पिछले कुछ दिनों से चला आ रहा अस्थिर मौसम का रूप बना हुआ था, जब आज प्रातः परम पावन दलाई लामा से गुवाहाटी से रवाना हुए। जब वे गाड़ी से हवाई अड्डे जा रहे थे तो सुदूर बादल गरज रहे थे और बिजली चमक रही थी। अस्थिरता के परिणामस्वरूप दिब्रूगढ़ की उड़ान थोड़ी उथल पुथल लिए थी, पर वह सुरक्षित और समय पर पहुँची।
रंगघर में दिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय परिसर में आगमन पर कुलपति प्रोफेसर अलक बुरागोहेन और बौद्ध अध्ययन केंद्र के समन्वयक श्री चंदन शर्मा ने परम पावन का स्वागत किया। इस अवसर का उद्घाटन करने के लिए उन्होंने एक साथ दीप प्रज्ज्वलित किया। जैसे ही उन्होंने मंच पर कुलपति और रजिस्ट्रार प्रो एम एन दत्ता के साथ अपना स्थान ग्रहण किया, परम पावन ने बौद्ध संघ के एक वरिष्ठ सदस्य को उनके साथ जुड़ने के लिए आमंत्रित किया।
कुलपति के स्वागत परिचय के उपरांत परम पावन ने ११०० छात्रों और संकाय को संबोधित किया।
"आज, मानवता की एकता को स्वीकार करना महत्वपूर्ण है। अन्य आकाश गंगाओं में मनुष्य हो सकते हैं, परन्तु हमारा उनके साथ कोई संबंध नहीं है इसलिए हम उनके लिए कुछ नहीं कर सकते। इसी तरह, हम उन जानवरों के लिए सहानुभूति महसूस कर सकते हैं जिनके साथ हम इस ग्रह को साझा करते हैं, पर उनके लिए भी हम बहुत कुछ नहीं कर सकते। परन्तु हमारे आसपास के अन्य मनुष्यों के साथ हम संवाद कर सकते हैं क्योंकि हम सब के पास भाषा है। मनुष्य के रूप में हम शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से समान हैं। हम वास्तव में भाई और बहनों की तरह हैं।
"दूसरों के लिए करुणा विकसित करना हममें आतरिक बल लाता है जो हमारी आंतरिक शांति में सहयोग देता है। यह स्वाभाविक रूप से भय कम करता है। यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि भय और तनाव से हताशा हो सकती है, जो बदले में क्रोध और हिंसा को जन्म दे सकती है। यह कहना पर्याप्त नहीं है कि हिंसा विनाशकारी है, इसे रोकने के लिए हमें इसके कारणों को संबोधित करना चाहिए, जो प्रायः भय तथा क्रोध है।
"भय का स्वाभाविक प्रतिपक्ष मैत्री है, जो पूर्ण रूप से विश्वास पर निर्भर है, जो बदले में निकटता की भावना पर निर्भर करता है, यह भावना कि मनुष्य के रूप में हम सभी समान हैं। मैं इसी के अभ्यास और इसे अन्य लोगों के साथ साझा करने का प्रयास करता हूँ। जब भी मैं सार्वजिनक संबोधन करता हूँ तो मैं अपने श्रोताओं का अभिनन्दन भाइयों और बहनों कहकर करता हूँ। इस संदर्भ में कि हम सभी इंसान हैं धर्म, रंग, पेशा, पारिवारिक पृष्ठभूमि, चाहे हम समृद्ध हों या गरीब, आस्थावान हों अथवा नास्तिक, इस अथवा उस राष्ट्रीयता से संबंधित हों के अंतर गौण बन जाते हैं।
"आज हम जिन कई समस्याओं का सामना करते हैं, उसके लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं क्योंकि हम अपने बीच के इन गौण अंतरों पर ध्यान देते हैं। हम मेरा देश, मेरा धर्म, मेरे समुदाय, कि हम गरीब हैं, जबकि वे समृद्ध हैं, के विचारों से चिपके रहते हैं। यह 'हम' और ' उ' की एक प्रबल भावना निर्मित करता ह। एकमात्र उपाय स्वयं को स्मरण कराना है कि मनुष्य रूप में हम सभी समान हैं। हमें मानवता की एकता को याद रखने की आवश्यकता है।"
परम पावन ने सुझाया कि लोग स्वयं से पूछें कि क्या हिंसा का कोई मूल्य है। यह हमारे चित्त की शांति को नष्ट करता है। यह परिवार के भीतर और फिर व्यापक समुदाय के भीतर की शांति और सामंजस्य को नष्ट करता है। और उसके बाद भी हिंसा फैलती है। २०वीं शताब्दी ने दो विश्व युद्ध, कोरियाई युद्ध और वियतनाम युद्ध देखे। परिणामस्वरूप कुछ इतिहासकार कहते हैं कि २०० करोड़ लोग हिंसक मृत्यु का शिकार हुए। परम पावन ने टिप्पणी की कि यदि इस अत्यधिक हिंसा के कारण बेहतर विश्व बना होता तो कुछ लोग कह सकते हैं कि यह उचित था, पर इसके औचित्य के लिए कोई प्रमाण नहीं है।
"सम्प्रति विश्व में बढ़ती संख्या में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण, भूकंप समेत हम प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर रहे हैं। कल गुवाहाटी में मैंने उस महान नदी की पवित्रता मनाते हुए नमामि ब्रह्मपुत्र समारोह में भाग लिया था, पर हम जानते हैं कि इसमें बाढ़ की भी प्रवृत्ति है। सार्वभौमिक उष्णता के कारण हिमालय की हिमनदियाँ पिघल रही हैं और हिम पात कम मात्रा में हो रहा है। धर्मशाला, जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ ५० वर्षों से अधिक समय पहले जब मैं आया था, की तुलना में बहुत कम बर्फ है। इस बीच, मानव आबादी लगातार बढ़ रही है और अमीर और गरीब के बीच का अंतर बढ़ना जारी है। हमें गरीबों के जीवन स्तर को बढ़ाने के उपायों को खोजना होगा। हमें दुर्लभ संसाधनों के बेहतर उपयोग के उपाय भी ढूँढने होंगे।
"ऐसा करने के लिए हम मनुष्यों को साथ मिलकर काम करना चाहिए। अपने ग्रह को बचाने और एक अधिक सुखी मानवता के निर्माण हेतु हमें अपनी जिम्मेदारियों को साझा करने की आवश्यकता है। दूसरों को लेकर 'हम' और 'उन' के संदर्भ में सोचना आज की तारीख से बाहर है। यही कारण है कि मैं हमारे मानव परिवार की एकता की भावना को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध हूँ। मैं जहाँ भी जाता हूँ वहाँ लोगों को स्मरण कराता हूँ कि हम मनुष्य रूप में समान हैं। समय आ गया है कि हम यह समझने का प्रयास करें कि हमारा भविष्य दूसरों पर निर्भर करता है। यह हमारे अपने हित में है कि हम दूसरों के बारे में चिंतित हों और हमें उनकी देखभाल करना चाहिए। यह हमारे स्व-हित को सुनिश्चित करने का बुद्धिमत्ता भरा उपाय है। दूसरों की उपेक्षा कर मात्र स्वयं के बारे में सोचना स्व - हित को लेकर एक मूर्ख उपाय है।
"विश्व की सभी प्रमुख धार्मिक परम्पराएँ प्रेम और करुणा का संदेश देती हैं, जैसे कि यहाँ अहिंसा की इस धरा पर हम मैत्री और करुणा की बात करते हैं। अपने विभिन्न दार्शनिक विचारों के बावजूद ये सभी परम्पराएँ प्रेम और करुणा की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए समर्पित हैं।
"प्रेम व करुणा आंतरिक शांति का स्रोत हैं और वैज्ञानिक शोध से पता चलता है कि स्वस्थ चित्त स्वास्थ्य के हित में योगदान देता है। चूंकि हम सभी एक सुखी और शांतिपूर्ण विश्व में रहना चाहते हैं, इसलिए हमें २१वीं शताब्दी को शांति का युग बनाने के लिए जो हम कर सकते हैं वह करना चाहिए। प्रारंभिक बिंदु व्यक्तियों के लिए स्वयं के भीतर आंतरिक शांति बनाना है, इसी तरह इस सदी को करुणा की सदी के रूप में बनाया जा सकता है। और यह आप में से जो २१वीं शताब्दी के पीढ़ी से संबंधित हैं, उन्हें यह कर दिखाना है। भविष्य के प्रति हमारी आशाएँ आप पर टिकी हैं।"
समकालीन शिक्षा की कमियों पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए, परम पावन ने मानव मूल्यों को सम्मिलित करने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने खेद व्यक्त किया कि आज शिक्षा भौतिक लक्ष्यों की ओर उन्मुख है। उन्होंने सुझाव दिया कि एक समाधान है कि आधुनिक शिक्षा को हमारे भीतरी विश्व की समझ के साथ जोड़ा जाये। उन्होंने खुलासा किया कि उनकी प्रतिबद्धताओं में से एक, चित्त और भावनाओं के प्रकार्य के प्राचीन भारतीय ज्ञान को पुनर्जीवित करने का प्रयास करना है। जितना अधिक से अधिक भारतीय इस में रुचि दिखाते हैं वे प्रोत्साहित होते हैं, क्योंकि भारत एकमात्र ऐसा स्थान हो सकता है जहाँ आधुनिक शिक्षा को प्राचीन ज्ञान के साथ जोड़ा जा सकता है जो चित्त शांति की ओर ले जा सकता है।
श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर देते हुए परम पावन से अहिंसा के भविष्य के बारे में पूछा गया, जब विश्व भर में हिंसा फैली हुई है। उन्होंने कहा कि मानवता परिवर्तित हो गई है। २०वीं शताब्दी के प्रारंभिक दिनों में जब राष्ट्र युद्ध की घोषणा करते थे तो उनके नागरिक निस्संकोच युद्ध के प्रयासों में सम्मिलित होते थे। यह बदल गया है। परम पावन ने बताया कि उनके भौतिकी के शिक्षक कार्ल फ्रेडरिक वॉन वीज़ाकर ने उन्हें बताया कि शताब्दियों तक एक दूसरे को कट्टर दुश्मन मानने के बाद, फ्रांस और जर्मनी ने मिलकर काम करने का निर्णय लिया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद डिगॉल और एडेनौर ने यूरोपीय संघ का निर्माण किया, जो संकीर्ण राष्ट्रीय हित से पहले समुदाय कल्याण को सामने रखता है। यह, उन्होंने कहा कि मानव परिपक्वता का संकेत है। इसी तरह जापान, जिसका व्यवहार युद्ध में काफी क्रूर था, बल के उपयोग के विरोध में एक प्रमुख राष्ट्र बन गया है, विशेषकर परमाणु शस्त्रों के प्रयोग को लेकर। उन्होंने सुझाया कि ये आशावादी होने के आधार थे।
समकालीन शिक्षा में नैतिकता लाने के विषय में परम पावन ने सूचित किया कि इस महीने के अंत में वह इच्छुक लोगों के साथ दिल्ली में एक बैठक में भाग लेंगे, जो इस संबंध में एक पाठ्यक्रम विकसित कर रहे हैं। यह आम अनुभव, सामान्य ज्ञान और वैज्ञानिक निष्कर्षों के आधार पर मूल्यों के शिक्षण की इच्छा रखता है। एक बार मसौदे पाठ्यक्रम पर सहमति हो जाने पर एक अवधि होगी, यह देखने के लिए कि अभ्यास में यह कितना व्यावहारिक है।
परम पावन ने चेतावनी दी कि यदि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में कोई परिवर्तन नहीं किया गया और वह अधिकांश रूप से भौतिक लक्ष्यों पर केंद्रित रही तो हम यह सुनिश्चित करेंगे कि भविष्य की पीढ़ी का रुझान मात्र धन और शक्ति में है। उनका उद्देश्य सार्वभौमिक अपील के साथ नैतिकता प्रस्तुत करना है।
१९५९ में तवांग और तेज़पुर पहुँचने के बारे में उनकी स्मृतियों के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि वे बहुत स्पष्ट थीं।
"एक बार जब मैंने सीमा पार कर लिया, तो तवांग के लोगों ने मेरा स्वागत अत्यंत सौहार्दता के साथ किया। भारत सरकार के निर्देशों के तहत स्थानीय अधिकारियों ने भी मेरी देखभाल की। जब मैं तेज़पुर पहुँचा तो मैंने वहाँ इकट्ठे हुए बहुत सारे मीडिया के लोगों को अपना पहला आधिकारिक बयान दिया।
"कल मैं असम राइफल्स के एक पुराने सैनिक से मिला, जिसने सीमा से नीचे जाते हुए मेरा अनुरक्षण किया था। वह इस समय ७८ वर्ष का है और यद्यपि मैं उससे वास्तव में बड़ा हूँ, पर मुझे लगा कि वह मुझसे बड़ा लग रहा था। उससे पुनः मिलकर मैं बहुत द्रवीभूत हुआ और उसे गले लगाया। ५८ वर्ष पूर्व यहाँ आने के बाद से, मैं भारत सरकार का सबसे लंबे समय तक का निवास करने वाला अतिथि बन गया हूँ। मैंने अपना देश खोया और जो तिब्बती वहाँ रह रहे हैं, उनका सुख छिन गया है, पर यहाँ भारत में तिब्बती शरणार्थी और मुझे एक नई स्वतंत्रता प्राप्त हुई।"
परम पावन को विश्वविद्यालय के कुलपति और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मध्याह्न भोजन हेतु आमंत्रित किया गया। तत्पश्चात वापस गुवाहाटी के लिए उड़ान भरने से पहले वे मिओ और तेज़ू तिब्बती आवासों के लगभग ५०० तिब्बतियों से मिले।