थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत - आज प्रातः जैसे ही परम पावन दलाई लामा ने चुगलगखंग में सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण किया, थाइ भिक्षुओं ने पालि में मंगल सुत्त का पाठ द्रुत गति से प्रारंभ किया। आज मंदिर के अन्दर, अधिकांशतः कोरियाई बैठे थे और जैसे ही मंगल सुत्त समाप्त हुआ उन्होंने कोरियाई में 'मोकतक' लकड़ी के मत्स्य वाद्य के ताल पर, जो जागृत ध्यान का प्रतीक है, 'हृदय सूत्र' का पाठ प्रारंभ किया।
परम पावन ने प्रज्ञा पारमिता की स्तुति के एक छंद के साथ प्रारंम्भिक प्रार्थना पूरी कीः
प्रज्ञा पारमिता को वंदन
त्रिकाल के सभी बुद्धों की जननी,
शब्दातीत, अचिन्तनीय, अनिर्वचनीय,
अनुत्पादित और अबाधित, आकाश की प्रकृति में आत्म-जागरूक प्रज्ञा का वस्तुनिष्ठ क्षेत्र
तद्यथा - गते, गते, पारगते, पारसंगते, बोधिस्वाहा
"आज प्रवचनों का दूसरा दिन है," उन्होंने टिप्पणी की, "और मैं ग्रंथ का पाठ करूँगा।"
"सभी जीवित प्राण पीड़ा व आनन्द का अनुभव करते हैं। स्वभावतया हम दुःख नहीं चाहते, हम सुखी होना चाहते हैं। पीड़ा व आनन्द हेतुओं तथा परिस्थितियों से जन्म लेते हैं और मनुष्य के रूप में चिन्तन की क्षमता लिए हुए हम यह सोच सकते हैं कि ये क्या हैं। जो स्पष्ट है, वह यह कि हमारे मानसिक अनुभव से संबंधित आनन्द व पीड़ा की भावनाएँ हमारे शारीरिक अनुभवों से कहीं अधिक प्रभावशाली हैं।"
परम पावन ने यह अनुमान लगाया कि भौतिक जीवों के विकास का वह कौन सा बिंदु था, जब वे चेतना का आधार बने। उन्होंने बिग बैंग के होने के समय की विभिन्न गणनाओं का उद्धरण दिया। उन्होंने उल्लेख किया कि मनुष्यों की उपस्थिति का पारम्परिक बौद्ध विवरण विश्व में आत्म-प्रबुद्ध और आत्मनिर्भर दैविक सत्वों से प्रारंभ होता है। क्रमशः उन्होंने स्थूल भोजन की आवश्यकता विकसित की और मानव अस्तित्व में आए।
उन्होंने कहा कि धर्म मात्र मानव की रुचि का विषय है - जानवर धार्मिक नहीं हैं। प्रेम व करुणा के मूल्य का आम धार्मिक संदेश आधारभूत मानव प्रकृति का प्रतिबिंब है। टिप्पणी करते हुए कि एक परम शक्ति में आस्था बहुत उपयोगी हो सकता है, परम पावन ने कहा कि फिर भी हमें इस पर विचार करना चाहिए कि सुख को किस तरह विकसित किया जाए।
"बुद्ध ने कहा, 'आप स्वयं के स्वामी हैं' और सलाह दी कि 'एक भी अकुशल कर्म न करें, पुण्य की सम्पदा का संभार करें, चित्त को पूर्ण रूप से वश में करने हेतु - यही बुद्धों की देशना है।'
"हम दुखी हैं क्योंकि हमारे चित्त अनियंत्रित हैं - हमें उन्हें पालतू बनाना है। कुछ पाश्चात्य लोगों ने मुझे बताया है कि बौद्ध धर्म, धर्म कम चित्त का विज्ञान अधिक लगता है। चूँकि यह चित्त के रूपांतरण के विषय के बारे में है, प्रार्थना द्वारा नहीं, अपितु अपनी भावनाओं से निपट कर अतः वे सही हो सकते हैं। व्याकुल करने वाली भावनाएँ सहज प्रतिक्रिया के रूप में तत्काल जनित होती हैं, जबकि महा करुणा उसे विकसित करने के हमारे प्रयासों के फलस्वरूप उत्पन्न होती है।"
परम पावन ने उल्लेख किया कि बौद्ध धर्म के अतिरिक्त अन्य भारतीय परंपराओं के अनुयायियों को भी ध्यान में प्रशिक्षण का अनुभव है। उन्होंने ऐसे योगियों के बारे में सुना है जो उच्च हिमालय में रहते हैं और जो आंतरिक उष्णता और अन्य सिद्धियाँ विकसित करते हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें आशा था कि उन्हें कुंभ मेले में जहाँ उन्हें आमंत्रित किया गया था, उनके कुछ अनुभवों पर चर्चा करने का अवसर प्राप्त होगा, पर दुर्भाग्यवश खराब मौसम के कारण वे सम्मिलित न हो सके।
उन्होंने स्वीकार किया कि जहाँ ऐसे अभ्यासी आम तौर पर एक 'आत्मन' अथवा एक नित्य, स्वतंत्र आत्मा के अस्तित्व पर बल देते हैं, बुद्ध ने यह शिक्षा दी कि इस तरह की एक स्वतंत्र इकाई के विचार की ग्राह्यता पर काबू पाया जाना चाहिए। उन्होंने सिखाया कि यह आधारभूत अज्ञान क्रोध व घृणा जैसी व्याकुल करने वाली भावनाओं के मूल में है। यह आत्म - केंद्रित व्यवहार का भी स्रोत है जो ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, लोभ और द्वेष जैसी विभाजनकारी भावनाओं को जन्म देता है।
बौद्ध मार्ग को सारांशित करते हुए परम पावन ने कहा कि वह पक्ष जो कुशल उपाय से संबंधित है, वह दूसरों के लिए दूरगामी सोच पैदा करने का कार्य करता है, जबकि प्रज्ञा के पक्ष का संबंध आत्म और वस्तु के नैरात्म्य की समझ से है, यह समझते हुए कि उनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। इस तरह की पदार्थीकरण की भावना नकारात्मक भावनाओं को कम करने में सहायक होगी।
"नकारात्मक भावनाओं को नियंत्रित करने की इस आवश्यकता के प्रति मैं जहाँ कहीं जाता हूँ, लोगों को उनके बारे में जागरूक करने का प्रयास करता हूँ। हम सभी यहाँ धर्म भाई और बहनें हैं और हम सब देख सकते हैं कि हम विश्व में अधिक से अधिक खुशी सुनिश्चित करने के लिए किस तरह योगदान दे सकते हैं, न कि बौद्ध धर्म का प्रसार मात्र कर अपितु लोगों को अपनी नकारात्मक भावनाओं को कम करने में सहायता कर।
नागार्जुन की 'प्रज्ञाज्ञान मूल मध्यम कारिका' पर बुद्धपालित की वृत्ति' से प्रारंभ कर उन्होंने दोहराया कि नागार्जुन की प्रज्ञा पारमिता के स्पष्ट विषय - शून्यता पर केंद्रित थे। उन्हें स्मरण हुआ कि हाल ही में मुम्बई में यातायात में एक खिड़की से बाहर देखते हुए उनके चित्त में सप्तम दलाई लामा के 'चार स्मरणों के गीत' में से एक छंद उभरा:
विविध दृश्यों और छह चेतनाओं के दोराहे पर दीख पड़ता है, द्वैत की आधारहीन वस्तुओं का भ्रम,
एक जादूगर के धोखा देने वाले भ्रामक दृश्य की भांति न सोचकर कि वे वास्तविक हैं, उनके शून्यता के अस्तित्व को देखो,
अपने चित्त को भटकने न देते हुए, उसे दृश्य और शून्यता में निहित रखो,
अपनी सजगता का विस्मरण न करते हुए, इसे दृश्य और शून्यता में बनाए रखो।
परम पावन ने अपने श्रोताओं को स्मरण कराया कि नागार्जुन की 'प्रज्ञाज्ञान मूल मध्यम कारिका' के अध्ययन का तरीका सर्वप्रथम अध्याय २६ को पढ़ना है क्योंकि यह पालि परम्परा के साथ समानता रखते हुए विषयों से संबंधित है - कि अज्ञान दुःख का मूल है। इसका किस तरह प्रतिकार किया जाए यह समझने के लिए अध्याय १८ को पढ़ें तत्पश्चात अध्याय २४, जो वस्तुवादी परम्परा और मध्यमक परम्परा के समर्थकों के बीच तर्कों का अध्ययन करता है। जहाँ वस्तुवादी यह तर्क रखते हैं कि यदि वस्तुओं की कोई स्वभाव सत्ता नहीं है, तो चार आर्य सत्यों की व्याख्या नहीं बनी रह सकती, नागार्जुन कहते हैं कि वे शून्यता का प्रयोजन और अर्थ नहीं समझ पाए हैं। वे प्रतीत्य समुत्पाद के प्रबल तर्क को उद्धृत करते हैं - यदि वस्तुएँ हेतुओं और परिस्थितियों पर आश्रित होकर अस्तित्व में आती हैं तो वे स्वतंत्र नहीं हो सकतीं।
परम पावन ने स्थिरता से ग्रंथ का पाठ किया तथा प्रथम अध्याय पूर्ण किया। प्रवचन कल जारी रहेगा