संघ की भावना को लेकर अपनी सराहना व्यक्त की। उन्होंने कहा कि वर्तमान वास्तविकता यह है कि राष्ट्र अब एकाकी और आत्मनिर्भर नहीं रह गए हैं। विश्व बहुत अधिक अन्योन्याश्रित हो गया है, अतः मानवता की एकता के बारे में अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है।
"एक कारक जो २१वीं शताब्दी को शांति का युग बनाने में योगदान दे सकता है," उन्होंने टिप्पणी की कि "वह बल द्वारा समस्याओं को हल करने में असफलता की व्यापक प्रशंसा होगी। बल का उपयोग लोगों को शारीरिक रूप से नियंत्रित कर सकता है, पर वह उनके हृदयों और चित्त को परिवर्तित नहीं करेगा। उसे आप मात्र विश्वास और मैत्री के आधार पर कर सकते हैं।"
एक अन्य छात्र जानना चाहता था कि, जितने निर्णय परम पावन को लेने पड़े हैं, आज जब वे पीछे मुड़कर देखते हैं तो क्या उनमें से किसी को वे पछतावे अथवा शंका के साथ देखते हैं। परम पावन ने उत्तर दिया कि यह कहना कठिन है, पर उन्होंने उल्लेख किया कि जब वे दुविधा में होते हैं तो अपना निर्णय लेने से पहले वह यह जानने का प्रयास करते हैं कि अन्य लोग उस विषय पर क्या सोचते हैं।
यह पूछे जाने पर कि एक पूंजीवादी समाज में दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए किस तरह सफलता प्राप्त की जाए, परम पावन ने उत्तर दिया कि धन या गतिशील बाजार अर्थव्यवस्था बनाने में कुछ भी गलत नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि आप जिस सम्पत्ति का निर्माण करते हैं उसे साझा करें अथवा उसे लाभकारी उपयोग में लाएँ। उन्होंने स्मरण किया कि बंबई के एक धनाढ्य परिवार ने उनसे आशीर्वाद की मांग की थी। उन्होंने उनसे कहा कि यदि वे बंबई की झुग्गी झोपड़ियों के बच्चों के लिए शैक्षिक सुविधाओं को उपलब्ध कराने पर धन खर्च करें तो वह आशीर्वाद का एक और अधिक प्रभावी स्रोत होगा।
इस प्रश्न के उत्तर में कि दुःख से किस तरह शिक्षा प्राप्त की जाए, परम पावन ने सुझाया कि एक अधिक करुणाशील व्यवहार चित्त को खोलने का कार्य करता है। उन्होंने कहा कि एक शांत और करुणामय चित्त हमें अपनी सहज बुद्धि को अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग करने में सक्षम बनाता है। एक अधिक समग्र परिप्रेक्ष्य के बिना किसी परिस्थिति की वास्तविकता की सराहना करना कठिन है और उससे हमारे द्वारा की गई कोई भी कार्यवाही अवास्तविक और असफल होने की संभावना है।
अंतिम प्रश्न अहिंसा से संबंधित था।
"बौद्ध धर्म के तिब्बत में आने से पूर्व," परम पावन ने समझाया, "हम तिब्बती बंजारे थे। यदि हमें किसी बाधा का सामना करना पड़ता तो हम उसे कुचल देते थे। एक बार जब ज्ञानी नालंदा आचार्य शांतरक्षित ने देश में बौद्ध धर्म स्थापित किया तो हमारे जीवन के ढंग में परिवर्तन आ गया और हम एक अधिक करुणाशील, अहिंसक समाज बन गए।"
उन्होंने सूचित किया कि चीनी कब्जे के बाद निर्वासन में आने के उपरांत पंडित नेहरू ने उन्हें चेतावनी दी थी कि संयुक्त राज्य अमरीका तिब्बत की रक्षा के लिए चीन के साथ युद्ध नहीं करेगा। संयुक्त राष्ट्र से की गई अपील व्यर्थ साबित हुई। १९७४ में, तिब्बतियों ने निर्णय लिया कि वे पूर्ण स्वतंत्रता की मांग नहीं करेंगे, जिसके फलस्वरूप आखिरकार पारस्परिक रूप से हितकारी मध्यम दृष्टिकोण तैयार किया गया। इसका मौलिक रूप अहिंसा का सिद्धांत है, जिसने तथ्यों से परिचित चीनियों के बीच भी व्यापक नैतिक समर्थन को आकर्षित किया है।
परम पावन ने विद्यार्थियों को आने के लिए धन्यवाद दिया, उन्हें स्मरण कराया कि मानव परिवार के सदस्य होने के नाते हम सभी भाई और बहनें हैं और उनसे आग्रह किया कि इस छह सप्ताह के कार्यक्रम में उन्होंने जो कुछ भी सीखा है उसे अपने मित्रों व परिवार के साथ साझा करें।