मुंडगोड, कर्नाटक, भारत, अनुमानतः आठ हजार लोग, जिसमें पूरी तरह से तिब्बती और हिमालयीन प्रदेशों से लोग शामिल थे, आज प्रातः परम पावन दलाई लामा के प्रवचन को सुनने के लिए एकत्रित हुए। गदेन लाची और गदेन शरचे महाविहार दोनों के सभागार भिक्षुओं से भरे हुए थे, जबकि शेष जनमानस को बाहर के प्रांगण में स्थान मिला। विशाल वीडियो प्रदर्शन और लाउडस्पीकरों के टावरों से वे अंदर की गतिविधियों के सम्पर्क में थे।
परम पावन अपने कक्ष से मन्दिर तक सीढ़ियों से आए जहाँ उन्होंने प्रतिमाओं के समक्ष अपना सम्मान व्यक्त किया और सिंहासन पर चढ़ने से पूर्व श्रद्धेय लामाओं का अभिनन्दन किया।
"हमारे नियोजित कार्यक्रम में परिवर्तन हो गया क्योंकि मुझे ठंड लग गई थी," परम पावन ने समझाया "डेपुंग में प्रव्रज्या के उपरांत मैं थक गया था, पर आज, एक दिन के विश्राम के बाद, मैं अच्छा अनुभव कर रहा हूँ।
"गदेन हमारी परम्परा का मूल विहार है, जो जे चोंखापा द्वारा स्थापित किया गया जिसका बहुत सुन्दर वर्णन ज्ञलवा गेंदुन डुब ने अपने 'पूर्व हिम पर्वत के गीत' में किया है।
पूर्व श्वेत हिम पर्वत के शिखर पर
जैसे कि नभ में श्वेत मेघ तैरते हैं।
वे अकस्मात् गुरु का स्मरण कराते हैं
उनकी कृतज्ञता को सोचते सोचते श्रद्धा उत्पन्न होती है।
उमड़ते श्वेत मेघों के पूर्व में
एकान्त गदेन (महाविहार) विजय स्थित है,
वहाँ निवास करते थे अनमोल, जो सुदुर्वचन है
मेरे आध्यात्मिक पिता लोबसंग डगपा तथा उनके दो प्रमुख शिष्य।
मार्ग के दो क्रम के योग आदि।
गम्भीर और उदार धर्म की देशना करते थे,
तिब्बत, हिम भूमि के भाग्यशाली लोगों के लिए,
नाथ आपकी कृतज्ञता अपार है।
"हिम भूमि पर बौद्ध धर्म की सेवा करने में जे रिनपोछे महानतम व्यक्तियों में से एक थे। एक जापानी विद्वान ने एक बार मुझसे कहा कि उन्होंने अनुभव किया कि जे रिनपोछे ने जो लिखा था उसे पढ़कर यह समझा जा सकता था कि वे किस तरह के व्यक्ति थे।
"चूँकि मैं यहाँ गदेन आया हूँ मैंने यह प्रवचन देने का निश्चय किया ताकि मेरी इस यात्रा में कुछ रचनात्मक हो सके।
"जे रिनपोछे के गुरु जेचुन रेदावा ने एक पूरी पीढ़ी को मध्यमक दृष्टिकोण में विशेष रुचि लेने के लिए प्रेरित किया जिसमें जे रिनपोछे भी शामिल थे। रेदावा की व्यापक बुद्धिमत्ता की तुलना अबाधित अंतरिक्ष के साथ की जाती थी। अब जब हम जे रिनपोछे के लेखन को उनके द्वारा पठित कई भारतीय टिप्पणियों के आधार पर पढ़ते हैं तो हम उनके विचारों के निरंतर विकास को समझ सकते हैं। इसी तरह गुह्यसमाज पर उनका लेखन स्पष्ट रूप से उनके मोह काय की समझ को स्पष्ट करता है।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि शास्त्रीय ग्रंथों और महान ग्रंथों के अध्ययन की परंपरा सभी तिब्बती बौद्ध परंपराओं में अनुरुपित है, जिनमें से प्रत्येक मीमांसा और तर्कशास्त्र को व्यवहृत करने में भी संलग्न है। उन्होंने टिप्पणी की कि जहाँ नालंदा परम्परा चीन और तिब्बत दोनों में प्रभावशाली थी, दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के तर्क पर प्रमुख लेखन भोट भाषा में उपलब्ध थे, जबकि धर्मकीर्ति के मात्र एक लघु ग्रंथ का चीनी में अनुवाद किया गया था।
प्रारंभिक सक्या विद्वान कुनगा ञिंगपो, डोगोन छोज्ञल फगपा और सक्या पंडित ने तर्क के नियमों तथा प्रकार्यों पर विशेष ध्यान दिया। रेदावा उस परम्परा के उत्तराधिकारी थे। वह कई सुप्रसिद्ध विद्वानों में से थे, जिन्होंने जे रिनपोछे को गहन रूप से प्रभावित किया था। एक और थे ल्हो नमखा ज्ञलछेन जिन्होंने उन्हें ज़ोगछेन में निर्देश दिया। परम पावन ने चोंखापा की न केवल कई क्षेत्रों में विद्वत्ता को लेकर पर साथ ही उन्होंने जो सीखा था उसे अभ्यास में व्यवहृत करने को लेकर सराहना की। अध्ययन और अभ्यास के इस प्रारूप का शिक्षा के तीन केन्द्रों में पालन किया गया जो ल्हासा के इर्द-गिर्द है - गदेन, सेरा और डेपुंग तथा टिशी ल्हुन्पो।
"यहाँ निर्वासन में हमने इस परम्परा को बनाए रखा है और अब भिक्षुणियाँ भी श्रमसाध्य अध्ययन करने लगी हैं। तिब्बत के लोगों का दृढ़ संकल्प प्रोत्साहन के एक निरंतर स्रोत के रूप में कार्य करता है। हमने जिस परम्परा को बनाए रखा है वह नालंदा की विशुद्ध परम्परा है- मैं आप सभी से इसे निरंतर बनाए रखने का आग्रह करता हूँ।
“छखो ङवंग डगपा ने पूर्वी तिब्बत से चोंखापा को लिखा था कि धर्म का अभ्यास किस तरह किया जाए। उत्तर में उन्हें यह 'मार्ग के तीन प्रमुख आकार' और यह आश्वासन प्राप्त हुआ, 'यदि आप मेरे शब्दों का अनुपालन करें तो मैं आपके सभी जीवनों में मार्गदर्शन दूँगा और जब मैं ज्ञान प्रकट करूँगा तो सर्वप्रथम मैं आपको शिक्षा दूँगा।'
"मुझे तगडग रिनपोछे साथ ही लिंग रिनपोछे और ठिजंग रिनपोछे से इस पाठ का संचरण तथा व्याख्या प्राप्त हुआ होगा।"
परम पावन ने समझाया कि यह ग्रंथ मानव जीवन प्राप्त करने की कठिनाई की सराहना और इस जीवन के आकर्षण को दूर करने के महत्व से प्रारंभ होता है। उन्होंने टिप्पणी की कि यह 'गुणों का आधारभूत' के दृष्टिकोण से विभिन्न है, जो अतीश के 'बोधिपथ प्रदीप' की प्रारूपता का और निकटता से पालन करता है।
उन्होंने यह उल्लेख करने हेतु विषयान्तरण किया कि ३ अथवा ४ वर्ष पूर्व कोलंबिया विश्वविद्यालय के एक चीनी विद्वान ने उन्हें बताया कि उन्होंने चीनी ऐतिहासिक दस्तावेजों को खोजा है। वे तीन साम्राज्यों के अस्तित्व -तिब्बती, मंगोलियाई और चीनी को प्रकट करते हैं - साथ ही यह तथ्य भी कि तंग से किंग राजवंश तक - मंचु , जो १३वीं दलाई लामा के समय शासन करते थे - में कहीं कोई उल्लेख नहीं है तिब्बत चीन का एक अंग था। यह भी स्पष्ट है कि शांतरक्षित द्वारा सम्ये महाविहार की स्थापना के लिए सहायता करने के उपरांत अविभाजित एकाग्रता विभाग में चीनी भिक्षु थे। समय रहते शांतरक्षित के शिष्य, कमलशील उनके साथ शास्त्रार्थ करने आए।
११वीं शताब्दी तक राजा जंगछुब ओ तिब्बत में बौद्ध परंपराओं के पतन से इतने अधिक चिंतित थे कि उन्होंने अतीश से उनके पुनरुद्धार के लिए एक ग्रंथ की रचना करने का अनुरोध किया। परिणाम था 'बोधिपथ प्रदीप'। परम पावन ने समझाया कि उस ग्रंथ तथा बाद के आए मार्ग के क्रम ग्रंथ एक गुरु या आध्यात्मिक संरक्षक पर निर्भर होने की आवश्यकता से प्रारंभ होते हैं। परम पावन प्रबल रूप से अनुभव करते हैं कि अब 'अभिसमयालंकार' के दृष्टिकोण का पालन करना अधिक उपयुक्त है, जो सत्य-द्वय, चार आर्य सत्य तथा त्रिरत्न के गुणों के परिचय से प्रारंभ होते हैं।
कार्य कारण के आधार पर चार आर्य सत्यों की देशना दी गई। सभी बौद्ध परम्पराएँ उनकी शिक्षा देती हैं। परन्तु केवल उस समय जब हम तृतीय आर्य सत्य को समझते हैं - निरोध - तभी हम समझना प्रारंभ करेंगे कि बुद्ध की शिक्षा क्या थी। दुःख समुदय की समझ से संबंधित प्रतीत्य समुत्पाद की द्वादश श्रृंखलाएं हैं और प्रथम श्रृखंला अज्ञान है, जो कि यथार्थ की भ्रांत धारणा है। इसका प्रतिकार शून्यता की समझ से किया जा सकता है। जैसा कि आर्यदेव ने अपने 'चतुश्शतक' में समझाते हैं:
सर्वप्रथम अपुण्य को रोको,
तत्पश्चात रोको का विचार;
बाद में सभी प्रकार की दृष्टि रोको।
जो भी यह जानता है वह प्रज्ञावान है।
परम पावन ने ग्रंथ का पठन समाप्त किया, मुक्त होने के दृढ़ संकल्प को विस्तृत रूप से समझाया, बोधिचित्तोत्पाद को विकसित करने के लाभ साथ ही ऐसा न करने की हानि को भी समझाया। उन्होंने संकेतित किया कि जब तक चित्त को बुद्धत्व प्राप्त करने की इच्छा हेतु प्रशिक्षित न करेंगे, तब तक आप उसे प्राप्त नहीं करेंगे। आत्म- पोषण व्यवहार की हानि और दूसरों के लिए चिंता जनित करने के लाभ के बारे में बोलते हुए उन्होंने शांतिदेव को उद्धृत कियाः
इस लोक में जो भी आनन्द है
वे सब अन्य लोगों की सुख की इच्छा से आते हैं,
और इस लोक में जो भी दुख है
वे सब स्व - सुख की इच्छा से आते हैं।
सम्यक् दृष्टि का मूल है कि वस्तुएँ जिस रूप में दृश्य होती हैं उस रूप में उनका अस्तित्व नहीं होता। दृश्य होने के बावजूद वे किसी भी तरह की स्वभाव सत्ता से रहित होती हैं। परम पावन ने ७वें दलाई लामा के अनुभव गीतों में से एक से एक गीत उद्धृत कियाः
जैसे ही एक शरद नभ में मेघ छितरते हैं,
मेरे चित्त की कल्पना में शून्यता से अविभाज्य
सभी अनुभव और धारणाएँ घुल जाती हैं
मैं, अंतरिक्ष का अजन्मा योगी।
ग्रंथ के अंत में आते हुए परम पावन ने अंतिम छंद के पहले के विरोधाभास छंद का स्पष्टीकरण किया,
दृश्य अस्तित्व की अति खंडित करता है,
शून्यता अनस्तित्व की अति खंडित करती है;
प्रासंगिक-माध्यमक का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो इस पर भी बल देते हैं कि वस्तुएँ मात्र नामित रूप में अस्तित्व रखती हैं। उन्होंने टिप्पणी के साथ समाप्त किया कि यह लघु ग्रंथ बुद्ध के शिक्षण का सार प्रस्तुत करता है। उन्होंने अनुशंसा की कि उनके श्रोताओं को इस पर और अध्ययन करना चाहिए विशेष रूप से सावधानीपूर्वक छानबीन करें कि जे रिनपोछे मध्यमक दृष्टिकोण को लेकर क्या कहना चाहते थे।
"मैंने सोचा था कि मैं डेढ़ घंटे तक प्रवचन दूँगा पर अब ढाई घंटे हो चुके हैं। मैं प्रायः लोगों से कहता हूँ कि एक बार जब मैं शुरू कर दूं तो मैं बोलता और बोलता रह सकता हूँ। मैं प्रत्येक को धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने इस अवसर को संभव बनाया है। मेरे सुस्वास्थ्य के लिए आप सभी की प्रार्थना के लिए आप सभी को धन्यवाद देना चाहूंगा।"
परम पावन ने कल दो दिन की सड़क की यात्रा द्वारा बायलाकुप्पे के तिब्बती आवास के लिए मुंडगोड से रवाना होंगे।