मुंबई, महाराष्ट्र - १४ अगस्त २०१७, आज प्रातः मुंबई में वर्षा ऋतु के मेघाच्छन्न मेघों के तले परम पावन दलाई लामा गाड़ी से टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) के हरे भरे परिसर गए। आगमन पर टीआईएसएस के संचालक मंडल के अध्यक्ष एस रामदोरै और टीआईएसएस के निदेशक प्रो एस परशुरामन ने उनका स्वागत किया। वे उस सभागार में गए जहाँ कार्यवाही का प्रारंभ संस्थान गीत के लिए सभी के द्वारा खड़े होकर प्रारंभ हुई।
प्रोफेसर परशुराम ने औपचारिक रूप से अतिथियों का स्वागत किया। उन्होंने सूचित किया कि उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम के लिए धर्मनिरपेक्ष नैतिकता पर कार्य २०१३ में प्रारंभ हो गया था। अब जब यह पूर्ण हो चुका है, सभी टीआईएसएस छात्र पाठ्यक्रम को ले सकते हैं, जिनके लिए उन्हें क्रेडिट प्राप्त होंगे। प्रारंभिक स्तर पर ३०० छात्रों ने अपना नाम दर्ज कराया है। टीआईएसएस को आशावान है कि वह अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में पाठ्यक्रम की प्रस्तुति में सक्षम होगा, साथ ही व्यापार समुदाय को भी उपलब्ध कराएगा।
एस रामदोरै ने परम पावन और निकाय के उनके सहयोगियों का भी स्वागत करते हुए कहा कि परिसर में परम पावन की उपस्थिति ने इस दिन को एक महत्वपूर्ण अवसर बना दिया था। धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के प्रारंभ के संबंध में, उन्होंने सभी उपस्थित लोगों को टाटा समूह के अंदर प्रारंभ किए गए आचार संहिता का स्मरण कराया।
तत्पश्चात धर्मनिरपेक्ष नैतिकता पाठ्यक्रम के प्रमुख लेखकों में से एक, डॉ मोनिका शर्मा, जो टीआईएसएस में टाटा चेयर विज़िटिंग प्रोफेसर हैं, ने बोलते हुए इस पाठ्यक्रम को भविष्य के नेताओं के लिए निवेश का रूप बताया। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता शब्द को विविधता के उत्सव का रूप बताया और कहा कि यह पाठ्यक्रम सभी मनुष्यों में सामान्य तीन पहलुओं पर आधारित है: करुणा, समानता की भावना या निष्पक्षता की भावना, और स्व गौरव की भावना फिर आपकी पृष्ठभूमि कैसी ही क्यूँ न हो।
पाठ्यक्रम पहले ही एक बार ६० छात्रों को लेकर एक पथ प्रदर्शी कार्यक्रम के रूप में चलाया जा चुका है, जिन्होंने इसे उत्कृष्ट बताया। यह मूल्य आधारित है और तीन स्तंभों पर स्थित है तथा लोगों की गहनतम सम्पत्ति पर निर्भर है। यह लैंगिक समानता सुनिश्चित करने का प्रयास करता है। यह व्यक्तिगत स्तर और सामूहिक स्तर को साकार करते हुए रूपांतरण पर केंद्रित है।
यह पाठ्यक्रम रचनात्मक रूप से चिंतन करने की हमारी क्षमता को खींचता है, जो कि मात्र प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के बजाय, जो कि तकनीक से प्रेरित हो जाती है, मानवता की भावना से प्रेरित है। यह मनुष्य द्वारा बनाई गई एक व्यवस्था है। डॉ शर्मा ने इस पाठ्यक्रम को एक आंशिक रूप जैसा बताया क्योंकि यह रूपों को समाविष्ट करता है, जो स्वयं की पुनरावृत्ति करते हैं, ठीक उसी तरह जैसा हम प्रकृति में देखते हैं। उन्होंने सीखने के तीन उपायों का उल्लेख किया - जांच, अंतर्दृष्टि उत्पन्न करना और व्यवहार में डालना।
यह पाठ्यक्रम विवेक से भी निपटता है, न्याय की गुणवत्ता जो हमें मानवीय मूल्यों के भीतर विकसित करने और उस परिप्रेक्ष्य से देखने के लिए सक्षम बनाती है। इस तरह की विवेकशीलता में किसी एक दृष्टिकोण के साथ न चिपके रहना भी संलग्न है।
डॉ शर्मा ने व्यावसायिक संदर्भ में पाठ्यक्रम की संभावित उपयोगिता को संदर्भित किया और नैतिक मूल्यों पर आधारित व्यवसाय की संभावना की कल्पना की। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि वह आशा करती हैं कि यह जीवन के लिए नैतिक मूल्यों और नेतृत्व का मार्ग प्रशस्त करता एक दिशा निर्देशक होगा।
परम पावन पाठ्यक्रम के प्राथमिक पाठ्यक्रम के विमोचन के साथ धर्म निरपेक्ष नैतिकता पाठ्यक्रम के औपचारिक विमोचन में सम्मिलित हुए। इसके बाद उन्हें सभा को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया जिसमें सम्बद्ध संस्थानों के कुलपति, व्यवसायिक लोग और कर्मचारी और टीआईएसएस के छात्र शामिल थे।
"सुप्रभात," परम पावन ने कहा, "मैं मंच पर खड़े होकर बोल सकता हूँ क्योंकि प्रातःकाल मैं ताजगी का अनुभव करता हूँ। केवल जब दिन बीतता है तो थकान मुझ पर हावी हो जाती है।
"आदरणीय ज्येष्ठ और छोटे भाई और बहनों - मैं सदैव इन जैसे शब्दों से प्रारंभ करता हूँ क्योंकि मूलभूत स्तर पर हम सभी मनुष्यों के रूप में समान हैं। हम पारिवारिक पृष्ठभूमि, राष्ट्रीयता, आस्था इत्यादि मतभेदों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, पर ये केवल गौण हैं और उन्हें दुख का कारण नहीं बनना चाहिए। मैं हमेशा अपने आप को एक अन्य मनुष्य मानता हूँ और जब मैं दूसरों से मिलता हूँ तो मैं उन्हें भी सहमानव के रूप में देखता हूँ। यह मुझमें आंतरिक शक्ति लाता है और मुझे सरलता से मित्र बनाने में सक्षम करता है। यह प्रत्यक्ष लाभ है। यदि इसके स्थान पर आप गौण भेदों में फंस जाते हैं तो यह आपके और दूसरों के बीच दूरी निर्मित करता है।
"मैं आपको इस पुस्तक को पूर्ण करने के लिए बधाई देना चाहता हूँ। यह वास्तव में बहुत अच्छा है कि आप इस बिंदु तक पहुँचे हैं।
"एक बौद्ध भिक्षु के रूप में मैं प्रत्येक दिन तड़के ही उठ जाता हूँ और सभी संवेदनशील प्राणियों के कल्याणार्थ प्रार्थना करता हूँ। पर ब्रह्मांड में कहीं भी जो भी सत्व हैं हम उनके लिए बहुत कुछ नहीं कर सकते। और जब भी मैं इस ग्रह के जानवरों, पक्षियों, कीड़े और मछलियों को देखता हूँ, तब भी हम उनके लिए भी बहुत कुछ नहीं कर सकते। जिनकी सहायता हम कर सकते हैं, वे ७ अरब मनुष्यों में से हैं जिनके साथ हम सम्प्रेषण कर सकते हैं।
"अतीत में जब समुदाय अधिक आत्मनिर्भर और एकाकी थे तो संभवतः अन्य लोगों के विषय में 'हम' और 'उन' के संदर्भ में सोचना उचित हो सकता था। परन्तु आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में और ऐसे विश्व में जहाँ जलवायु परिवर्तन हम सभी के धमका रहा है, हमें मानवता की एकता की भावना के साथ रहना सीखना होगा।
"कई शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों की यह मान्यता है कि हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर्याप्त नहीं है। अतीत में नैतिक मार्गदर्शन के लिए लोग धार्मिक परम्पराओं की ओर देखा करते थे पर आज १ अरब से अधिक लोग घोषित करत हैं कि उनकी धर्म में कोई रुचि नहीं है। हमें उस खाई को पाटने के लिए कुछ की आवश्यकता है, यह दिखाने के लिए कि सौहार्दता अच्छे स्वास्थ्य की ओर ले जाता है। हमें यह संकेत देने के लिए कुछ आवश्यकता है कि जो हमारी आंतरिक शांति नष्ट करता देता है, वह क्रोध है। हम ऐसा अनुभव कर सकते हैं कि यह चित्त का स्वाभाविक अंग है, पर क्रोध व करुणा सह-अस्तित्व नहीं रख सकते। यदि हम पूछें कि हमारे लिए क्रोध का क्या उपयोग है तो हम पाते हैं कि यह हमारी चित्त की शांति को नष्ट करता है तथा पारिवारिक जीवन को बरबाद करता है, अतः इसका कोई लाभ नहीं है।"
परम पावन ने समझाया कि इनमें से बहुत कुछ प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान में वर्णित है, जो आधुनिक भारतीयों ने उपेक्षित किया है, पर जो कई वैज्ञानिकों को कौतूहल में डालता है। उन्होंने कहा कि हमें वैज्ञानिक निष्कर्षों, सामान्य अनुभव और सामान्य ज्ञान के आधार पर नैतिकता के लिए एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण की आवश्यकता है। धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का एक उद्देश्य है कि चित्त की शांति किस प्रकार प्राप्त करें।
"आधुनिक भारत में, अहिंसा अभी भी सार्वजनिक चेतना का अंग है और जैसा धर्मनिरपेक्षता भी है। अहिंसा करुणा के आचरण की अभिव्यक्ति है। मैं अब तक आपके द्वारा किए गए कार्य पर आपको बधाई देता हूँ। यह आगे के विकास के लिए एक आधार के रूप में भी कार्य करेगा।"
परम पावन ने कहा कि वह बैठ कर प्रश्नों के उत्तर देंगे। प्रथम प्रश्न था कि सम्प्रति विश्व में करुणा कितनी प्रासंगिक है। उन्होंने उत्तर दिया, "बहुत प्रासंगिक है। इसका संबंध हमारी उस समझ से है कि हमारी भावनाओं की पूरी व्यवस्था किस तरह कार्य करती है। उदाहरणार्थ क्रोध से क्रोध कम नहीं होता, जिस तरह हिंसा से हिंसा कम नहीं होती।"
शांति स्थापित करने में महिलाओं की भूमिका के बारे में एक प्रश्न के उत्तर में, परम पावन ने नेतृत्व की आवश्यकता के जन्म के बारे में स्पष्टीकरण दिया और बताया कि किस प्रकार शारीरिक शक्ति के मानदंड ने पुरुष प्रभुत्व को जन्म दिया। अब शिक्षा ने उस असमानता को हटा दिया है और कई महत्वपूर्ण महिला नेता हैं। चूंकि पाया गया है कि महिलाएँ दूसरों की पीड़ा को लेकर अधिक संवेदनशील होती हैं, अतः उनका नेतृत्व अधिक प्रभावी हो सकता है। परम पावन ने सुझाया कि यह पुरुषों के पीछे हटने तथा महिलाओं को आगे आने का समय है।
उन्होंने स्वीकार किया कि सामंती प्रणाली से उत्पन्न होने वाली सोच के पुराने तरीकों से संबंधित महिलाओं के विरुद्ध अब भी भेदभाव है। उन्होंने धार्मिक परपराओं के तीन पहलुओं को भी रेखांकित किया - वास्तविक धार्मिक अभ्यास, दर्शन और सांस्कृतिक सम्मेलन। उन्होंने तिब्बती सांस्कृतिक व्यवस्था के रूप में दलाई लामा की राजनीतिक नेताओं के रूप में भूमिका का उल्लेख किया जिसकी उपयोगिता अब समाप्त हो चुकी है और इसकी तुलना भारतीय जाति व्यवस्था तथा महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव जैसी प्रथाओं से की जिनमें परिवर्तन का समय आ गया है।
परम पावन ने व्यापार से संबंधित असमान वेतन अंतर से लेकर अमीर और गरीब के बीच की खाई के बारे में प्रश्न उठाया, और सुझाया कि अंतर को पाटने के लिए दोनों छोर के लोगों द्वारा काम करने की आवश्यकता है।
पत्रकारों द्वारा पूछे गए प्रश्नों में उनसे भारतीय सीमा पर चीन के साथ तनाव के बारे में पूछा गया और उन्होंने घोषित किया कि न तो भारत और चीन में पूर्ण रूप से एक दूसरे को पराजित करने की क्षमता है। चीन शक्तिशाली है, पर साथ ही भारत भी है। दोनों देशों को साथ साथ रहना होगा। परम पावन को 'धर्मनिरपेक्ष' को परिभाषित करने के लिए भी आमंत्रित किया गया और उन्होंने इसे बिना किसी पूर्वाग्रह के सभी धर्मों के प्रति सम्मान की भावना, साथ ही उन लोगों के विचारों के प्रति भी सम्मान, जिनकी कोई आस्था नहीं है, के रूप में समझाया। उन्होंने भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान का संकेत दिया।
उद्योग के प्रमुखों और कुलपतियों के साथ मध्याह्न भोजनोपरांत परम पावन ने अपनी सोच के विकास का विवरण दिया, जो ७ वर्ष साल की उम्र में ग्रंथों को कंठस्थ करने से लेकर १९७३ में यूरोप की अपनी प्रथम यात्रा तक थी। उस समय उन्हें अनुभूति हुई कि पश्चिम में इतने अधिक भौतिक विकास के बाद भी लोग दुखी थे। वे १९७९ में मॉस्को होते हुए मंगोलिया की यात्रा करते समय यह जानकार अचंभित हुए कि जिस तरह यूरोप रूस द्वारा आक्रमण को लेकर चौकन्ना था, रूसी नाटो को लेकर अत्यधिक आशंकित थे।
"मुझे एहसास हुआ कि चित्त की शांति करुणा के अभ्यास और मानवता की एकता की भावना से मिलती है, न कि भय और धमकियों के परिणामस्वरूप।
"अब, मेरा मानना है कि हमें प्राचीन भारतीय ज्ञान को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है, जो हमने जीवित रखा है, जो उदाहरण के लिए हमें बताता है कि किस तरह अपनी भावनाओं से निपटा जाए। धर्मनिरपेक्षता भी उसी परम्परा का अंग है। यदि चित्त के कार्य की प्राचीन भारतीय अंतर्दृष्टि को आधुनिक शिक्षा के साथ संयुक्त किया जा सकता है तो इसका भारत पर प्रभाव होगा, और दीर्घकाल में संभवतः चीन पर भी। उच्च शिक्षा के लिए धर्म निरपेक्षता का यह पाठ्यक्रम इस व्यापक संदर्भ में एक अग्रणी परियोजना की तरह है। कृपया इसे बनाए रखें।"
समापन करते हुए प्रोफेसर परशुरामम ने अनुमान लगाया कि धर्म निरपेक्षता पाठ्यक्रम के लिए ३०० छात्रों द्वारा दर्ज की गई संख्या शीघ्र ही ५००० या इससे अधिक बढ़ेगी। उन्होंने उल्लेख किया कि सरकार में एक मंत्री ने उन्हें इसका प्रशिक्षण सांसदों को प्रदान करने के लिए कहा है। यह टिप्पणी करते हुए कि केन्द्रीय तिब्बती अध्ययन विश्वविद्यालय, सारनाथ, विवेकानंद विश्वविद्यालय, अंबेडकर विश्वविद्यालय और इत्यादि के कुलपति सभा में उपस्थित हैं, उन्हें आशा है कि वे भी इसे ग्रहण करेंगे और लौटकर रिपोर्ट देंगे। उन्होंने समर्थन के लिए एक आग्रह करते हुए समाप्त किया।
जब परम पावन ने टीआइआइएस भवन से अपनी गाड़ी की ओर प्रस्थान किया तो उन्हें देखने के लिए एकत्रित छात्रों ने मैत्रीपूर्ण उल्लसित हर्ष ध्वनि की। वे मुस्कुराए तथा हाथ हिलाकर अभिनन्दन किया तथा दिल्ली उड़ान भरने के लिए मुंबई हवाई अड्डे के लिए रवाना हुए। कल वे कुछ समय के विश्राम के लिए, जिनकी उन्हें अत्यंत आवश्यकता है, धर्मशाला लौटेंगे।