बोधगया, बिहार, भारत - आज प्रातः कालचक्र आत्म-सर्जन तथा प्रारंभिक अनुष्ठान के अंत तक रेत मंडल का निर्माण पूरा हो गया था। ठोमथोग रिनपोछे, जो आधिकारिक वज्राचार्य थे, ने मंडल परिधि के चारों ओर दस कील तथा जल के दस कलश रखे जिनका उपयोग अभिषेक में किया जाएगा।
मध्याह्न भोजनोपरांत कालचक्र मंदिर में लौटकर परम पावन प्रत्येक दिशा में लोगों की ओर देखने और हाथ हिलाकर अभिनन्दन करने मंच के किनारों तक आए। सिंहासन पर खड़े होकर, जहाँ पीछे के और अधिक लोग उन्हें देख सकते थे, उन्होंने पुनः हाथ हिलाकर अभिनन्दन किया। एक बार जब उन्होंने अपना आसन ग्रहण कर लिया तो स्कूली बच्चों के समूह, जिन्होंने कुछ दिनों पूर्व संस्कृत में 'हृदय सूत्र' के अपने आकर्षक सस्वर पाठ से दर्शकों का हृदय जीत लिया था, फिर से पाठ किया। तत्पश्चात एक मिश्रित वियतनामी, समूह ने पाठ किया जिनमें से कई, परम पावन ने कहा, "हमारी तरह शरणार्थी हैं।"
उन्होंने टिप्पणी की, कि बुद्ध की शिक्षाओं का प्रसार सम्पूर्ण एशिया में हुआ था पर इसके बावजूद बौद्ध समुदायों के बीच अपेक्षाकृत कम सम्पर्क था। अब भेंट करना और एक दूसरे को जान पाना सरल हो गया है।
"बर्मा, थाईलैंड और श्रीलंका के बौद्धों के साथ हमारे विनय आम हैं, और वे लोग जो संस्कृत परम्परा का अनुपालन करते हैं, चीनी, कोरियाई, जापानी और वियतनामी हम उनके साथ प्रज्ञा-पारमिता की शिक्षाएँ साझा करते हैं। एक ही शिक्षक के अनुयायी होने के नाते हमें अपने अनुभवों को साझा करना व तुलना करनी चाहिए। यद्यपि मैंने चीन में कई शहरों की यात्रा की थी और सम्माननीय वृद्ध भिक्षुओं से भेंट की, पर यह १९६० का दशक था कि मैंने प्रथम बार सिंगापुर में चीनी भाषा में 'हृदय सूत्र' सुना।"
'भावनाक्रम' में कार्य कारण की चर्चा का स्मरण करते हुए परम पावन ने उल्लेख किया कि प्रबुद्धता की प्राप्ति तथा रूप और धर्म काय की प्राप्ति पुण्य व प्रज्ञा संभार पर निर्भर करती है। प्रज्ञा में नैरात्म्य की एक समझ शामिल है, जिसमें विश्वास और ध्यान में अनुभव को सशक्त करने की शिक्षा व चिन्तन शामिल है। 'बोधिसत्चचर्यावतार' की ओर लौटते हुए, उन्होंने अपने श्रोताओं को स्मरण कराया कि ध्यान से संबंधित जिस अध्याय का वे पठन कर रहे थे, में आत्म - पोषित व्यवहार की बुराइयों की चर्चा की गई है। यह संक्षेप में बताता है कि आत्म - पोषित व्यवहार मात्र संकट लाता है। इस के प्रतिकार का एक रास्ता यह है कि परोपकारिता के विकास के लिए अपने आप को समर्पित कर दें।
अध्याय आठ के अंत तक द्रुत गति से पढ़ते हुए परम पावन नवें अध्याय को शीघ्रता से पढ़ने लगे - अध्याय नौ - प्रज्ञा पारमिता, जो मध्यमक या मध्यम परिप्रेक्ष्य से विभिन्न बौद्ध और अबौद्ध परम्पराओं के दृष्टिकोणों का एक सर्वेक्षण और विचारों का खंडन प्रस्तुत करता है। यह इस अवलोकन से प्रारंभ होता है कि दुःख अज्ञान में निहित है और योगियों के दृष्टिकोण, वे जो वास्तविकता की समझ को चित्त से जोड़ते हैं और साधारण लोग जो काम में आ रही वस्तुओं की धारणा को सच्चा अस्तित्व रखता हुआ मानते हैं।
नवें अध्याय को समाप्त करने के पश्चात परम पावन ने अपना ध्यान शेष रहे 'भावना क्रम' की ओर उन्मुख किया। उन्होंने, किस तरह प्रज्ञा और उपाय के उचित क्रम के उपयोग से मार्ग पर विकास किया जा सकता है, के एक महत्वपूर्ण मूल्यांकन देने के लिए ग्रंथ की सराहना की। उन्होंने कहा कि 'भावना क्रम' के तीन खंडों की पहली, और यह दूसरा खंड है, पुष्पिका में कहा गया है कि इसकी रचना के लिए विशेष रूप से तिब्बती सम्राट ठिसोंग देचेन ने अनुरोध किया था।
दोनों ग्रंथों के अपने संचरण को पूरा करने के लिए - जिसका अर्थ है सम्पूर्ण ग्रंथ का पठन, जैसा उनके लिए ऐसे व्यक्ति द्वारा पढ़ा गया था जो कि जीवंत वंशज जो कि इसके लेखक तक जाता है, में शामिल होते हुए, परम पावन ने 'बोधिसत्चचर्यावतार' से दसवां अध्याय पढ़ा।
४४ वें श्लोक की प्रथम पंक्ति कि "भिक्षुणियों को पर्याप्त लाभ हो...." ने परम पावन को यह समझाने के लिए प्रेरित किया कि जहाँ पूर्ण प्रव्रजित भिक्षुणियों की एक जीवंत परम्परा का होना आवश्यक है, पर ऐसी वंशावली को नूतन सिरे से स्थापित करने के लिए विनयाचार्यों के बीच आम सहमति की आवश्यकता है।
"हमें उचित प्रक्रिया का पालन करना होगा। हम एक विशुद्ध और निर्विवाद संवर प्रदान करने हेतु मार्ग खोजना होगा। अब तक हम आवश्यक आम सहमति प्राप्त करने में सफल नहीं हुए हैं, जिसका फैसला किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं किया जा सकता।
"मैं जो करने में सक्षम हुआ हूँ, वह भिक्षुणियों को अध्ययन के लिए प्रोत्साहित करना है। वे लगभग बीस वर्षों से यह कर चुकी हैं और हमने हाल ही में प्रथम बीस भिक्षुणियों जिन्होंने गेशे मा की उपाधि की योग्यता प्राप्त की है, को सम्मानित करने के लिए दक्षिण भारत में एक भव्य समारोह का आयोजन किया। वे कहाँ हैं? क्या वे यहाँ है?
"मैंने सुना है वियतनाम में भिक्षुणी प्रव्रज्या देने की एक जीवंत परम्परा है, परन्तु कुछ चीनी उपाध्यायों ने इसको लेकर शंका व्यक्त की है। इसका समाधान किया जाना बाकी है। इस बीच, मुझे विश्वास है कि भविष्य में और अधिक गेशे मा होंगी।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि बुद्ध की देशनाओं को समझने के लिए बुद्धि की आवश्यकता होती है, और यही कारण है कि परिणामना अध्याय में मंजुश्री को उद्बोधित किया गया है। उन्होंने श्रोताओं को आम मंजुश्री प्रार्थना का जाप, जो 'गंग-लो-मा' नाम से जाना जाता है, जो इस तरह प्रारंभ होता है, 'आप, जिस की बुद्धि सूर्य सम आलोकित है, ...' और प्रत्येक दिन मंजुश्री मंत्र की एक माला जपने के लिए कहा।
'बोधिसत्चचर्यावतार' की पुष्पिका पढ़ते हुए - भोट भाषा में ग्रंथ का अनुवाद, संपादन, और अंतिम रूप भारतीय विद्वान सर्वज्ञदेव तथा भिक्षु, अनुवादक और सम्पादक कावा पलचेक द्वारा किया गया। बाद में इसका संशोधन भारतीय विद्वान धर्मश्रीभद्र और तिब्बती भिक्षु, अनुवाद और संपादक, रिनछेन संगपो और शाक्य लोड़ो द्वारा किया गया। इसके बाद पुनः भारतीय विद्वान सुमतिकीर्ति और भिक्षु, अनुवादक, संपादक और ङोग लोदेन शेरब ने इसका संशोधन किया और अंतिम रूप दिया, जिसने परम पावन को टिप्पणी करने के लिए प्रेरित किया कि यह शांतरक्षित का तिब्बत के लिए एक और उपहार था, कि उन्होंने आग्रह किया कि भोट भाषा में भारतीय बौद्ध साहित्य का अनुवाद भारतीयों और तिब्बतियों के साथ साथ काम करते हुए किया जाना चाहिए। परिणाम यह हुआ कि जिस अनुवाद की प्रशंसा आज कई विद्वान करते हैं उसकी गुणवत्ता की तुलना संस्कृत मूल से की जाती है।
"मैंने इन दोनों ग्रंथों का संचरण दिया है," परम पावन ने कहा, "आप के पास पुस्तक है, अपने साथ रखें और बार बार पढ़ें। इसके साथ प्रारंभिक प्रवचन समाप्त होते हैं। कल एक अंतराल के बाद हम अगले दिन अभिषेक प्रारंभ करेंगे जिसमें मंडल प्रवेश और एकादश कलशाभिषेक तथा उच्च उच्चतर अभिषेक शामिल होंगे। मैंने अंत में एक दीर्घायु अभिषेक प्रदान करने के संबंध में सोचा था, पर मैंने उसके स्थान पर अवलोकितेश्वर अनुज्ञा देने का निश्चय किया है।"
सिंहासन छोड़ने से पहले, परम पावन ने यहाँ एक साथ होने का लाभ उठाते हुए एक दूसरे को और सार्वभौमिक भावना से अच्छी तरह जानने के लाभ के महत्व की बात की। उन्होंने कहा कि अतीत में इस तरह के अवसर दुर्लभ थे, पर आज सरलता से प्राप्त किए जा सकते हैं। उन्होंने ज़ोर देते हुए कहा कि दोलज्ञल लोगों की चेतावनी कि यदि गेलुगपा अपने घरों में एक भी ञिङमा ग्रंथ रखेंगे तो ज्ञलपो दोलज्ञल उन्हें सजा देंगे, में कोई सार्थकता नहीं है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि सभी तिब्बती बौद्ध परम्पराओं के मूल में नालंदा परम्परा है और उन के मध्य सद्भाव और मैत्री की स्थापना के लिए प्रोत्साहित किया।