राजगीर, बिहार, भारत - कल प्रातः जब नभ पर वर्षा के बादल छाए हुए थे परम पावन दलाई लामा ने धर्मशाला से प्रस्थान किया। गया हवाई अड्डे आगमन पर बिहार राज्य सरकार के प्रतिनिधियों ने उनका स्वागत किया। शीघ्र भोजन करने के बाद, वह गाड़ी से राजगीर के लिए रवाना हुए जहाँ उन्होंने अपनी गाड़ी गृद्धकूट की ओर जाती पहाड़ी के नीचे रोकी। यहीं पर बुद्ध शाक्यमुनि ने द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन किया था जब उन्होंने प्रज्ञा-पारमिता की व्याख्या की। परम पावन उस पवित्र स्थल की ओर उन्मुख होकर कुछ क्षण मौन चिन्तन में बने रहे।
आज प्रातः नालंदा इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर, जिसे एक स्तूप के आकार में बनाया गया है, की यात्रा छोटी थी। १३०० से अधिक भारतीय और विदेशी प्रतिनिधि एकत्र हुए थे, जो आतुरता से २१वीं सदी में बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता पर एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन में परम पावन की प्रतीभागिता की प्रतीक्षा कर रहे थे।
अपने उद्घाटन संबोधन में, श्री एन.के. सिन्हा, सचिव, भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय, ने सभी लोगों का स्वागत किया। श्री एम.एल. श्रीवास्तव ने नव नालंदा महाविहार का परिचय दिया जिसकी स्थापना एक शिक्षा केन्द्र के रूप में, विशेष रूप से उन्नत बौद्ध अध्ययनों पर १९५१ में हुई थी। परम पावन ने संस्कृति मंत्रालय द्वारा प्रकाशित देवनागरी लिपि में पालि त्रिपिटक के एक नये मुद्रित संस्करण का विमोचन किया। संस्कृति और पर्यटन मंत्री श्री महेश शर्मा ने अपनी टिप्पणी में ३० से अधिक देशों के बौद्ध नेताओं, भिक्षुओं और विद्वानों का स्वागत किया, जो अपने वर्तमान में सामाजिक रूप से जागरूक बौद्ध धर्म पर चर्चा करने के लिए इस तीन दिवसीय सम्मेलन में एकत्रित हुए थे।
अपने अध्यक्षीय भाषण में, परम पावन दलाई लामा ने मानव जाति के संबंध में अपनी प्राथमिक प्रतिबद्धता से प्रारंभ किया,
"मैं आज जीवित ७ अरब मनुष्यों में से मात्र एक हूँ, जो सभी सुख चाहते हैं और दुख नहीं चाहते। हम सभी एक जैसे हैं, भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक रूप से। कुछ वैज्ञानिकों ने प्रमाणों द्वारा यह बताया है कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है। यह एक बहुत ही आशावान संकेत है और सार्थक है। हम सामाजिक प्राणी हैं। हम सभी का जन्म माँ से हुआ है। यदि शैशव अवस्था में हमें स्नेह प्राप्त न हो तो हम जीवित नहीं रह सकते। इसका धर्म के साथ कोई संबंध नहीं है - यह एक जैविक तथ्य है। चूंकि वैज्ञानिक अनुसंधान से पता चलता है कि निरंतर भय, क्रोध और घृणा हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल करते हैं, चाहे हम धार्मिक हों अथवा न हों, अधिक करुणाशील होना हमारे हित में है।"
धार्मिक सद्भाव के विषय पर परम पावन ने कहा,
"सभी धार्मिक परम्पराएँ हमें प्रेम, करुणा, क्षमा, संतोष और आत्मानुशासन के विषय में बताती हैं। वे सभी प्रेम का एक समान संदेश वहन करते हैं। अतः इन सभी परम्पराओं को एक साथ रहने और एक साथ काम करने में सक्षम होना चाहिए। इन दिनों हम धार्मिक विश्वास के मतभेदों के आधार पर एक संकटग्रस्त संघर्ष देख रहे हैं। यह सोच से परे है कि इस तरह के मतभेद हिंसा की ओर ले जाएँ। यह औषधि के विष बनने की तरह है।"
परम पावन ने १००० से अधिक वर्षों से अधिक भारत में स्थापित की अंतर्धार्मिक सद्भाव के उदाहरण की सराहना की।
"भारत एकमात्र देश है जहाँ विश्व की प्रमुख धार्मिक परम्पराएँ एक साथ रहती हैं। अब भारतीयों को धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने में अधिक सक्रिय होना चाहिए विशेषकर उन स्थानों पर जहाँ धर्म के नाम पर संघर्ष चल रहा है। समय आ गया है कि आप धार्मिक सद्भाव और धर्मनिरपेक्षता के अपने दीर्घकालीन पारम्परिक मूल्यों को साझा करें।
"यह समझाया गया है कि बुद्ध न तो हाथ से पीड़ा दूर कर सकते हैं और न ही इसके स्रोतों को धो सकते हैं। वे हमें यथार्थ की दिशा में इंगित कर सकते हैं। बुद्ध ने दिखाया कि हम किस तरह अपनी विनाशकारी भावनाओं से निपट सकते हैं, प्रार्थना से नहीं अपितु विश्लेषण और ध्यान के माध्यम से। इस संबंध में विशेष अंतर्दृष्टि या विपश्यना ध्यान बहुत प्रभावी है। प्राचीन भारतीय परम्परा यह समझने में समृद्ध है कि किस तरह चित्त को अनुशासित किया जाए और विनाशकारी भावनाओं से निपटा जाए। इस दृष्टिकोण से आज प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान बहुत प्रासंगिक है और हम इसका अध्ययन कर सकते हैं, आवश्यक नहीं कि धार्मिक अभ्यास के एक अंग के रूप में हो, बल्कि एक शैक्षणिक दृष्टिकोण से।"
बौद्ध नेताओं और संघ के सदस्यों के साथ पास के एक तम्बू में भोजन के बाद परम पावन ने संघ के वरिष्ठ थेरों की एक बैठक में भाग लिया। उन्होंने और श्रीलंका के एक अन्य भिक्षु ने बल दिया कि पालि और संस्कृत परम्पराओं के बौद्ध विहारों के समुदायों द्वारा अनुपालित विनय के नियमों में अनिवार्य रूप से कोई अंतर नहीं है। परम पावन सहित बैठक के कई प्रतिभागियों ने इस आवश्यकता पर बल दिया कि पालि और संस्कृत परम्पराओं का पालन कर रहे विभिन्न देशों के बौद्ध अपने अनुभव और समझ को साझा करने के लिए समय समय पर बैठकों का आयोजन करते रहें।
"हमारे बौद्ध भाइयों और बहनों के बीच और अधिक आपसी व्यवहार होना चाहिए। इस बैठक का एक उद्देश्य पालि और संस्कृत परम्पराओं से संबंधित भाइयों और बहनों के बीच नियमित बैठकों की स्थापना करना हो सकता है।"
परम पावन ने कहा है कि बौद्ध धर्म की एक विशिष्टता है कि यह एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाता है।
"कोई अन्य धार्मिक परम्परा इतने स्पष्ट रूप से नहीं कहती कि साधारण विश्वास पर्याप्त नहीं है। बुद्ध ने अपने अनुयायियों को, जो उन्हें बताया उस का परीक्षण करने और उसकी जांच करने के लिए प्रोत्साहित किया। यही कारण है कि आइंस्टीन ने सुझाव दिया कि बौद्ध धर्म आधुनिक विज्ञान को बढ़ा सकता है। वास्तव में आज कई वैज्ञानिक सामान्य रूप से बौद्ध धर्म में रूचि दिखा रहे हैं और विशेषकर मध्यमक दर्शन और बौद्ध चित्त विज्ञान के संबंध में।
"विगत १००० वर्षों में हम तिब्बतियों ने नालंदा परंपरा को जीवित रखा है। अब समय आ गया है कि हम इस ज्ञान को अपने बौद्ध भाइयों और बहनों, अबौद्धों, यहाँ तक कि उनके साथ भी जिनकी कोई धार्मिक आस्था नहीं है, के साथ साझा करें।"
मध्याह्न के सम्पूर्ण सत्र में, परम पावन ने श्रोताओं के बीच बैठकर कई वक्ताओं को सुना। युगांडा बौद्ध केंद्र के संस्थापक और अध्यक्ष श्रद्धेय भंते बुद्धरक्खिता ने संघर्ष और शांति निर्माण पर बात की। समुद्रीय संरक्षण सोसाइटी के कार्यकारी निदेशक लुई सिहोयोस पर्यावरण और प्रकृति संरक्षण पर बोले। थाईलैंड के श्रद्धेय सोंगधम्मकल्यानी ने बौद्ध धर्म में महिलाओं की भूमिका को संबोधित किया। विद्वान और अनुवादक डॉ अलेक्ज़ांडर बर्जिन ने नालंदा परम्परा के बौद्ध अध्ययन के संरक्षण और विकास पर चर्चा की। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, बैंगलोर के प्रोफेसर प्रो शिशिर रॉय ने बौद्ध धर्म और विज्ञान पर बात की। केन्द्रीय तिब्बती अध्ययन विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर ङवांग सामतेन ने धर्म निरपेक्ष नैतिकता को समझाया।
श्रोताओं ने दो शास्त्रार्थ भी देखे। प्रथम तिब्बती आचार्यों द्वारा प्रस्तुत किया गया चित्त की प्रकृति पर था। दूसरा गेशे मा, विदुषी श्रमणेरियों द्वारा किया गया चार आर्य सत्यों के विश्लेषण से संबंधित था।