सारनाथ, वाराणसी, भारत, केंद्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ, अपने स्थापना दिवस का ५०वाँ वर्षगांठ मना रहा है। कल, परम पावन दलाई लामा ने दिल्ली से वाराणसी के लिए उड़ान भरी और हवाई अड्डे पर कुलपति, गेशे ङवंग समतेन और स्थानीय भारतीय अधिकारियों ने उनका स्वागत किया। जब वे संस्थान के परिसर में पहुँचे तो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सभी वर्तमान छात्र तथा समारोह में सम्मिलित होने के लिए आए पूर्व छात्र उनका अभिनन्दन करने के लिए वहाँ उपस्थित थे।
आज प्रातः नभ धूसर और धूमिल था, पैरों के नीचे की धरती नम थी और हवा में ठंड थी। फिर भी, परम पावन जब संस्थान के मनोरंजन क्षेत्र में बनाए गए विशाल शामियाने में पहुँचे तो वे उनसे मिलने के लिए आए लोगों के साथ ठिठोली और मजाक कर रहे थे।
अपने स्वागत भाषण में, कुलपति ने बताया कि इस कार्यक्रम में परम पावन की उपस्थिति कितनी हर्षदायक थी। उन्होंने विश्व के विभिन्न भागों से आए २५० से अधिक छात्रों का स्वागत किया जो भारतीय दार्शनिक विचार परम्पराएँ और आधुनिक विज्ञान में चित्त पर सम्मेलन और संस्थान की स्वर्ण जयंती के औपचारिक समारोह में भाग लेने आए हैं। उन्होंने कहा कि विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं के बीच संवाद एक पुरानी भारतीय परम्परा है। सुख व शांति की प्राप्ति के लिए चैतसिक रूपांतरण की स्वीकार्य भूमिका के कारण चित्त एक व्यापक रुचि का व्यापक विषय है। उन्होंने आगे कहा कि विगत २० वर्षों में विज्ञान ने भी इसमें रुचि लेना प्रारंभ कर दिया है। इस बीच, केंद्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान की शिक्षा के लिए प्राचीन और आधुनिक उपायों के संयोजन को बढ़ावा देने में निरंतर रुचि है।
इसके पश्चात कुलपति ने परम पावन को अपनी परिचयात्मक टिप्पणी से सम्मेलन का उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किया।
"आदरणीय बहनों और भाइयों," उन्होंने प्रारंभ किया "मेरे लिए इस महत्वपूर्ण बैठक में भाग लेना यह एक महान सम्मान की बात है। यह अभी भी २१वीं शताब्दी का प्रारंभिक भाग है, एक समय जब हम सकारात्मक परिवर्तन की आशा कर सकते हैं। मनुष्य के रूप में हमारे पास अद्भुत बुद्धि है, पर फिर भी हम उसका विनाशकारी रूप से उपयोग करते हैं। हम बल प्रयोग द्वारा समस्याओं को सुलझाने के प्रयास करने की अपनी सदियों पुरानी आदत का पालन करते हैं। नई वास्तविकता के अनुसार जिसमें हम स्वयं को पाते हैं, यह पूरी तरह से तारीख से बाहर है। इस ग्रह के सभी ७ अरब मानव परस्पर आश्रित होकर रहते हैं। हम एक ऐसी वैश्विक अर्थव्यवस्था का अंग हैं जिसने राष्ट्रीय सीमाओं के महत्व को कम कर दिया है। और तो और, हम सभी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के अधीन हैं।
"बल द्वारा अपने मतभेदों को हल करने के प्रयास की बजाए, हमें बात करना चाहिए और संवाद में संलग्न होना चाहिए। यह दुर्बलता का संकेत नहीं अपितु प्रज्ञा का है - एक यथार्थवादी दृष्टिकोण। परमाणु शस्त्रों को रखने से कोई सहायता न मिलेगी क्योंकि यदि उनका उपयोग किया गया तो परिणाम आपसी विनाश होगा जिसमें कोई विजेता बनकर न उभरेगा। इसके बावजूद बहुत अधिक लोग सोचते हैं कि और अधिक शक्तिशाली हथियार इसका उत्तर है। वे सैन्य बजट में अधिक राशि डालते हुए खुश हैं।
"यह किस तरह होता है? ऐसा तब होता है जब हम अपने बुद्धि का ठीक से उपयोग करने में विफल होते हैं; जब हम क्रोध और अन्य विनाशकारी भावनाओं के प्रभाव में आते हैं। यही कारण है कि हमें इस बात पर चर्चा करना होगा कि आज जो युवा हैं वे किस तरह एक अधिक यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ एक करुणाशील चित्त का विकास करें।
"आधुनिक शिक्षा में भौतिक लक्ष्यों का प्रभुत्व है जिसमें आंतरिक मूल्यों के लिए पर्याप्त समय नहीं है। इस बीच, मैं सभी धार्मिक परम्पराओं के प्रति बहुत सम्मान रखता हूँ जो अत्यंत प्रेरणादायी हैं। परन्तु भारतीय परम्पराएँ जिनमें शमथ व विपश्यना के अभ्यास शामिल हैं, में चित्त व भावनाओं के प्रकार्य की विशेष रूप से समृद्ध समझ है। विपश्यना वास्तव में यथार्थ का विश्लेषण है, जबकि शमथ में हमारी मानसिक ऊर्जा पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है। चित्त व भावनाओं के प्रकार्य की व्याख्या धार्मिक साहित्य में मिलती है, पर आज उनका अध्ययन एक शैक्षणिक रूप से किया जा सकता है।
"हम यहाँ सभी मनुष्यों के सुख को सुनिश्चित करने के लिए हैं। मानवता की एकता के संदर्भ में, जब अन्य लोग पीड़ित हैं, तो हम कैसे उदासीन रह सकते हैं? हम बौद्ध सभी सत्वों के कल्याण हेतु प्रार्थना करते हैं, परन्तु केवल एकमात्र प्राणी जिनकी हम वास्तव में सहायता कर सकते हैं, वे हमारे साथी मनुष्य हैं। यहाँ इस बैठक में, हमें मात्र अतीत में रहने की बजाय भविष्य को देखने की आवश्यकता है।"
सम्मेलन के पहले सत्र में की प्रस्तावना में, संचालक, कैलिफोर्निया, सांता बारबरा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर होसे काबेज़न ने केंद्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान के प्रति श्रद्धा व्यक्त की। उन्होंने जिस तरह से तिब्बतियों की कई पीढ़ियों को न केवल शिक्षित किया गया, अपितु उसके मुक्त रूप और आतिथ्य के लिए भी आभार व्यक्त किया, जिसने विदेशी छात्रों का स्वागत किया है।
काबेज़न ने प्रथम प्रस्तुतकर्ता प्रो शुभदा जोशी का परिचय दिया जिन्होने मुंबई विश्वविद्यालय में दर्शन के प्रोफेसर के रूप में चालीस वर्षों से अधिक समय तक दर्शन की शिक्षा दी। उन्होंने भारत की सबसे पुरानी परंपराओं में से एक सांख्य परम्परा के अनुसार चित्त की अवधारणा पर चर्चा की। सांख्य परम्परा एक यथार्थवादी परम्परा है जिनके लिए मात्र भौतिक वस्तु यथार्थ है। वे दुःख को समाप्त करने की इच्छा रखते हैं। वे दो तत्वों, प्रकृति और पुरुष या आत्मा में अंतर करते हैं। सांख्यों के अनुसार, किसी व्यक्ति की शारीरिक, प्राकृतिक या अलौकिक कारणों से उत्पन्न होने वाली पीड़ा को पूर्ण रूप से समाप्त करने के लिए प्रकट, अप्रकट और ज्ञाता का ज्ञान आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, वे योग के अभ्यास के लिए एक दार्शनिक पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं।
परम पावन ने टिप्प्णी की, कि यह स्पष्ट है कि भारत में अबौद्ध परम्पराओं में कई बुद्धिमान आचार्य थे जैसा कि आर्यदेव, दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के लेखन में देखने को मिलता है। भवविवेक ने भी भारतीय विचारों का लगभग एक विश्वकोष बनाया। कबीज़न ने आगे कहा कि विनय में बौद्ध भिक्षुओं के लिए यह नियम था कि उन्हें बौद्ध परंपराओं के बाहर अध्ययन में अपने समय के एक तिहाई से अधिक समय नहीं बिताना चाहिए, यह स्पष्ट करता है कि ऐसा करने में रूचि थी।
प्रोफेसर रूपा बांदोपाध्याय, अद्वैत और माध्व वेदांत में विख्यात हैं और उन्होंने ३० से अधिक वर्षों तक दर्शन सिखाया है। वह सम्प्रति में जाधवपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर हैं। उन्होंने विशुद्ध चेतना के सामने नतमस्तक होकर एक अद्वैत परिप्रेक्ष्य से चित्त की अवधारणा पर अपनी प्रस्तुति प्रारंभ की। उन्होंने कहा कि कुछ परम्पराएँ जैसे न्याय और वैशेषिक परम्पराएँ, चित्त को आंतरिक ऐन्द्रिक अंग मानती हैं। वे चित्त की बहुलता स्वीकार करते हैं। पर अद्वैत वेदांती, चित्त की इस अवधारणा को स्वीकार नहीं करते। पर वे मानते हैं कि चित्त एक निर्जीव, चेतनाहीन इकाई, एक अन्त होने वाली सम्मिश्र इकाई है जो अग्नि से निकलती है। अद्वैत का दृष्टिकोण है कि चित्त व्यक्ति के व्यक्तित्व का गठन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
प्रख्यात दार्शनिक और संस्कृतवादी, प्राचीन भारतीय संस्कृति, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और वेदांत के प्राध्यापक एस आर भट्ट ने संचालक का पद संभाला। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर सच्चिदानंद मिश्र का परिचय देते हुए बताया कि वे भारतीय तर्क और मीमांसा की गहन समझ रखते थे। अनन्त चित्त की न्याय की संकल्पना को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने समझाया कि न्याय न केवल वस्तु व चित्त के द्वैत को स्वीकार करते हैं बल्कि एक और तत्व जोड़ते हैं। वे आत्मा, चित्त और शरीर का प्रस्ताव रखते हैं। न्याय अवलोकन और अनुमान को भी स्वीकार करते हैं जो कि वैज्ञानिक जांच के लिए बहुत आधार प्रदान करता है।
परम पावन ने टिप्पणी की, कि २०वीं शताब्दी के आखिरी वर्षों तक वैज्ञानिकों ने चित्त के बजाय मस्तिष्क पर अपना शोध केंद्रित किया था। अब यह बदल रहा है विशेषकर न्यूरोप्लास्टिसिटी की मान्यता के बाद। उन्होंने उन साक्ष्यों का उल्लेख किया जो उन्होंने छोटे बच्चों को अपने विगत जीवन की स्पष्ट स्मृतियों और आध्यात्मिक अभ्यासियों के मामलों के साथ देखा था, जिनके शरीर नैदानिक मृत्यु के कुछ समय बाद ताजा रहते हैं। अभी तक वैज्ञानिकों के पास इन घटनाओं का कोई स्पष्टीकरण नहीं है, यद्यपि कुछ जांच कर रहे हैं कि उनका परीक्षण किस तरह किया जाए।
रामकृष्ण मिशन विवेकानंद शिक्षा और अनुसंधान संस्थान के कुलपति, स्वामी आत्मप्रियानंद सैद्धांतिक भौतिकी में पीएचडी हैं। अपनी प्रस्तुति में उन्होंने धर्म के अर्थ के बारे में बताया कि वह एक ऐसा है जो धारण करता है। इस पर प्रश्न उठाते हुए कि सभ्यता में अग्रिम होने का क्या अर्थ है, उन्होंने सुझाया कि आज वास्तव में बौद्धों द्वारा बताए गए 'सम्यक् दृष्टि' की आवश्यकता है, जो कि वेदांत शब्दावली में 'सहज चेतना जागृति' के रूप में संदर्भित किया जाता है और योगिक भाषा में 'उच्चतर प्रज्ञा का प्रकाश' कहा जाता है।
प्रोफेसर भगचंद्र जैन आर आर संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में प्रोफेसर और जैन दर्शन विभाग के प्रमुख हैं। 'जैन धर्म में प्रकृति और चित्त के प्रकार्य' को समझाते हुए उन्होंने कहा कि चित्त को कभी-कभी छठा इंद्रिय कहा जाता है। चित्त दो प्रकार के हैं - चेतना और भौतिक। बिना भौतिक चित्त के चेतना कार्य नहीं कर सकती। यह ज्ञान का एक साधन है, पर यह बाह्य वस्तुओं को पकड़ने के लिए अन्य इंद्रियों पर निर्भर है। चित्त सभी अप्रत्यक्ष संज्ञों में एक सामान्य कारक है और वह अतीत और भविष्य को पकड़ने में सक्षम है।
परम पावन ने भारतीय विचारों की व्यापकता के प्रति सराहना व्यक्त करते हुए टिप्पणी की कि बौद्ध परम्परा में भी इस तरह की भिन्नता मौजूद है। उन्होंने बुद्ध की महत्वपूर्ण सलाह को उद्धृत किया - 'भिक्षुओं जिस तरह प्रज्ञावान स्वर्ण का परीक्षण जलाकर, काटकर और रगड़कर करते हैं, मेरे शब्दों को भली भांति जांचें और जांचने के बाद ही उन्हें स्वीकार करें - केवल मेरे लिए सम्मान के कारण नहीं।
बैठक मध्याह्न के भोजन के लिए स्थगित हुई। प्रातः की प्रस्तुतियों की चर्चा मध्याह्न में हुई। परम पावन कल सम्मेलन के दूसरे दिन के प्रातःकालीन सत्र में भाग लेंगे।