बोधगया, बिहार, भारत - आज प्रातः परम पावन दलाई लामा पुनः कालचक्र अभिषेक की प्रारंभिक तैयारियों में सम्मिलित हुए। रेत मंडल का निर्माण द्रुत गति से हो रहा है। कई धुंध से भरे दिनों के उपरांत आज सूर्य बाहर निकला।
८५ देशों से अनुमानतः १००,००० लोग अब तक कालचक्र अभिषेक के लिए यहाँ पहुँच चुके हैं। अन्य लोगों का आना निरंतर बना हुआ है। जब परम पावन सिंहासन पर खड़े हुए और अपना आसन ग्रहण करने से पूर्व उन्होंने अपने बाएँ, दाएँ और अपने समक्ष उपस्थित जनमानस की ओर देख अभिनन्दन में हाथ हिलाया। उन्होंने घोषणा की कि सर्वप्रथम थेरवाद भिक्षु पालि में मङ्गल सुत्त का सस्वर पाठ करेंगे। उसके उपरांत स्थानीय स्कूली बच्चों के एक समूह ने बड़े ही मोहक रूप में 'हृदय सूत्र' का संस्कृत में पाठ किया। उन्होंने परम पावन को बताया कि उन्हें इसे कंठस्थ करने में एक महीने का समय लग गया था।
परम पावन ने उल्लेख किया कि पालि परम्परा बुद्ध की शिक्षाओं का आधार है और उनके मन में संघराज के प्रति सम्मान का स्मरण किया जिनसे उनकी थाईलैंड में भेंट हुई थी। संस्कृत परम्परा के संबंध में उन्होंने टिप्पणी की, कि यह पहले चीन में विस्तृत हुई और वहाँ से वियतनाम, कोरिया और जापान में फैली। संचरण का एक और अंश तिब्बत गया और वहाँ से भीतरी और बाहरी मंगोलिया और बुर्यातिया, कलमिकिया और थुवा के रूसी गणराज्य पहुँचा।
पालि परम्परा बुद्ध की सभी देशनाओं का आधार है, पर मात्र संस्कृत परम्परा कारण और तर्क का उपयोग करता है। यद्यपि तिब्बती कुछ सीमा तक संस्कृत का अध्ययन करते हैं, जैसा कि परम पावन ने अपने मुख्य शिक्षक लिंग रिनपोछे के साथ किया था, पर वे और अधिक सरलता से स्वभाषा - भोट भाषा में अध्ययन कर सकते हैं। यह आचार्य शांतरक्षित की कृपा थी, जिन्होंने प्रथम सात तिब्बती भिक्षुओं को प्रव्रजित करने के अतिरिक्त भारतीय बौद्ध साहित्य को भोट भाषा में अनुवाद करने का सुझाव तथा प्रोत्साहन दिया।
जैसे मानो यह बात सिद्ध करनी थी कि, 'हृदय सूत्र' का भोट भाषा में सस्वर पाठ हुआ। परम पावन ने टिप्पणी की, कि प्रज्ञा पारमिता सूत्र की विस्तृत, मध्यम और लघु मातृकाएँ हैं। उनका स्पष्ट विषय शून्यता को समझने वाली प्रज्ञा है जिसको नागार्जुन ने अपने ग्रंथों में सविस्तार समझाया। उनके अंतर्निहित विषय कि मार्ग पर किस तरह विकास किया जाए, को मैत्रेय के 'अभिसमयालंकार' में और हरिभद्र के भाष्य ‘स्फुटार्थ’ में सविस्तार वर्णित हैं।
खेनपो सोनम तेनफेल और अनुभवी तिब्बती चिकित्सक डॉ येशे दोनदेन द्वारा मंडल और बुद्ध के काय वाक् और चित्त के तीन प्रतीकों के समर्पण प्रस्तुत किए गए।
"धर्म को अभ्यास में कार्यान्वित करना महत्वपूर्ण है," परम पावन ने सलाह दी। "हम सभी सुख चाहते हैं, दुःख नहीं और सुख उस समय प्राप्त होता है जब हम चित्त को अनुशासित करते हैं। जैसा मैंने उस दिन कहा कालचक्र अभिषेक प्राप्त करना, आशीर्वाद लाता है पर हमें मार्ग की सामान्य संरचना पर अपने अभ्यास को आधारित करना चाहिए। हम उस के आधार पर तंत्र का अभ्यास कर सकते हैं। तिब्बत में हमने बौद्ध धर्म को सामान्य रूप में लिया, पर हमने इस विषय पर बहुत अधिक सोचा नहीं था। अब हमें २१वीं शताब्दी का बौद्ध होने की आवश्यकता है और इसके संबंध में अधिक जानने की आवश्यकता है।"
परम पावन ने समझाया कि वे शांतिदेव के 'बोधिसत्चर्यावतार' पर प्रवचन देंगे, जो बताता है कि किस तरह दूसरों के साथ परात्मसमता और परात्मपरिवर्तन के व्यवहार का अभ्यास किया जाए, साथ ही प्रज्ञा का अध्याय भी सम्मिलित होगा। वे कमलशील के 'भावनाक्रम' के मध्य खंड पर भी प्रवचन देंगे।
"मैंने यहाँ बोधगया में 'बोधिसत्चर्यावतार' का पठन संचरण खुनु लामा रिनपोछे तेनजिन ज्ञलछेन से और 'भावनाक्रम' का संचरण सक्या उपाध्याय संज्ञे तेनजिन से प्राप्त किया। संज्ञे तेनजिन ने उन्हें बताया कि उन्होंने इसे एक लामा से सुना जब वे सम्ये की तीर्थ यात्रा पर थे, जो उस सिंहासन पर बैठे जिस पर शांतरक्षित बैठे थे। इन शिक्षाओं के आधार पर चित्त का परिवर्तन उनके बार बार पठन और चिन्तन पर आधारित है। यही कारण है कि मैंने आयोजकों से इन पुस्तकों की प्रतियां प्रदान करने को कहा।"
परम पावन ने जनमानस को याद दिलाया कि आज जीवित सभी ७ अरब मनुष्यों का जन्म एक ही समान हुआ था और वे उसी तरह मरेंगे। हम सभी नकारात्मक भावनाओं से प्रभावित होते हैं और हम सभी को प्रेम और करुणा को विकसित करने की आवश्यकता है, क्योंकि हम सभी सुख चाहते हैं। उन्होंने बल देते हुए कहा कि आप सुखी हैं या दुखी, यह इस पर निर्भर करता है कि क्या आपने अपने चित्त को अनुशासित किया है। यही है जो बौद्ध धर्म को अन्य धार्मिक परम्पराओं से अलग करता है।
उन्होंने कहा है कि विश्व में जिन कई समस्याओं का सामना हम कर रहे हैं, वे हमारी अपनी बनाई हुई हैं क्योंकि हम राष्ट्रीयता, जाति, धर्म, सामाजिक पृष्ठभूमि इत्यादि के विभाजन को रेखांकित करने पर जोर देते हैं। उन्होंने स्वीकार किया, कि ये अंतर अस्तित्व रखते हैं पर उनका महत्व गौण है। उन्होंने कहा कि हमें एक निष्पक्ष करुणा भावना के विकास की आवश्यकता है, जो मोह से प्रभावित नहीं हो और जो यह देखने में सक्षम हो कि हमारे वैरी भी सुख का अधिकार रखते हैं।
"इन दिनों शिक्षा भौतिक लक्ष्यों पर केंद्रित जान पड़ती है। हम संगीत या अच्छी चीजों को देखने, स्वाद और स्पर्श में ऐन्द्रिक संतोष देखना चाहते हैं। हम किसी खेल देखने में आनंद ले सकते हैं, पर एक बार वह समाप्त हो गया तो आनन्द समाप्त हो जाता है। हमें वास्तव में जिस की आवश्यकता है, वह ऐसा सुख है जो चित्त की शक्ति में निहित हो। इसे प्राप्त करने हेतु हमें चित्त तथा भावनाओं के कार्य के समझ की आवश्यकता है जिसे हम प्राचीन भारतीय ज्ञान में खोज सकते हैं। दुःख एक अनियंत्रित चित्त के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है और इसे नियंत्रित करने का एक उपाय प्रेम व करुणा का विकास है।"
परम पावन ने, जो वे प्रायः कहते हैं उसे दोहराया, कि वह स्वयं को केवल ७ अरब मनुष्यों के बीच एक मानते हैं। उन्होंने कहा कि स्वयं को विशेष मानना अपने आप को अलग रखना है, एक तरह की दीवार खड़ी करना है जो आपको केवल अकेला छोड़ेगी। दूसरी ओर, यदि आप मुस्कुराएँ तो अन्य उस मुस्कुराहट का उत्तर देते हैं।
"एक बौद्ध भिक्षु के रूप में," परम पावन ने टिप्पणी की, "मैं अपने स्वप्न में भी स्मरण करता हूँ कि मैं एक भिक्षु हूँ। शिक्षाओं के अभ्यास ने मुझे सहायता दी है और मेरा विश्वास है कि यदि लोग इसको लेकर गंभीर हों, तो वे वास्तव में अपने आध्यात्मिक अभ्यास से लाभान्वित हो सकते हैं। विभिन्न दार्शनिक विभिन्नताओं के बावजूद सभी धार्मिक परम्पराएँ प्रेम और करुणा के विकास के महत्व के बारे में एक आम संदेश संप्रेषित करती हैं। और भारत में हम धार्मिक परम्पराओं को सद्भाव से एक दूसरे के साथ रहने की एक दीर्घकालीन परम्परा पाते हैं।
"एक तिब्बती के रूप में, यद्यपि मैं २०११ में राजनीतिक मामलों से सेवानिवृत्त हो गया हूँ, पर मैं तिब्बत की भाषा, धर्म और संस्कृति को जीवित रखने के साथ-साथ देश के प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर चिंतित हूँ। आज, भोट भाषा बौद्ध दर्शन की बारीकियों को ठीक ढंग से प्रतिपादन करने सर्वश्रेष्ठ अनुकूल माध्यम है।"
जब उन्होंने 'भावना क्रम' से पढ़ना प्रारंभ किया तो परम पावन ने स्मरण किया कि सोङ्चेन गमपो के समय से ही बौद्ध धर्म के साथ संपर्क प्रारंभ हो चुका था पर ये ठिसोंग देचेन थे जिन्होंने शांतरक्षित को तिब्बत आने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने तत्काल हामी भर दी। बौद्ध धर्म के स्थापनार्थ बाधाओं को दूर करने के लिए गुरु पद्मसंभव को चुना गया, एक ऐसी परियोजना, जिसमें सभी तीन - उपाध्याय, सिद्ध व सम्राट शामिल थे।
सम्ये महाविहार ने ध्यान, अनुवाद इत्यादि के विभाग शामिल किए। ध्यान विभाग में चीनी भिक्षु थे, जो बल देते थे कि आप अध्ययन या शिक्षाओं के विश्लेषण की आवश्यकता के बिना गैर धारणात्मक ध्यान द्वारा प्रबुद्धता प्राप्त कर सकते थे। कमलशील को इस विचार को चुनौती देने के लिए आमंत्रित किया गया और परिणामस्वरूप उन्होंने तिब्बत में 'भावना क्रम' की रचना की। परम पावन ने घोषणा की, कि कुछ व्याख्याओं के अतिरिक्त जिन दो ग्रंथों का वे पाठ कर रहे हैं वे उनका सम्पूर्ण पठन संचरण देना चाहते हैं।
उन्होंने देशनाओं की प्रस्तुति के ढंग को बताया जिसमें सर्वप्रथम सत्य द्वय की व्याख्या है। चार आर्य सत्य की व्याख्या उन पर आधारित होकर की जाती है और उनकी सराहना करना त्रिरत्न में शरण लेने के लिए समर्थन प्रदान करता है।
परम पावन ने अध्याय नौ, प्रज्ञा अध्याय के प्रारंभिक श्लोक पढ़ने से पूर्व जो स्पष्ट करते हैं कि जो प्रबुद्धता की प्राप्ति की ओर ले जाता है वह सत्य द्वय है, 'बोधिसत्वचर्यावतार' के पहले श्लोक पढ़े। इसका कारण है कि प्रबुद्धता के मार्ग में मुख्य रोड़ा वास्तविक अस्तित्व के विषय में भ्रांत धारणा है। यह समझ कि वस्तुएँ जिस तरह से दिखाई देती हैं उस रूप में अस्तित्व नहीं रखतीं इसे दुर्बल कर देती हैं।
उन्होंने 'भव चक्र' के चित्रित रूप का उल्लेख किया, जो प्रायः मंदिर के बरामदे में पाया जाता है, और केंद्र में अज्ञानता, कामना और घृणा का एक सुअर, मुर्गे और सर्प के रूप में चित्रण का उल्लेख किया। बाहरी परिधि के आसपास प्रतीत्य समुत्पाद के द्वादशांग हैं, जो अज्ञानता के साथ प्रारंभ होता है, जिसे एक नेत्रहीन व्यक्ति के रूप में चित्रित किया जाता है। वे मन्द स्वर में खिलखिलाए और सुझाया कि यदि मंदिर के रखवाले इन बातों की व्याख्या करने में सक्षम हों तो यह कितना सहायक होगा।
"वस्तुएँ जिस रूप में दिखाई देती हैं, उस रूप में अस्तित्व नहीं रखतीं - चित्त को इससे परिचित कराएँ।"
परम पावन पुनः प्रथम अध्याय की ओर लौटे और कहा कि यदि आप बोधिचित्त और शून्यता की समझ को विकसित कर लें तो अपने अगले जीवन में एक अच्छा पुनर्जन्म सुनिश्चित कर सकते हैं। उन्होंने अध्याय आठ से एक श्लोक उद्धृत किया:
यदि अपने वास्तव में अपने सुख का
दूसरों के दुःख के साथ परिवर्तन नहीं करते
तो न केवल आप बुद्धत्व सिद्ध न कर पाएँगे
पर भव चक्र में भी आपको कोई सुख न मिलेगा
उनकी अंतिम टिप्पणी थी:
"पुस्तक पढ़ें। जो यह कहता है उस पर चिन्तन करें और अपने जीवन में व्यवहृत करें। क्या आप मुझ से सहमत हैं?"
प्रवचन कल जारी रहेगा।