थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत - मौसम आज सामान्य था जब परम पावन दलाई लामा अपने निवास से चुगलगखंग तक पैदल आए और चलते हुए शुभचिन्तकों की अभिनन्दन करते रहे।
सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण करने के पश्चात उन्होंने तत्काल ही अवलोकितेश्वर अभिषेक जो वे प्रदान करने वाले थे, की प्रारंभिक प्रक्रिया आरंभ कर दी। जब वे यह कर रहे थे तो लोग मंदिर और उसके चारों ओर एकत्रित हुए और मंत्राचार्य के निरंतर सस्वर पाठ ऊँ मणि पद्मे हुँ में सम्मिलित हुए। परम पावन जो करने वाले थे, उसे उन्होंने समझाया।
"आज मैं १००० भुजाओं तथा १००० चक्षु वाले अवलोकितेश्वर का अभिषेक प्रदान करने जा रहा हूँ। सभी बुद्धों द्वारा अवलोकितेश्वर की स्तुति की जाती है। वह सभी जिनों की करुणा का साकार हैं। जैसा कि चंद्रकीर्ति ने अपने 'मध्यमकावतार' में लिखा है - करुणा प्रारंभ, मध्य और मार्ग के अंत में महत्वपूर्ण है। बुद्धों और बोधिसत्वों के काय, वाक् और चित्त उन चित्तों पर आधारित हैं जिनके मूल में करुणा है। सबसे प्रथम सभी बुद्धों ने बोधिचित्तोत्पाद किया था, जो कि उनके करुणाशील साहसी हृदय पर आधारित था। दूसरों की सेवा करते हुए वे अपने स्वयं के प्रयोजनों को पूरा करते हैं - क्योंकि उनमें करुणा है।
"हम तिब्बती अपने आप को अवलोकितेश्वर के लोग कहकर संबोधित करते हैं और इसी तरह हम चीनियों को मंजुश्री द्वारा आशीर्वचित मानते हैं। परन्तु हम अब तक स्वार्थी ही रहे हैं, आत्म- पोषण की प्रवृत्ति से चालित, जिसके परिणामस्वरूप हमारी अपनी इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाए हैं। उस व्यवहार को दूसरों के प्रति चिंता के व्यवहार में परिवर्तित कर और प्रज्ञा का विकास कर हम दूसरों के और अपने दुःखों पर काबू पा सकते हैं। प्रज्ञा - पारमिता का एक भाष्य कहता है कि बोधिसत्व दूसरों की सहायता करने के लिए उन पर और प्रबुद्धता पर ध्यान देते हैं।
"अवलोकितेश्वर तिब्बतियों की देख रेख करते हैं, पर उदाहरण के लिए यदि हम अपने आप को क्रोध से भस्म होने देते हैं तो हम उस देखरेख का विरोध करते हैं।
"१००० भुजाओं और १००० चक्षुओं वाले अवलोकितेश्वर का यह अभ्यास भिक्षुणी लक्ष्मी की वंशावली से आता है। एक बालक के रूप में सबसे पहले मुझे यह तगडग रिनपोछे से प्राप्त हुआ। बाद में जब मैं डोमो में था तो मैंने पुनः इसे क्यब्जे लिंग रिनपोछे से प्राप्त किया क्योंकि मुझे इसे प्रदान करने के लिए कहा गया था। मैंने आवश्यक तैयारी की और विधिवत इसे दिया। तब से मैंने अभ्यास और मंत्रों का पाठ बनाए रखा है।
"विश्व की इतनी पीड़ा मात्र धन और शक्ति की सहायता से परे है। हमें जिसकी आवश्यकता है वह करुणा और बुद्धि है, यद्यपि उसका भी दुरुपयोग किया जा सकता है। सही अर्थों में दूसरों की सहायता करने के लिए हमें करुणा से प्रेरित होने की आवश्यकता है।"
प्रारंभिक प्रार्थनाओं के लघु व सरल सस्वर पाठ हुए जिसके बाद परम पावन ने, जैसा कि कल उन्होंने वादा किया था, जे चोंखापा के 'मार्ग के तीन प्रमुख आकार’ का पाठ किया। उन्होंने समझाया कि इसकी रचना जे रिनपोछे ने अपने निकट शिष्य छाखो ङवंग डगपा के एक पत्र के उत्तर में किया था। उन्होंने उनसे कहा, 'मैंने जो शिक्षा दी उसका भली भांति अभ्यास करो। जब मैं विश्व में बुद्धत्व प्रकट करूँ तो तुम मेरे प्रथम शिष्य होंगे।
परम पावन ने टिप्पणी की, कि ग्रंथ में वर्णित अवकाश और अवसरों को भली तरह उपयोग में लाना, ऐसे आचरण का विकास करना जिससे सद्गति प्राप्त हो, उसे अन्य धार्मिक परंपराओं से भी जोड़ा जा सकता है। मार्ग के तीन प्रमुख अ में से प्रथम है भव चक्र से मुक्त होने का संकल्प। सत्व इस स्थिति में बाध्य हैं क्योंकि वे यथार्थ के प्रति अज्ञानी हैं । वे भ्रांत धारणा के अधीन हैं कि वस्तुएँ स्वतंत्र अस्तित्व रखती हैं । परिणामस्वरूप वे असीम भव चक्र में बार बार जन्म लेते हैं।
मार्ग के प्रमुख अाकारों में से दूसरा है बोधिचित्त, 'सभी सत्वों, अपनी मांओं, जो निरन्तर तीन दुःखों से पीड़ित हैं' की सहायता करने हेतु बुद्धत्व प्राप्त करने की इच्छा। यद्यपि आपने मुक्त होने के दृढ़ संकल्प और बोधिचित्त के विकास का संकल्प कर लिया हो, यह भव चक्र अस्तित्व के मूल को काटने के लिए अपर्याप्त है। ऐसा करने के लिए प्रज्ञा आवश्यक है। अतः परम पावन ने समझाया कि आपको मुक्ति के उचित और वैध समझ की आवश्यकता है। स्वतंत्र सत्ता के अस्तित्व की ग्राह्यता एक विकृत दृष्टिकोण है, पर इस पर काबू पाया जा सकता है और दुःख का अंत किया जा सकता है।
यह प्रतीत्य समुत्पाद की समझ है जो सत्वों के दुर्भाग्य का अंत करती है, क्योंकि उनका स्रोत अज्ञान है। चूँकि वे प्रतीत्य समुत्पदित हैं अतः वस्तुओं का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। ग्रंथ में आता है कि जब प्रतीत्य समुत्पाद और स्वतंत्र अस्तित्व की शून्यता की अनुभूति साथ- साथ और समवर्ती होती है, तो गहन दृष्टिकोण का विश्लेषण पूर्ण हो जाता है। परम पावन ने टिप्पणी की, कि ग्रंथ की रचना लोबसंग डगपा द्वारा की गई थी ऐसा भिक्षु जो बुद्ध की देशनाओं में निपुण था।
तत्पश्चात परम पावन ने अवलोकितेश्वर अभिषेक प्रदान करने की प्रक्रिया प्रारंभ की, जो बाधाओं को दूर करने की प्रक्रिया से प्रारंभ हुई। अनुष्ठान के दौरान उन्होंने साधारण लोग, जो लेना चाहते थे उन्हें उपासक और उपासिका के संवर प्रदान किए और उनका पहले बोधिचित्तोत्पाद और उसके बाद बोधिसत्व संवर के हेतु नेतृत्व किया। अंत में उन्होंने कहा कि अभिषेक अभ्यास के लिए अधिकार प्रदान करने जैसा है। उन्होंने बुद्ध, मंजुश्री, आर्य तारा और हयग्रीव मंत्र भी प्रदान करते हुए संस्कार संपन्न किया।
उन्होंने अपने श्रोताओं को अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया और उन्हें बताया कि मध्यमक दृष्टिकोण के तीन विश्वसनीय ग्रंथ हैं: नागार्जुन की 'मूल मध्यम कारिका', आर्यादेव का 'चतुश्शतक' और चंद्रकीर्ति का 'मध्यमकावतार'। बोधिचित्त के विकास का स्पष्ट ग्रंथ शांतिदेव का 'बोधिसत्वचर्यावतार' है। उन्होंने कहा कि ये ग्रंथ भोट भाषा और चीनी में उपलब्ध हैं। वे अंग्रेजी में भी उपलब्ध हैं।
अंत में परम पावन ने अपने चारों ओर मंदिर की मूर्तियों का परिचय दिया।
"बुद्ध शाक्यमुनि की इस बहुमूल्य प्रतिमा का निर्माण यहाँ धर्मशाला में हमारे निर्वासन में आने के बाद हुआ। जब तिब्बत में गड़बड़ी प्रारंभ हुई तो एक प्रतिष्ठित ञिङमा लामा जमयंग खेनचे छोकी लोडो, खम से ल्हासा सरकार को सलाह देने व अनुरोध करने आए कि 'गुरू नंगसी सिलनोन' नाम की गुरु रिनपोछे की एक मूर्ति जोखंग में स्थापित की जाए। कई कारणों से तिब्बती अधिकारियों ने ऐसा नहीं करने का निर्णय लिया, अपितु उसके स्थान पर एक 'गुरु ज्ञगरमा' मूर्ति की स्थापना की। जब खेनचे रिनपोछे ने इस के विषय में सुना तो कहा जाता है कि उन्होंने गहरी सांस भरते हुए कहा कि, 'कम से कम परम पावन दलाई लामा और उनके कुछ सहयात्री भारत पहुँच सकते हैं'। इस चूक पर पश्चाताप के रूप में मैंने इस 'गुरु नंगसी सिलनोन' की प्रतिमा को यहाँ स्थापित करने का निश्चय किया।
१००० भुजाओं वाले अवलोकितेश्वर प्रतिमा के निर्माण के संबंध में उन्होंने उल्लेख किया कि जब ल्हासा के जोखंग में इसी तरह की एक प्रतिमा को नष्ट कर दिया गया, तो उसके कुछ अवशेष यहाँ भारत लाए गए और उन्हें वर्तमान मूर्ति में शामिल कर लिया गया।
परम पावन ने निर्वासन के प्रारंभिक दिनों में देखे एक स्वप्न का उल्लेख किया जिसमें उन्होने तिब्बत की एक प्रसिद्ध चेनेरेज़िग मूर्ति देखी जिसके सोंगचेन गमपो के साथ ऐतिहासिक संबंध थे। इस मूर्ति ने उनकी ओर संकेत किया और और उन्होंने उसे गले लगाने का स्मरण किया और आर्य मैत्रेय प्रणिधान राज से एक श्लोक से उसे न त्यागने की प्रेरणा लीः
वीर्य आरम्भ करते वीर्य से
स्थिरता, उत्साह और निरालस्य हो,
काय व चित्त शक्ति से भर
वीर्य पारमिता को प्राप्त करूँ।